सोमवार, 12 अक्टूबर 2020

प्राचीन भारत- Prof. Sandeep K. Kanishk



पुरापाषाण काल

 


डेनिश विद्वान क्रिस्टियन जे. थॉमसन ने 19 वीं सदी में मानव अतीत के अध्ययन के क्रम में तकनीकी ढांचे के आधार पर सर्वप्रथम 'पाषाण युग' शब्द का प्रयोग किया| पाषाण युग के रूप में उस युग को परिभाषित किया गया है जब प्रागैतिहासिक मनुष्य अपने प्रयोजनों के लिए पत्थरों का उपयोग करते थे| इस युग को तीन भाग पुरापाषाण युग, मध्य पाषाण युग और नवपाषाण युग में बांटा गया है|

भारत में अवशेष

भारत में पुरा पाषाण काल के अवशेष तमिलनाडु के कुरनूलओडिशा के कुलिआनाराजस्थान के डीडवाना के श्रृंगी तालाब के निकट और मध्य प्रदेश के भीमबेटका में मिलते हैं। इन अवशेषों की संख्या मध्य पाषाण काल के प्राप्त अवशेषों से बहुत कम है।

पुरापाषाण काल (10000 .पू. तक

1. इसकी शुरूआत प्रतिनूतन युग (2000000 .पू. से 11000 .पू.) में हुई|  

2. भारत में सर्वप्रथम पुरापाषाण कालीन चट्टान की खोज रॉबर्ट ब्रूस फूटी ने 1863 में की थी|

3. भारत में पुरापाषाण अनुसंधान को 1935 में डेटेरा और पैटरसन के नेतृत्व में येले कैम्ब्रिज अभियान के आने के बाद बढ़ावा मिला है|

4. इस काल में अधिकांश उपकरण कठोर क्वार्टजाइट से बनाए जाते थे और इसलिए इस काल के लोगों को क्वार्टजाइट मैन भी कहा जाता है|

5. इस काल के लोग मुख्यतः शिकारी एवं खाद्य संग्राहक” थे|

6. प्रारंभिक या निम्न पुरापाषाण काल का संबंध मुख्यतः हिम युग से है और इस काल के प्रमुख औजार हस्त-कुठार (hand-axe), विदारनी (cleaner) और कुल्हाड़ी (chopper) थे|

7. मध्य पुरापाषाण काल की प्रमुख विशेषता शल्क (flakes) से बने औजार हैं| इस काल के प्रमुख उपकरण ब्लेड, पॉइंट और स्क्रैपर थे|

8. उच्च पुरापाषाण काल में होमो सेपियन्स और नए चकमक पत्थर की उपस्थिति के निशान मिलते हैं| इसके अलावा छोटी मूर्तियों और कला एवं रीति-रिवाजों को दर्शाती अनेक कलाकृतियों की व्यापक उपस्थिति के निशान मिलते हैं| इस काल के प्रमुख औजार हड्डियों से निर्मित औजार, सुई, मछली पकड़ने के उपकरण, हारपून, ब्लेड और खुदाई वाले उपकरण थे|

 

विभाजन

मानव की आरंभिक गतिविधियां पुरा पाषाण काल में ही अभिव्यक्त होने लगती हैं। इस काल में मानव शिकार खाद्य संग्रह पर निर्भर थे। तकनीकी विकास जलवायु परिवर्तन के आधार पर पुरा पाषाण काल को तीन भागों में बांटा जा सकता है-

  1. निम्न पुरा पाषाण काल - 5 लाख ईसा पूर्व से 50 हजार से ईसा पूर्व
  2. मध्य पुरा पाषाण काल - 50 हजार से ईसा पूर्व से 40 हजार से ईसा पूर्व
  3. उच्च पुरा पाषाण काल - 40 हजार से ईसा पूर्व से 10 हजार से ईसा पूर्व

निम्न पुरा पाषाण काल में जलवायु अधिकांशतः ठंडी थी। उच्च पुरा पाषाण काल तक जलवायु शुष्क होने लगती है। निम्न पुरा पाषाण काल में क्रोड उपकरणों का प्रयोग होता था जबकि उच्च पुरा पाषाण में शल्क उपकरणों का महत्त्व बढ़ने लगा था। मध्य पुरा पाषाण काल को फलक संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है। उच्च पुरा पाषाण काल में हड्डियों के उपकरणों का प्रयोग भी आरम्भ हो गया था। भीमबेटका से प्राप्त गुफ़ाचित्र उच्च पुरा पाषाण काल से सम्बंधित हैं।

 

प्रमुख केन्द्र


·        निम्न पुरापाषाण कालउत्तर- पश्चिम में सोहन (पाकिस्तान के सोहन नदी के किनारे) अथवा पेबुल - चॉपर चॉपिंग संस्कृति और दक्षिण भारत की हैण्डएक्सक्लीवर (संस्कृति) इसके अलावा भीमबटेका (. प्र.), बेलन घाटी (.प्र.) इत्यादि

·        मध्य पुरापाषाण कालबेतवा घाटी, सोन घाटी (.प्र.), कृष्ण घाटी (कर्नाटक), बेलन घाटी (.प्र.), नेवासा (महाराष्ट्र) इत्यादि

·        उच्च पुरापाषाण कालबेलन घाटी (.प्र.), रेनीगुंटा (.प्र.), सोन घाटी (.प्र.),सिंह भूमि (बिहार) इत्यादि

 

बेलन और नर्मदा घाटी में पाषाण युग की सभी अवस्थाएँ क्रमवार तरीके से विकसित हुई है। गंगा, यमुना और सिंध के मैदानी इलाकों से उच्च पुरापाषाण युग की कोई जानकारी नहीं मिलती है। पुरापाषाण युग से पशुओं के जीवाश्म मिले है, परंतु मानव के नहीं अपवादस्वरूप - नर्मदा नदी घाटी के हथनौर (मध्य प्रदेश) नामक स्थान से एक मानव का कपाल मिला है जिनका सबंधं उच्च पुरापाषाण से स्थापित किया जाता है। मध्य पुरापाषाण काल में हथियार बनाने में क्वार्टजाइट की जगह जैस्पर, चर्ट इत्यादि चमकीले पत्थरों का प्रयोग शुरू हुआ इस कारण इसे 'फलक - संस्कृति' भी कहते है। सामुदायिक जीवन का विकास उत्तर पुरा पाषाण काल में अधिक सुद्ढ हुआ। अनेक व्यक्ति समूहों या कुलों में रहते थे जिससे परिवार जैसी संस्था के उदय का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस काल में लैगिक आधार पर भरम विभाजन प्रारंभ हो चुका था। गुफाओं के अतिरिक्त झोपड़ियो का उपयोग आवास के रूप में किया गया। गुफा चित्रकला से ज्ञात होता है की लोग पशु चर्म का उपयोग वस्त्र के रूप में करते थे। भारत में आदिम मानव अपरिष्कृत औजारों का प्रयोग करते है। तराशे हुए पत्थरों के औजार और फोड़ी हुई गिटिट्यो से वे शिकार करते थे, पेड़ काटते थे तथा अन्य कार्य भी करते थे। इस काल में मानव अपनी खाद्य सामग्री कठिनाई से ही एकत्र कर पता था और शिकार से अपना जीवन- यापन करता था।

शैल चित्र, सीता कोहबर, जनपद मिर्ज़ापुर

जनपद मुख्यालय मिर्ज़ापुर से लगभग 11-12 किलोमीटर दूर टांडा जलप्रपात से लगभग एक किलोमीटर पहले सीता कोहबर नामक पहाड़ी पर एक कन्दरा में प्राचीन शैल-चित्रों के अवशेष प्रकाश में आये हैं।

लगभग पांच मीटर लम्बी गुफा, जिसकी छत 1.80 मीटर ऊँची तथा तीन मीटर चौड़ी है, में अनेक चित्र बने हैं। विशालकाय मानवाकृति, मृग समूह को घेर कर शिकार करते भालाधारी घुड़सवार शिकारी, हाथी, वृषभ, बिच्छू तथा अन्य पशु-पक्षियों के चित्र गहरे तथा हल्के लाल रंग से बनाये गए हैं, इनके अंकन में पूर्णतया: खनिज रंगों (हेमेटाईट को घिस कर) का प्रयोग किया गया है। इस गुफा में बने चित्रों के गहन विश्लेषण से प्रतीत होता है कि इनका अंकन तीन चरणों में किया गया है।

प्रथम चरण में बने चित्र मुख्यतया: आखेट से सम्बन्धित है और गहरे लाल रंग से बनाये गए हैं, बाद में बने चित्र हल्के लाल रंग के तथा आकार में बड़े शरीर रचना की दृष्टि से विकसित अवस्था के प्रतीत होते हैं साथ ही उन्हें प्राचीन चित्रों के उपर अध्यारोपित किया गया है।

यहाँ उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र (मिर्ज़ापुर सोनभद्र) में अब तक लगभग 250 से अधिक शैलचित्र युक्त शैलाश्रय प्रकाश में चुके हैं, जिनकी प्राचीनता ई० पू० 6000 से पंद्रहवी सदी ईस्वी मानी जाती है। मिर्ज़ापुर के सीता कोहबर से प्रकाश में आये शैलचित्र बनावट की दृष्टि से 1500 से 800 वर्ष प्राचीन प्रतीत होते हैं। इन क्षेत्रों में शैलचित्रों की खोज सर्वप्रथम 1880-81 ई० में जे० काकबर्न ए० कार्लाइल ने ने किया तदोपरांत लखनऊ संग्रहालय के श्री काशी नारायण दीक्षित, श्री मनोरंजन घोष, श्री असित हालदार, मि० वद्रिक, मि० गार्डन, प्रोफ़० जी० आर० शर्मा, डॉ० आर० के० वर्मा, प्रो० पी०सी० पन्त, श्री हेमराज, डॉ० जगदीश गुप्ता, डॉ० राकेश तिवारी तथा श्री अर्जुनदास केसरी के अथक प्रयासों से अनेक नवीन शैल चित्र समय-समय पर प्रकाश में आते रहे हैं। इस क्रम में यह नवीन खोज भारतीय शैलचित्रों के अध्ययन में एक महत्त्वपूर्ण कड़ी मानी जा सकती है।

 


भीमबेटका गुफ़ाएँ 

ये गुफ़ाएँ भोपाल से 46 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण में मौजूद है। गुफ़ाएँ चारों तरफ़ से विंध्य पर्वतमालाओं से घिरी हुईं हैंये गुफ़ाएँ मध्य भारत के पठार के दक्षिणी किनारे पर स्थित विन्ध्याचल की पहाड़ियों के निचले छोर पर हैं। इसके दक्षिण में सतपुड़ा की पहाड़ियाँ आरम्भ हो जाती हैं। इनकी खोज वर्ष 1957-1958 में 'डॉक्टर विष्णु श्रीधर वाकणकर' द्वारा की गई थी। भीमबेटका गुफ़ाओं की विशेषता यह है कि यहाँ कि चट्टानों पर हज़ारों वर्ष पूर्व बनी चित्रकारी आज भी मौजूद है और भीमबेटका गुफ़ाओं में क़रीब 500 गुफ़ाएँ हैं। भीमबेटका क्षेत्र को भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण, भोपाल मंडल ने अगस्त 1990 में राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया। इसके बाद जुलाई 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। भीमबेटका गुफ़ाओं में प्राकृतिक लाल और सफ़ेद रंगों से वन्यप्राणियों के शिकार दृश्यों के अलावा घोड़ेहाथीबाघ आदि के चित्र उकेरे गए हैं। इन चित्र में से यह दर्शाए गए चित्र मुख्यत है; नृत्, संगीत बजाने, शिकार करने, घोड़ों और हाथियों की सवारी, शरीर पर आभूषणों को सजाने और शहद जमा करने के बारे में हैं। घरेलू दृश्यों में भी एक आकस्मिक विषय वस्तु बनती है। शेर, सिंह, जंगली सुअर, हाथियों, कुत्तों और घडियालों जैसे जानवरों को भी इन तस्वीरों में चित्रित किया गया है। इन आवासों की दीवारें धार्मिक संकेतों से सजी हुई है, जो पूर्व ऐतिहासिक कलाकारों के बीच लोकप्रिय थे। सेंड स्टोन के बड़े खण्डों के अंदर अपेक्षाकृत घने जंगलों के ऊपर प्राकृतिक पहाड़ी के अंदर पाँच समूह हैं I


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