सिंधु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीन
नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी। यह हड़प्पा सभ्यता और सिंधु-सरस्वती सभ्यता के नाम से भी जानी जाती है। आज से लगभग 80 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के 'पश्चिमी पंजाब प्रांत' के 'माण्टगोमरी ज़िले' में स्थित 'हरियाणा'
के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास
नहीं था कि वे अपने आस-पास की ज़मीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से
अपने मकानों के निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हें तब हुआ जब 1856 ई. में 'जॉन विलियम ब्रन्टम' ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन
बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के
दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता
का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।
खोज-
इस अज्ञात सभ्यता की खोज का श्रेय 'रायबहादुर दयाराम साहनी' को जाता है। उन्होंने ही पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक 'सर जॉन मार्शल' के निर्देशन में 1921 में इस स्थान की खुदाई करवायी। लगभग एक वर्ष बाद 1922 में 'श्री राखल दास बनर्जी' के नेतृत्व में पाकिस्तान के सिंध प्रान्त के 'लरकाना' ज़िले के मोहनजोदाड़ो में स्थित एक बौद्ध स्तूप की खुदाई के समय एक और स्थान का पता चला।
इस सभ्यता का विकास सिंधु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा और राखीगढ़ी इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर 2014 में भिरड़ाणा को सिंधु घाटी सभ्यता का अब तक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यंत विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।
सभ्यता का विस्तार-
नामकरण- इस नवीनतम स्थान के
प्रकाश में आने क उपरान्त यह मान लिया गया कि संभवतः यह सभ्यता सिंधु नदी की घाटी तक ही सीमित है, अतः इस
सभ्यता का नाम ‘सिधु घाटी की सभ्यता‘ (Indus Valley
Civilization) रखा गया। सबसे पहले 1927 में 'हड़प्पा' नामक स्थल पर उत्खनन होने के कारण 'सिन्धु सभ्यता' का
नाम 'हड़प्पा सभ्यता' पड़ा। पर कालान्तर में 'पिग्गट' ने हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ों को ‘एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वा
राजधानियां‘ बतलाया।
विभिन्न विद्धानों
द्वारा सिंधु सभ्यता का काल निर्धारण |
|
विद्धान |
काल |
माधोस्वरूप वत्स |
3,500 - 2,700
ई.पू. |
जॉन मार्शल |
3,250 - 2,750
ई.पू. |
डेल्स |
2,900 - 1,900
ई.पू. |
अर्नेस्ट मैके |
2,800 - 1,500
ई.पू. . |
मार्टीमर ह्यीलर |
2,500 - 1,500
ई.पू. |
सी.जे. गैड |
2,350 - 1,700
ई.पू. |
डी.पी. अग्रवाल |
2,350 - 1,750
ई.पू. |
फेयर सर्विस |
2,000 - 1,500
ई.पू. |
सिधु सभ्यता के निर्माता और निवासी
यह अत्यन्त ही विवादाग्रस्त विषय है। इस विवाद में कुछ विद्धानों के प्रकार
हैं-
- 'डॉ. लक्ष्मण स्वरूप' और 'रामचन्द्र' सिंधु सभ्यता एवं वैदिक सभ्यता दोनों के
निर्माता के रूप में आर्यो को
मानते हैं।
- 'गार्डन चाइल्ड' सिंधु
सभ्यता के निर्माता के रूप में 'सुमेरियन'
लोगों को मानते हैं।
- 'राखाल दास बनर्जी' इस
सभ्यता के निर्माता के रूप में द्रविड़ों को
मानते हैं
- ह्वीलर का
मानना है कि ऋग्वेद में
वर्णित दस्यु एवं ‘दास‘ सिंधु सभ्यता के निर्माता थे।
- इन
समस्त विवादों का अवलोकन करके 'डॉ. रमा शंकर त्रिपाठी' का कहना है कि 'ऐतिहासिक ज्ञान की इस सीमा पर
खड़े होकर अभी इस विषय पर हमारा मौन ही सराह्य और उचित है।'
सिंधु घाटी सभ्यता के चरण
1.
प्रारंभिक हड़प्पाई सभ्यता - 3300ई.पू.-2600ई.पू. तक
2.
परिपक्व हड़प्पाई सभ्यता - 2600ई.पू-1900ई.पू. तक
3.
उत्तर हड़प्पाई सभ्यता - 1900ई.पु.-1300ई.पू. तक
आरंभिक सैन्धव सभ्यता के
साक्ष्य
स्थान |
पुरातात्विक साक्ष्य |
कोटदीजी |
काँसे की चूड़ियां, बाँडाग्र, नगर के चारो ओर अति विशाल
सुरक्षात्मक दीवार के अवशेष |
रहमानढेरी |
आयताकार नगर एवं नियोजित ढंग से बने मकान, सड़के, नालियों के
अवशेष मुहरे |
मेहरगढ़ |
लाजवर्द मणि |
रान्दाघुंडई |
चित्रयुक्त बर्तन, कुबड़ वाले बैल, चित्र वाले बर्तन। |
§ प्रारंभिक हड़प्पाई चरण
‘हाकरा
चरण’
से संबंधित
है, जिसे घग्गर- हाकरा नदी
घाटी में चिह्नित किया गया है।
§ हड़प्पाई लिपि का प्रथम उदाहरण लगभग 3000 ई.पू के समय का मिलता है।
§ इस चरण की विशेषताएं एक
केंद्रीय
इकाई
का होना तथा
बढते हुए नगरीय गुण थे।
§ व्यापार क्षेत्र विकसित हो चुका
था और खेती के साक्ष्य भी मिले हैं। उस समय मटर, तिल, खजूर , रुई आदि की खेती होती
थी।
§ कोटदीजी नामक स्थान परिपक्व हड़प्पाई सभ्यता के चरण को प्रदर्शित करता
है।
§ 2600 ई.पू. तक सिंधु घाटी सभ्यता अपनी
परिपक्व अवस्था में प्रवेश कर चुकी थी।
§ परिपक्व हड़प्पाई सभ्यता
के आने तक प्रारंभिक हड़प्पाई सभ्यता बड़े- बड़े नगरीय केंद्रों में परिवर्तित हो चुकी
थी। जैसे- हड़प्पा और मोहनजोदड़ो वर्तमान
पाकिस्तान में तथा लोथल जो कि वर्तमान में भारत के गुजरात राज्य में स्थित है।
महत्वपूर्ण
नगर (Main Cities)
I. भिरड़ाणा (2014)-
भिरड़ाणा भारत के उत्तरी राज्य हरियाणा के फतेहाबाद जिले का एक छोटा सा गाँव है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के दिसम्बर 2014 के शोध से पता चला है कि यह सिंधु घाटी सभ्यता का अबतक खोजा गया सबसे प्राचीन नगर है जिसकी स्थापना 7570 ईसापूर्व में हुई थी। नवपाषाण युग में भिरड़ाना एक छोटा सा ग्राम था, ताम्र पाषाण युग में यहाँ नगर व्यवस्था आई, कांस्य युग के आते आते यह राखीगढ़ी, मोहनजोदड़ो, सुमेर आदि अपने सभी समकालीन महानगरो की तरह एक समृद्ध महानगर बना। इसके बाद नागपुर की उत्खनन शाखा ने 2003-04 से 2004-05 2005-06 तक खुदाई की। इसमें कुछ खंडहर मिले, जिन्हें मिट्टी से लेपा गया था। साथ ही सिक्के, कॉपर की कुल्हाड़ी मिली है। भिराना में मिट्टी के भित्तिचित्र "मरमेड" प्रकार के देवताओं और नृत्य करने वाली लड़कियों को दिखाते हैं; बाद में मोहनजो-दारो की कांस्य "नृत्य करने वाली लड़कियों" के समान एक आसन है जो पुरातत्वविद् एल.एस. राव ने कहा कि "ऐसा प्रतीत होता है कि भिराना के शिल्पकार को पहले-पहले का ज्ञान था।" ये देवता या नृत्य करने वाली लड़कियाँ अप्सराओं या जल अप्सराओं का प्रतिनिधित्व कर सकती हैं, जो जल संस्कार से संबंधित सिंधु में व्यापक रूप से जुड़ी हैं। घाटी की सभ्यता।
II. हड़प्पा(दयाराम साहनी- 1921)):
यह पहला स्थान था, जहाँ से सैन्धव सभ्यता के सम्बन्ध में प्रथम जानकारी मिली।यह पाकिस्तान में पश्चिमी पंजाब प्रान्त के मांटगोमरी जिले में रावी नदी के तट पर स्थित है। अर्ध-औद्योगिक नगर’ कहा है। हड़प्पा के सामान्य आवास क्षेत्र के दक्षिण में एक ऐसा क़ब्रिस्तान स्थित है जिसे ‘समाधि आर-37‘ नाम दिया गया है। यहाँ पर प्रारम्भ में 'माधोस्वरूप वत्स' ने उत्खनन कराया था, बाद में 1946 में ह्वीलर ने भी यहाँ पर उत्खनन कराया था। यहाँ पर खुदाई से कुल 57 शवाधान पाए गए हैं। यहाँ पर 6:6 की दो पंक्तियों में निर्मित कुल बारह कक्षों वाले एक अन्नागार का अवशेष प्राप्त हुआ हैं, जिनमें प्रत्येक का आकार 50x20 मी. का है, जिनका कुल क्षेत्रफल 2,745 वर्ग मीटर से अधिक है। हड़प्पा से प्रान्त अन्नागार नगरमढ़ी के बाहर रावी नदी के निकट स्थित थे। हड़प्पा के मिट्टी के बर्तन पर सामान्यतः लाल रंग का उपयोग हुआ है।
III. मोहनजोदड़ो(राखलदास बनर्जी 1922)):
जिसका सिंधी भाषा में आशय मृतको का टीला होता है, सिंध प्रान्त के लरकाना जिले में स्थित सैन्धव सभ्यता का महत्वपूर्ण स्थल है। यहाँ से वृहत स्न्नानागार, अन्नागार के अवशेष, पुरोहित कि मूर्ती इत्यादि मिले है।इतिहासकार इरफ़ान हबीब के अनुसार यहाँ के लोग रबी की फसल बोते थे। गेहूँ, सरसों, कपास, जौ और चने की खेती के यहाँ खुदाई में पुख़्ता सबूत मिले हैं। मोहन जोदड़ो की खुदाई मे कपडो को रंगाई करने के लिये एक कारखाना भी पाया गया है। शिव पूजा, सूर्य आराधना एवं स्वास्तिक चिंह के भी कई प्रमाण मिले हैं। इस शहर की खुदाई के दौरान कई सारी मुर्तिया मिली है जिसमे एक प्रसिद्ध नाचती हुई लड़की की कांस्य की मूर्ति पाई गयी और साथ में कुछ पुरुषो की भी मुर्तिया मिली। वो सभी पुरुषो की मुर्तिया पर नक्काशी का काम किया गया है वो सभी रंगीन है।
IV. चन्हूदड़ो (एन .जी. मजूमदार,1931):
यह सैन्धव नगर मोहनजोदड़ो से किलोमीटर दक्षिण में सिंध प्रान्त में ही स्थित था। इसकी खोज 1934 ई० में ऐन, जी, मजूमदार ने की तथा 1935 में मैके द्धारा यहाँ उत्खनन कराया गया। यहाँ के मनके बनाने का कारखाना, बटखरे।तथा कुछ उच्च कोटि की मुहरे मिली है। यही एक मात्र ऐसा सैन्धव स्थल है जो दुर्गीकृत नहीं है।
V. लोथल(आर. राव, 1953)):
यह नगर गुजरात में खम्भात की खाड़ी में भोगवा नदी के किनारे स्तिथ है। जो महत्वपूर्ण सैन्धव स्थल तथा बंदरगाह नगर भी था। यहाँ से गोदी (Duckyard )के साक्ष्य मिले है लोथल में नगर का दो भागो में विभाजन होकर एक ही रक्षा प्राचीर से पूरे नगर को दुर्गीकृत किया गया है।
VI. कालीबंगा (घोष,1953):
कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ होता है काली रंग की चूड़ियां। यह सैन्धव नगर राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में घग्घर नदी के किनारे स्तिथ है यहाँ के भवनों का निर्माण कच्ची ईंटो द्धारा हुआ था तथा यहाँ से अलंकृत ईंटो के साक्ष्य मिले है। जुते खेत, अग्निवेदिका, सेलखड़ी तथा मिटटी की मुहरे एवम मृदभांड यहाँ उत्त्खनन से प्राप्त हुए है।
VII. सुत्कागेंडोर (स्टीन, 1929)): सैन्धव
सभ्यता का यह सुदूर पश्चिमी स्थल पाकिस्तान के
बलूचिस्तान प्रान्त में स्तिथ है।यह सैन्धव सभ्यता का पश्चिम में अंतिम बिंदु
है। यहाँ से एक किले का साक्ष्य मिला है, जिसके
चारो ओर रक्षा प्राचीर निर्मित
थी।
VIII. बनावली (आर.एस. विष्ट,1974)):
हरियाणा के हिसार जिले में स्तिथ इस स्थल से कालीबंगा की तरह हड़प्पा पूर्व और हड़प्पाकालीन, दोनों संस्कृतियों के अवशेष मिले है। यहाँ से अग्निवेदिया, लाजवर्दमनी, मनके, हल की आकृति, तिल सरसो का ढेर, अच्छे किस्म के जो, नालियों की विशिस्टता, तांबे के वाणाग्र आदि मिले है
IX. धौलावीरा-
यह स्थल गुजरात के कच्छ जिले के मचाऊ तालुका में मानसर एवं मानहर नदियों के मध्य अवस्थित हैं। इसकी खोज जगपति जोशी ने 1967-68 में की परन्तु इसका विस्तृत उत्खनन रवीन्द्र सिह विष्ट के द्वारा किया गया। यह ऐसा प्रथम नगर है जो तीन भागों में विभाजित था- दुर्गभाग, मध्यम नगर तथा निचला नगर। यहाँ से 16 विभिन्न आकार-प्रकार के जलाशय मिले हैं, जो एक अनूठी जल संग्रहण व्यवस्था का चित्र प्रस्तुत करते हैं। धौलावीरा नगर के दुर्ग भाग एंव मध्यम भाग के मध्य एक भव्य इमारत के अवशेष, चारों ओर दर्शकों को बैठने के लिए बनी हुई सीढ़ियों को, इंगित करते हैं। धौलावीरा से दस बड़े अक्षरों में लिखा एक सूचना पट्ट का प्रमाण मिला है।
समाज- सिंधु सभ्यता
में चार प्रजातियों का पता चलता है-
- भूमध्यसागरीय,
- प्रोटोआस्ट्रेलियाड,
- मंगोलाइड,
- अल्पाइन
सबसे जयादा भूमध्यसागरीय प्रजाति के लोग थे। सिन्धु का समाज संभवत: चार वर्गों में
विभाजित था- योद्धा, विद्वान्, व्यापारी और श्रमिक
राजनैतिक
जीवन- इतना
तो स्पष्ट है कि हड़प्पा की विकसित नगर निर्माण प्रणाली, विशाल सार्वजनिक स्नानागारों का अस्तित्व और विदेशों से व्यापारिक संबंध
किसी बड़ी राजनैतिक सत्ता के बिना नहीं हुआ होगा पर इसके पुख्ता प्रमाण नहीं मिले
हैं कि यहाँ के शासक कैसे थे और शासन प्रणाली का स्वरूप क्या था। सिंधु घाटी सभ्यता से बहुत कम मात्रा में लिखित
साक्ष्य मिले हैं ,जिन्हें अभी तक पुरातत्त्वविदों तथा शोधार्थियों द्वारा पढ़ा
नहीं जा सका है। एक परिणाम के अनुसार, हड़प्पाई
स्थलों पर किसी मंदिर के प्रमाण नहीं मिले हैं। अतः हड़प्पा सभ्यता में पुजारियों के प्रुभुत्व या विद्यमानता को नकारा जा सकता है। हड़प्पा सभ्यता
अनुमानतः व्यापारी वर्ग द्वारा शासित थी। अगर हम हड़प्पा सभ्यता में शक्तियों के केंद्रण की बात करें तो पुरातत्त्वीय अभिलेखों द्वारा कोई ठोस जानकारी
नहीं मिलती है। कुछ पुरातत्त्वविदों की राय में हड़प्पा सभ्यता में कोई शासक वर्ग नहीं
था तथा समाज के हर व्यक्ति को समान दर्जा प्राप्त था । कुछ पुरातत्त्वविदों की राय
में हड़प्पा सभ्यता में कई शासक वर्ग मौजूद थे ,जो विभिन्न हड़प्पाई शहरों में शासन करते
थे । लेकिन नगर व्यवस्था
को देखकर लगता है कि कोई नगर निगम जैसी स्थानीय स्वशासन वाली संस्था थी।
नगर और नगर नियोजन
उत्खनन
स्थलों में मुख्य रूप से 5 तरह भवन पाए गए
है – दुर्ग, निवास ग्रह , सार्वजनिक भवन चबूतरे और
सार्वजानिक स्नानागार | हड़प्पा के लोग निर्माण के लिए
पकी हुई ईंटों का प्रयोग करते थे और इन ईंटों की परत बिछाकर उनको गारे से जोड़ा
जाता था | नगर दो भागों में विभाजित था – गढ़ और निचला
नगर | पश्चिमी भाग में अन्नागार , प्रशासनिक भवन , स्थम्भों
वालें भवन और आंगन पाए गए है | अन्नागारों को वायुसंचार
वाहिकाओं और उचें चबूतरों के
साथ डिजाईन किया गया था | सार्वजनिक स्नानागारों का
प्रचलन हड़प्पा नगरों की एक प्रमुख विशेषता थी और इसका सबसे अच्छा उधाहरण
मोहनजोदड़ों का वृहत स्नानागार है | हड़प्पा सभ्यता की
सबसे प्रमुख विशेषता उन्नत जल निकास व्यवस्था थी |
हर घर से निकलने वाली छोटी नालियां मुख्य सड़क के साथ –साथ बड़ी नालियों से जुड़ी थी
और साफ –सफाई का
ध्यान रखते हुए इन्हें ढका गया था और तो और थोड़ी –थोड़ी दूरी पर मलकुंड (सिसपिट)
बनाएं गए थे| चौड़ी गलियां
योजनाबद्ध शहर:
- ऐसा
लगता है कि इन शहरों का निर्माण बहुत ही सटीक योजना के आधार पर हुआ था।
- हड़प्पा
का नगर दो भागों में बँटा हुआ था, पश्चिमी और पूर्वी भाग।
- नगर
का पश्चिमी भाग छोटा
था लेकिन ऊँचाई पर था। ऊँचे भाग को नगर-दुर्ग कहते थे। इस दुर्ग में कुछ खास इमारतें
बनी थीं।
- नगर
का पूर्वी भाग नीचे
था लेकिन बड़ा था। इस भाग को निचला शहर कहते
थे।
- नगर-दुर्ग में एक बड़ा तालाब मिला है। पुरातत्वविदों ने इसे महान स्नानागार का नाम दिया है। इसका निर्माण पकी ईंटों से हुआ था। महान स्नानागार की दीवारों और फर्श पर चारकोल की परत चढ़ाई गई थी ताकि रिसाव न हो सके। इसमें उतरने के लिए दो तरफ से सीढ़ियाँ बनी थीं और चारों तरफ कमरे बने थे। इतिहासकारों का अनुमान है कि यहाँ पर विशेष अवसरों पर विशिष्टनागरिक स्नान किया करते थे।
- धनी
लोग शहर के ऊपरी हिस्से में रहते थे, जबकि मजदूर लोग शहर के निचले हिस्से में रहते थे।
पकी ईंटों का प्रयोग:-
घर और अन्य इमारतें पकी ईंटों से बनी थीं। ईंट एक ही आकार के थे। इससे यह पता चलता है कि हड़प्पा के कारीगर कुशल होते थे। ईंटों को ‘ईंटर लॉक’ पैटर्न (English Bond Style) में जोड़ा जाता था। इससे इमारत को अधिक मजबूती मिलती थी।
सड़कें और नालियाँ:-
सड़क पर ईंटें बिछाई जाती थी। सड़कें आपस में समकोण पर काटती थीं। नालियों का जाल भी योजनाबद्ध तरीके से बनाया गया था। हर घर से निकलने वाली नाली सड़क की नाली से मिलती थी। नालियों को पत्थर की सिल्लियों से ढ़का जाता था। थोड़े-थोड़े अंतराल पर इनमें मेनहोल जैसे बने होते थे ताकि साफ सफाई हो सके।
योजनाबद्ध मकान:-
भवनों में प्लास्टर मिट्टी का जिप्सम का होता था । मकानों में दरवाजों और खिड़कियों की उचित व्यवस्था होती थी । खुदाई में राजकीय एवं सार्वजनिक इमारतों के ध्वंसावशेष प्राप्त हुए हैं । हड़प्पा में समानान्तर चतुर्भुज जैसे आकार की बहुत बड़ी इमारत मिली है ।घरों की दीवारें मोटी और मजबूत होती थीं। कुछ मकान तो दोमंजिले भी होते थे। इससे उस जमाने की परिष्कृत वास्तुकला का पता चलता है। एक घर में अक्सर एक रसोई, एक स्नानघर और एक बड़ा सा आंगन होता था। पानी की सुचारु व्यवस्था के लिए अधिकतर घरों में कुँआ भी होता था।
नागरिकों के आवास -
सड़क के दोनों
और नागरिकों के रहने के मकान थे । ये मकान योजनाबद्ध ढंग से बने
थे । उनकी नीवें गहरी थीं , दीवारें भी मजबूत ईंटों की मोटी
बनी हुई थीं । मकान छोटे - बड़े और पक्के - कच्चे सभी प्रकार के थे । मकानों में हवा
- प्रकाश की समुचित व्यवस्था थी । इसके लिए पर्याप्त दरवाजे और खिड़कियाँ थीं
। मकान दो से तीन कमरों तक के होते थे । भवन प्राय : दो मंजिले होते
थे और ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढ़ियाँ भी थीं
। आँगन और घर के फर्श पक्की ईंटों के होते
थे । स्नानागार व गंदे तथा वर्षा के पानी को
निकालने के लिए नालियाँ , अग्निकुण्ड और कूड़ा
- करकट रखने के घिरौने थे । प्रत्येक घर में रसोई
- घर , स्नानागार , शौचालय , खुला आँगन , कुएँ आदि रहते
थे ।
भंडार
गृह:-
सिंधु घाटी सभ्यता के नगरों में बड़े भंडार
गृह भी पाये गये हैं। ऐसे भंडार गृह से झुलसे हुए अनाज भी मिले हैं। इससे
पता चलता है कि उस जमाने में अनाज का उत्पादन आवश्यकता से अधिक होता था। इतिहासकारों
का यह भी अनुमान है टैक्स को अनाज के रूप में वसूला जाता था। बड़े भंडार गृह में टैक्स
में वसूले गये अनाज रखे जाते थे। एक भवन 150 फीट लम्बा
और 75 फीट चौड़ा था । यह एक विशाल कुंडागार था । दूसरा
भवन 230 फीट लम्बा और 79 फीट चौड़ा
था ।
वृहत स्नानागार-
मोहनजोदड़ो की सबसे महत्त्वपूर्ण इमारत महास्नानागार है। यह बौद्ध स्तूप के लगभग 57.9 मीटर दूर स्थित है। यह वास्तु अवशेष सम्पूर्ण रूप में 180 फीट उत्तर-दक्षिण तथा 108 फीट पूर्व से पश्चिम के विस्तार में फैला हुआ है। पूर्णतः पक्की ईंटों से निर्मित वृहत् स्नानागार मध्य भाग में 39 फीट 3 इंच लम्बा, 23 फीट 2 इंच चौड़ा तथा 8 फीट गहरा है। प्रवेश की सीढ़ियाँ 9 इंच चौडी तथा 8 इंच ऊंची हैं, प्रत्येक सीढ़ी के ऊपर लकड़ी के पटिये आबद्ध किये गये थे। सीढ़ियों की समाप्ति पर 39″ × 16″ क्रमश: चौड़ी एवं ऊंची एक पीठिका है और इसके दोनों ओर सीढ़ियां हैं। इसी ओर कोने में एक वर्गाकार मोरी (छेद) पानी के निकास हेतु बनाई गई है, सम्भवत: समय-समय पर इसकी सफाई की जाती रही I इसकी दीवार में भी तराशी गई ईंटों का प्रयोग किया है एवं इस तरह की एक मीटर मोटी दीवार का निर्माण देखा गया है। इसमें प्रयुक्त ईंटें 25.78 × 12.95 × 5.95 सेमी. या 27.94 × 13.1 × 5.65 से.मी. आकार की हैं। इस दीवार के पिछले भाग में 2.54 से.मी. मोटा बिटुमिन लगाया गया और उसे गिरने से बचाने के लिए उसके पीछे भी पक्की ईंटों की दीवार बनाई गई। मार्शल का कथन है कि उस समय उपलब्ध निर्माण सामग्री से, इससे सुन्दर और मजबूत निर्माण की कल्पना करना कठिन है।
स्नानागार के पूर्व में निर्मित 6-7 कमरों के मध्य एक कक्ष में अण्डाकार कुआ है जिसके पानी से स्नानागार भरा जाता था। इसके तीन ओर कई प्रकोष्ठ या कमरे (दरीचियाँ) बने हुए हैं ,सम्भवत: इन कमरों का उपयोग, वस्त्र आदि बदलने के लिए किया जाता होगा। उक्त स्नानागार में लम्बवत ईंटों की चिनाई जिप्सम एवं बिटुमिन के प्लास्टर के रूप में प्रयोग आदि सैन्धव लोगों के अनुपम वास्तु शिल्प के एक नवीन प्रयोग का द्योतक है।
हड़प्पा की जल निकासी प्रणाली-
सिंधु घाटी के अधिकांश घर मिट्टी, मिट्टी की ईंटों या मिट्टी की ईंटों से बनाए गए थे। सिंधु घाटी सभ्यता के शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक और निजी स्नान शामिल थे। प्रत्येक घर में क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर नालियाँ थीं। गलियों के लिए भूमिगत नालियाँ थीं। इन नालियों को पत्थर के स्लैब से ढंका गया था। सोख गड्ढों को ईंटों से बनाया गया था। घर की नालियाँ सड़क नालियों से जुड़ी हुई थीं, और कई जलाशयों के साथ एक परिष्कृत जल प्रबंधन प्रणाली स्थापित की गई थी। जल निकासी प्रणालियों में, घरों से नालियों को व्यापक सार्वजनिक नालियों से जोड़ा गया था। मोहनजो-दारो की कई इमारतों में दो या दो से अधिक नाली थीं। छत और ऊपरी मंजिला बाथरूम से पानी को संलग्न टेराकोटा पाइप या खुली चीतों के माध्यम से ले जाया जाता था जो सड़क पर नालियों में खाली हो जाते थे
नालियां ज्यादातर घरों के साथ-साथ आम तौर पर कच्ची सड़कों के एक तरफ चलती हैं, जो सड़क के स्तर से लगभग 50 या 60 सेमी नीचे हैं। क्रॉस-सेक्शन में यू-आकार, नालियों के किनारों और बॉटम को मिट्टी के मोर्टार में सेट ईंटों से बनाया गया था, जबकि खुले शीर्ष को विभिन्न तरीकों से कवर किया जा सकता था। स्पष्ट रूप से खुले शीर्ष की चौड़ाई को कवरिंग ईंटों के आयामों द्वारा निर्धारित किया गया था, जो 25 × 13 × 5.75 सेमी से 29.5 × 14.6 × 7.6 सेमी तक था। सबसे छोटे आकार की ईंटों से बनी नालियां 17 से 25 सेमी की चौड़ाई में और 15 से 50 सेमी तक की गहराई में भिन्न होती हैं - यानी दो और आठ ईंट पाठ्यक्रमों के बीच का अंतर। इस प्रकार नालियां 260 सेमी से 1,200 सेमी तक क्रॉस-सेक्शन में होती हैं। आवश्यकतानुसार सफाई के लिए ढीली छत को हटाया जा सकता है।
शहरी स्वच्छता के शुरुआती प्रमाण हड़प्पा, मोहनजो-दड़ो और हाल ही में खोजी गई राखीगढ़ी में देखे गए थे। इस शहरी योजना में दुनिया की पहली शहरी स्वच्छता प्रणाली शामिल थी। शहर के भीतर, व्यक्तिगत घरों या घरों के समूहों ने कुओं से पानी प्राप्त किया। एक कमरे से जो स्नान के लिए अलग निर्धारित किया गया है, अपशिष्ट जल को नालियों को ढंकने के लिए निर्देशित किया गया था, जो प्रमुख सड़कों पर खड़ा था।
पानी को जमीनी स्तर तक उठाने के लिए शडोफ़्स और साकीज़ जैसे उपकरणों का उपयोग किया गया था। पाकिस्तान में मोहेंजो-दारो और भारत में गुजरात के धोलावीरा जैसे खंडों में प्राचीन दुनिया के कुछ सबसे परिष्कृत सीवेज सिस्टम के साथ बस्तियां थीं। उनमें जल निकासी चैनल, वर्षा जल संचयन और सड़क नलिकाएं शामिल थीं।
कई आंगन के घरों में एक वॉशिंग प्लेटफॉर्म और एक समर्पित शौचालय / अपशिष्ट निपटान छेद दोनों थे। शौचालय के छेदों को पानी के एक जार को खाली करके, एक मिट्टी के ईंट पाइप के माध्यम से और एक साझा ईंट नाली के माध्यम से निकाला जाएगा, जो कि एक निकटवर्ती साबुनपीट (सेसपिट) में फीड हो जाएगा। कालिख को समय-समय पर अपने ठोस पदार्थ से खाली किया जाएगा, संभवतः उर्वरक के रूप में उपयोग किया जाएगा। एक विशिष्ट उदाहरण गुजरात में लोथल (सी। 2350 ईसा पूर्व) का शहर है। लोथल में भूमिगत जल निकासी सबसे अनोखी है। मुख्य सीवर, 1.5 मीटर गहरा और 91 सेंटीमीटर, कई उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम सीवर से जुड़ा है। यह सीवर वॉटरटाइट के साथ एक विशेषज्ञ मैसनरी दिखाता है; नियमित अंतराल पर बूँदें एक स्वचालित सफाई उपकरण की तरह काम करती हैं। नालियों के अंत में एक लकड़ी की स्क्रीन ठोस कचरे को वापस रखती है।
लोथल में सभी घरों का अपना निजी शौचालय था, जो एक जिप्सम आधारित मोर्टार के साथ मिलकर बनाए गए I
प्रत्येक घर का मुख्य नाले के साथ संबंध था। यहां तक कि रखरखाव के लिए निरीक्षण छेद भी थे। फुटपाथ स्तर के नीचे सड़कों के बीच से होकर गुजरने वाले मुख्य नालों के लिए नाली और समतल पत्थरों और मजबूत टाइल की ईंटों से ढकी हुई है। ढंका हुआ नाला बड़े सीवरेज आउटलेट से जुड़ा था, जो आखिरकार आबादी वाले क्षेत्रों के बाहर के गंदे पानी का नेतृत्व करता था।
इन शहरों में पाई जाने वाली शहरी योजना में दुनिया की पहली शहरी सफाई व्यवस्था शामिल थी। वर्षा के पानी को निकालने के लिए विस्तृत ईंट-पंक्तिबद्ध जल निकासी प्रणाली अद्वितीय इंजीनियरिंग कौशल की है।
डी. डी. कोसंबी के अनुसार, सिंधु शहरों की जल निकासी योजनाएं निश्चित रूप से सिंधु सभ्यता की अलग पहचान या स्वतंत्र चरित्र स्थापित करती हैं। रोमन सभ्यता से पहले किसी भी प्राचीन सभ्यता में इतनी उन्नत जल निकासी और सफाई व्यवस्था नहीं थी।
अर्थव्यवस्था
कृषि एवं पशुपालन- सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने
वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़
हर साल आती थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और
अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। कालीबंगा की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास
होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे।
सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की
गेँहू पैदा करते थे। बनावली में
मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी
उपजाते थे। बनवाली में मिट्टी के बने हुए हल का एक खिलौना प्राप्त हुआ है।
ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धु सभ्यता में हल लकड़ी के बने होते थे।
सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई।
इसी के नाम पर यूनान के लोग
इस सिन्डन (Sindon) कहने लगे। पेड़-पौधों में पीपल, खजूर, नीम, नींबू एवं केला उगाने के साक्ष्य
मिलते हैं। रागी उत्तर भारत के किसी भी स्थल से प्राप्त नहीं होता है। चावल की खेती गुजरात और संभवत: राजस्थान में होती थी। लोथल एवं रंगपुर से मृण्मूर्ति में धान की भूसी लिपटी हुई मिली है।
पशु-पालन-
हड़प्पा एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहाँ के लोग पशुपालन भी करते थेI पाला जाता था। यह लोग गाय, भैंस, भेड़,
बकरी, बैल, कुत्ते,
बिल्ली, मोर, हाथी,
शुअर, बकरी व मुर्गियाँ पाला करते थे। हड़प्पाई लोगों को हाथी तथा गैंडे का
ज्ञान था। गुजरात के लोग हाथी पालते थे।
लोथल से प्राप्त एक ऋणमयी घोड़े की आकृति से ऐसा प्रतीत होता है कि ये लोग घोड़े से परिचित थे।
सिंचाई तकनीक - अफगानिस्तान में काम करने वाले फ्रांसीसी पुरातत्वविदों ने रूसी सीमा से लगे बैक्ट्रिया प्रांत में हड़प्पा कालीन नगर के अवशेष पाए। ऐ-खानम क्षेत्र में उन्हें 25-30 किमी. लंबी और 30 मी चौड़ी नहरें मिलीं। इन नहरों का पता पहले नक्शे से लगाया गया और उनका काल निर्धारण पास के कांस्य युग के अवशेषों से किया गया। ये नहरें तीन सहस्त्राब्दी ई.पू. की थीं. नहरों के काल्पनिक मार्ग के आधार पर खुदाई की गई जहां से ऐसे बर्तन मिले जो हड़प्पा काल की पुष्टि करते हैं। सिंचाई की यह तकनीक या तो स्थानीय स्तर पर विकसित हुई या भारत से उत्तर की ओर जाने वाले हड़प्पा कालीन निवासियों द्वारा लाई गई। कुएं हड़प्पा सभ्यता के विशेष साधन थे और अधिकतर घरों में पाए गए। मोहनजोदड़ो के हाल के पुरातात्विक सर्वेक्षण से पता चला है कि हरेक तीसरे घर में कुआं था। वहां 700 से ज्यादा कुएं पाए गए।
वास्तव में कुएं हड़प्पा कालीन सभ्यता की ही देन हैं। हाल में ओमान में भी कुएं पाए गए हैं जो हड़प्पा सभ्यता के सम्पर्क में आए थे। कराची के पास की बस्ती अल्लादीनों में खुदाई से पता चला है कि वहां एक कुआं था जिससे सिंचाई होती होगी। इसके दक्षिणी ओर बाथटब जैसा एक बड़ा भांड पाया गया। कुआं आसपास के पत्थर बिछे सतह से करीब सवा मीटर ऊंचा था। उस समय के कुओं का ब्यास इसलिए छोटा रखा जाता था कि पानी की सतह ऊपर तक उठकर अर्टिजन कुओं की तरह बहने लगे। लगता है कुएं को जानबुझकर बीच में ऊंची जगह पर बनाया गया था ताकि इसका पानी आसानी से चारों तरफ के खेतों में फैल सके। सिंधु घाटी सभ्यता के महत्वपूर्ण स्थल धौलावीरा में मानसून के पानी को संचित करने वाले अनेक जलाशय थे। यहां जल निकासी की व्यवस्था भी बहुत अच्छी थी।
उद्योग-धंधे व तकनीकी ज्ञान - यहाँ के नगरों में अनेक व्यवसाय-धन्धे प्रचलित थे। मिट्टी के बर्तन बनाने में ये लोग बहुत कुशल थे। मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग से भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र बनाये जाते थे। कपड़ा बनाने का व्यवसाय उन्नत अवस्था में था। उसका विदेशों में भी निर्यात होता था।
जौहरी का काम भी उन्नत अवस्था में था। मनके और ताबीज बनाने का कार्य भी लोकप्रिय था, अभी तक लोहे की कोई वस्तु नहीं मिली है। मोतियों का निर्माण करेलियन, नीलमणि, जैस्पर, क्रिस्टल, क्वार्ट्ज, स्टीटाइट, फ़िरोज़ा, पेंटिस लज़ुली आदि धातुओं से बना होता था।
धातुएँ जैसे तांबा, कांस्य और सोना, और खोल, चाकली और टेराकोटा और जली मिट्टी का उपयोग भी विनिर्माण के लिए किया जाता था।
धातु निर्माण - दैमाबाद एक प्रमुख केंद्र था ताम्बे और कांसे की वस्तुओं के निर्माण का. यहाँ से एक कारखाना और धातु पिघलने की भट्टी मिली है साथ ही बहुत से ताम्बे और कांसे के बर्तनो के अवशेष भी मिले हैं.
यहां से कांसे का बना एक रथ प्राप्त हुआ है जो की हररप्पा काल का मन जाता है. सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के दस वर्ण जो धोलावीरा के उत्तरी गेट के निकट सन् 2000 ई॰ में खोजे गये हैं यद्यपि इस युग के लोग पत्थरों के बहुत सारे औजार तथा उपकरण प्रयोग करते थे पर वे कांसे के निर्माण से भली-भाँति परिचित थे। तांबे तथा टिन मिलाकर धातुशिल्पी कांस्य का निर्माण करते थे। सभ्यता के लगभग सभी प्रमुख स्थलों में कांस्य तकनीक का व्यापक रूप से अभ्यास किया गया था। कांस्य कास्टिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली तकनीक मोम तकनीक थी।
कालीबंगन से तांबे के कुत्ते और लोथल से पक्षी और एक बैल की कांस्य मूर्ति की खुदाई की गई। तांबे की गली हुई ढेरी मोहनजोदड़ो में मिली है। चाहुँदड़ो में मैके को इक्के के खिलौने प्राप्त हुए हैं। हड़प्पा में भी पीतल का एक इक्का पाया गया है। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा में गाड़ी के पहिये भी उपलब्ध हुए हैं। ये लोग धातुओं के अतिरिक्त शंख, सीप, घोंघा, हाथी दांत आदि के कार्य में निपुण थे। मोहनजोदडो से हाथी दांत का एक पात्र भी मिला है। अनाज को पीसने के लिए चक्कियों और ओखलियों का प्रयोग किया जाता होगा।
बैलगाड़ी की आकृति के खिलौने चाहुँदड़ो, हड़प्पा आदि स्थानों से मिले हैं। बैलगाड़ियों का प्रयोग अनाज ढोने के लिए किया जाता था।
कपड़ा उद्योग -खुदाई में कताई और बुनाई के उपकरण जैसे सुई और तकली मिले हैं जो दर्शाते हैं की इस सभ्यता के लोग कपास और सूती वस्त्रों का उत्पादन एवं निर्माण करते थे। कपड़ा बुनना उनके प्रमुख व्यवसायों में से एक था. हरप्पा से एक कब्र से ताम्बे का एक आईना मिला है जिस के हैंडल पर एक कपास का धागा था.
इसके अलावा मुहरों पर भी कपड़ों के चिन्ह मिलते हैं. मोहेंजोदारो से रंगे और बने हुए सूती कपड़ों के अवशेष मिले हैं
व्यापार-
यहाँ के लोग आपस में पत्थर, धातु शल्क (हड्डी) आदि का व्यापार करते थे। एक बड़े भूभाग में ढेर सारी सील (मृन्मुद्रा), एकरूप लिपि और मानकीकृत माप
तौल के प्रमाण मिले हैं। वे चक्के से परिचित थे और संभवतः आजकल के इक्के
(रथ) जैसा कोई वाहन प्रयोग करते थे।
ये अफ़ग़ानिस्तान और ईरान (फ़ारस) से व्यापार करते थे। उन्होंने उत्तरी अफ़गानिस्तान में एक वाणिज्यिक
उपनिवेश स्थापित किया जिससे उन्हें व्यापार में सहूलियत होती थी। बहुत सी हड़प्पाई सील मेसोपोटामिया में मिली हैं जिनसे लगता है कि मेसोपोटामिया से भी उनका
व्यापार सम्बंध था। मेसोपोटामिया
में एक ही ऐसी मुद्रा उम्मा नामक स्थल से मिली हैI हाल
ही में फारस की खाड़ी में फैलका और बहरीन तथा मेसोपोटामिया के निप्पुर में सिंधु सभ्यता की मुहरें पाई गयी हैं जो चौकोर हैं, जिन पर एक सींग वाले पशु (Unicorn) की आकृति एवं सिंधु लिपि उत्कीर्ण है। तेल अस्मार (मेसोपोटामिया
में) से हड़प्पाकालीन लाल पत्थर का मनका प्राप्त होता है। उसी तरह पक्की मिट्टी की छोटी मूर्ति निप्पुर से प्राप्त होती
है।
मेसोपोटामिया
से प्राप्त एक कपड़े पर सिंधु सभ्यता की एक मुहर की छाप है। मध्य एशिया में तुर्कमेनिस्तान नामक जगह से सिंधु
सभ्यता की कुछ वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। है। मेसोपोटामिया में स्थित अक्काड़ के प्रसिद्ध सम्राट् सरगौन
(2350 ई.पू.) ने यह दावा किया था कि दिलमन, माकन और मेलुहा के जहाज उसकी
राजधानी में लंगर डालते थे।
मेसोपोटामिया के
अभिलेखों में मेलुहा के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं साथ ही दो मध्यवर्ती
व्यापार केन्द्रों का भी उल्लेख मिलता है - दिलमुन और माकन । दिलमुन की
पहचान शायद फ़ारस की खाड़ी के बहरीन के की जा सकती है। मोहनजोदड़ो में मेसोपोटामिया की एक बड़ी बेलनाकार मुहर
प्राप्त हुई है। लोथल से मेसोपोटामिया की एक छोटी बेलनाकार मुहर प्राप्त हुई है।
लोथल से तांबे का ढला हुआ धातु पिंड भी मिला है। लोथल से मिट्टी की बनी एक नाव की प्रतिमूर्ति मिली I सोना दक्षिण भारत के कोलार से भी मंगाया जाता था।
लोथल डॉकयार्ड-
सैन्धव सभ्यता का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थल लोथल सौराष्ट्र (गुजरात) क्षेत्र में है। यह नगर भी हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के समान सुनियोजित थाI सामान्यतः नगर को दो भागों-गढ़ी एवं निचले नगर के रूप में विभक्त किया जा सकता है। साधारणतया भवन कच्ची ईंटों से निर्मित किये गये परन्तु गोदी (डॉकयार्ड) एवं कुछ महत्त्वपूर्ण भवनों का निर्माण पकाई हुई ईंटों से किया गया। इसके अतिरिक्त स्नानागार एवं नालियाँ आदि के लिए भी पक्की ईंटें उपयोग में लाई गई। लोथल गढ़ी 117 मीटर पूर्व और पश्चिम में तथा 136 मीटर उत्तर तथा 111 मीटर दक्षिण की ओर है। इसमें एक भवन 126×30 मीटर का, ऐसे स्थान पर स्थित था जहाँ से नौकाघाट, भण्डारगृह तथा नावों के गमनागमन पर भली भाँति नियन्त्रण रखा जा सकता था। एस.आर. राव को नगर उत्खनन के दौरान नगर के बाहरी भाग में एक डॉकयार्ड मिला है जो भोगावों एवं साबरमती नदी के तट पर स्थित सैन्धव सभ्यता का प्राचीन बन्दरगाह था।
माप-तौल- व्यापार के लिए उन्हें माप तौल की आवश्यकता हुई और उन्होनें इसका प्रयोग भी किया। बाट के तरह की कई वस्तुएँ मिली हैं।
उनसे पता चलता है कि तौल में 16 या उसके आवर्तकों (जैसे - 16, 32, 48, 64, 160, 320, 640, 1280 इत्यादि) का उपयोग होता था। दिलचस्प बात ये है कि आधुनिक काल तक भारत में 1 रुपया 16 आने का होता था। 1 किलो में 4 पाव होते थे और हर पाव में 4 कनवां यानि एक किलो में कुल 16 कनवां। सीप का बना मानक बाट मोहनजोदड़ो में मिला है। हाथी दांत का एक स्केल लोथल से प्राप्त हुआ है।
सीप का एक खण्डित मापदण्ड मोहनजोदडो से भी मिला है। मैके के अनुसार, 16.55 से.मी. लम्बा, 1.55 से.मी. चौड़ा एवं 675 से.मी. मोटा है तथा एक ओर बराबर दूरी पर नौ का निशान अंकित हैं और दो संकेंत के मध्य की दूरी 0.66 से.मी. है। विद्वानों की मान्यता है कि इस प्रकार के मापदण्ड मिश्र, एशिया माइनर, यूनान, सीरिया आदि प्राचीन सभ्यताओं में भी प्रचलित थे। हड़प्पा से तांबे का मापदण्ड मिला है। माधोस्वरूप वत्स के अनुसार 3.75 से.मी. लम्बे मापदण्ड पर 0.93 से.मी. की विभाजक रेखायें अंकित है जो सम्भवत: 51.55 से.मी. के हस्त परिमापन पर आधारित प्रतीत होती है। लोथल से प्राप्त मापदण्ड, मोहनजोदड़ो से प्राप्त मापदण्ड की तुलना में छोटा होते हुए भी अधिक सही लगता है। यह मापदण्ड 128 मिलीमीटर लम्बा है, कुछ भाग टूट गया है, इस पर 27 विभाजक रेखायें 46 मिलीमीटर की दूरी से अंकित हैं एवं दो इकाइयों के मध्य 1.7 मिलिमीटर की दूरी है।
सांस्कृतिक उपलब्धियां- कला
हड़प्पा सभ्यता की मूर्तियां :
1. प्रस्तर कला- प्रस्तर कला में हड़प्पा सभ्यता पिछड़ी हुई थी। उपलब्ध पाषाण मूर्तियाँ, अलबस्टर, चूना पत्थर, सेलखड़ी, बलुआ पत्थर और स्लेटी पत्थर से निर्मित है। सभी मूर्तियां लगभग खंडित अवस्था में प्राप्त हुई हैं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में पाई गई पत्थर की मूर्तियाँ त्रि-आयामी संगम का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। पत्थर में दो पुरुष आकृतियाँ हैं -एक लाल बलुआ पत्थर में एक धड़ है जो व्यापक रूप से चर्चा में है दाढ़ी वाले व्यक्ति का मूर्ति, जिसे एक पुजारी के रूप में व्याख्या किया गया है, दाएं हाथ और बाएं कंधे को कवर करते हुए दाढ़ी में लिपटा हुआ है।
इस शॉल को ट्रेफिल पैटर्न से सजाया गया है। आंखें थोड़ी लंबी हैं, और आधे ध्यान में एकाग्रता बंद है।
2. कास्य की मूर्तियां : अब तक यह मोहनजोदड़ो, चाँहुदड़ो, लोथल एवं कालीबंगा से प्राप्त हुई हैं। कांस्य की एक नग्न नर्तकी की मूर्ति मोहनजोदड़ो एवं चाँहुदड़ो से मिली है। इसके गले में कंठहार सुशोभित था। इस नर्तकी का दाहिना हाथ उसके कूल्हें पर है जबकि बायाँ हाथ लटकते हुए दर्शाया गया है । इसके बाएँ हाथ में संभवत: हड्डी या हाथी दांत से बनी अनेक चूडि़यां हैं जिनमें से कुछ इसके दाहिने हाथ में भी हैं ।
चाँहुदड़ो और हड़प्पा से कांसे की एक एक्का गाड़ी मिली है। लोथल से तांबे के बैल की आकृति प्राप्त हुई है। कालीबंगा से भी तांबे के बैल की आकृति मिली है।
व्यापक स्तर पर देखे तो हडप्पा सभ्यता कासें की ढलाई की प्रथा की साक्षी थी | जैसे कि मोहनजोदड़ों की कासें की नर्तकी, कालीबंगा का कांसे का बैल आदि | उनकी कांस्य प्रतिमाओं को 'खोई हुई मोम' तकनीक का उपयोग करके बनाया गया था जिसमें मोम के आकृतियों को पहले मिट्टी के लेप से ढंका जाता था और सूखने दिया जाता था। मोम को गर्म किया गया था और पिघले हुए मोम को मिट्टी के आवरण में बने एक छोटे से छेद से निकाला गया था। इस प्रकार बनाया गया खोखला पिघला हुआ धातु से भरा हुआ था और उसने वस्तु का मूल आकार लिया।
3. टेराकोटा : पकी हुई मिट्टी से टेराकोटा की मूर्तियां बनाई जाती थी| अधिकांश्त: ऐसी मूर्तियां गुजरात और कालीबंगा के स्थलों से मिली है | उदाहरण मातृदेवी, सींग वाले देवता का मुखौटा आदि |
सिंधु के आंकड़ों में सबसे महत्वपूर्ण वे हैं जो मोती देवी का प्रतिनिधित्व करते हैं। टेराकोटा में, हम ढके हुए बालों के साथ दाढ़ी वाले पुरुषों की कुछ मूर्तियां भी ढूंढते हैं, उनकी मुद्रा बिल्कुल कठोर होती है, पैर थोड़े अलग होते हैं, और हाथ शरीर के किनारों के समानांतर होते हैं। ठीक उसी स्थिति में इस आंकड़े की पुनरावृत्ति से पता चलता है कि वह एक देवता था। एक सींग वाले देवता का एक टेराकोटा मुखौटा भी मिला है। पहियों, सीटी, झुनझुने, पक्षियों और जानवरों, खेलों और डिस्क के साथ खिलौना गाड़ियां भी टेराकोटा में दी गई थीं I घोड़े का साक्ष्य मोहनजोदड़ो की एक मृण्मूर्ति से मिलता है। कुछ मृण्मूर्तियों में अर्द्धमानव की आकृति भी बनी है अर्थात् कुछ जानवर के मुख मानव के बने हैं।

हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की मृण्मूर्तियों में गाय की आकृति नहीं है। पुरुषों की तुलना में स्त्रियों की संख्या अधिक है। यह महत्त्वपूर्ण बात है। रंगनाथ राव ने लोथल से गाय की दो मृण्मूर्तियाँ प्राप्त होने का उल्लेख किया है।
मोहरें :
पुरातत्वविदों को उत्खन्न वाली जगहों पर अलग –अलग प्रकार की मोहरें मिली है जैसे कि वर्गाकार, त्रिकोणीय, आयातकर आदि | अब तक क़रीब 2000 मुहरें प्राप्त की जा चुकी हैं। था। इसमें लगभग 1200 अकेले मोहनजोदाड़ो से प्राप्त हुई हैं। का निर्माण अधिकतर सेलखड़ी से हुआ है।
इस पकी मिट्टी की मुहरें का निर्माण 'चिकोटी पद्धति' से किया गया है। पर कुछ मुहरें 'काचल मिट्टी', गोमेद, चर्ट और मिट्टी की बनी हुई भी प्राप्त हुई हैं। अधिकांश मोहरों पर चित्राक्षर लिपि (पिक्टोग्राफिक स्क्रिप्ट) में मुद्रलेख भी है, पर इन्हें अभी तक पढ़ा नही जा सका है | मुद्रालेख को दाई से बाई और लिखा गया है | इन पर कई पशुओं की आक्रति भी पाई गई है जैसे बैल, गेंडा, हाथी आदि | मोहरों का मुख्य रूप से वाणिज्यिक प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया जाता था और हो सकता है कि इनका प्रयोग शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए भी किया जाता होगा | उदाहरण के तौर पर पशुपति की मोहर , यूनिकॉर्न वाली मोहर आदि |
लोथल ओर देशलपुर से तांबे की मुहरे मिली हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मुहरों का उपयोग ताबीज के रूप में भी किया जाता था, जो उनके मालिकों के व्यक्तियों पर किए जाते थे, शायद आधुनिक दिनों के पहचान पत्र के रूप में।
मृदभांड : जो मृदभांड उत्खन्न
स्थल से मिले है उनको दो भागों में वर्गीक्रत किया जा सकता है –
1. सादे
मृदभांड
2. चित्रित
मृदभांड
चित्रित मृदभांड को लाल व काले मृदभांडों के रूप मे भी जाना जाता है| वृक्ष, पक्षी, पशुओं की आक्रतियाँ और ज्यामितीय प्रतिरूप चित्रों के आवर्ती विषय थे इस काल के ज्यादातर बर्तन चाक पर ही बनाये जाते थे। हाथ से बने बर्तन बहुत कम मिले हैं I चित्रित मिट्टी के बर्तनों की तुलना में सादे मिट्टी के बर्तन अधिक आम हैं। सादे मिट्टी के बर्तन आमतौर पर लाल मिट्टी के साथ या ठीक लाल या ग्रे पर्ची के बिना होते हैं। इसमें घुंडी वाले बर्तन होते हैं, जो घुंडी की पंक्तियों के साथ अलंकृत होते हैं।
काले चित्रित बर्तन में लाल पर्ची का एक अच्छा लेप होता है जिस पर ज्यामितीय और जानवरों के डिजाइन चमकदार काले रंग में निष्पादित होते हैं। पॉलीक्रोम बर्तनों दुर्लभ है और मुख्य रूप से छोटे शामिल हैं I लाल, काले और हरे रंग में ज्यामितीय पैटर्न से सजाए गए फूल, शायद ही कभी सफेद और पीले रंग के होते हैं। इंसुलेटेड वेयर भी दुर्लभ है और हमेशा अंदर सजावट और स्टैंडिंग डिश के व्यंजनों तक ही सीमित था । छिद्रित मिट्टी के बर्तनों में तल पर एक बड़ा छेद और दीवार के चारों ओर छोटे छेद शामिल हैं, और संभवतः तनावपूर्ण पेय के लिए उपयोग किया जाता था।
आभूषण : हड़प्पा के लोग मूल्यवान धातुओं और रत्नों से लेकर हड्डियों और यहाँ तक कि पकी हुई मिट्टी जैसी सामग्री का इस्तेमाल किया करते थे आभूषण बनाने के लिए | उदाहरण अंगूठियाँ, बाजूबंद इत्यादि आभूषण पुरुष एवम महिलाएं पहनते थे | पर करधनी, झुमके और पायल केवल महिलाएं ही पहनती थी | कर्निलीयन , नीलम , क्वार्टज, स्टेटाइट आदि से बने हुए मनके भी काफी लोकप्रिय थे और बढ़े पैमाने पर इनका निर्माण किया जाता था | इस बात का साक्ष्य चंदहुदड़ों और लोथल में मिले कारखानों से स्पष्ट है|
सर्वश्रेष्ठ उदाहरण में दाढ़ी वाले पुजारी की अर्द्ध – प्रतिमा सिन्धु घाटी की सभ्यता से प्राप्त हुई है | हड़प्पा से 6 लड़ी का सोने के मनकों का हार मिला है। हड़प्पा से एक बोतल मिली है काले रंग की वस्तु प्राप्त हुई है जो काजल का प्रतीक है। मोतियों का निर्माण करेलियन, नीलमणि, जैस्पर, क्रिस्टल, क्वार्ट्ज, स्टीटाइट, फ़िरोज़ा, पेंटिस लज़ुली आदि धातुओं से बना होता था।
धातुएँ जैसे तांबा, कांस्य और सोना, और खोल, चाकली और टेराकोटा और जली मिट्टी का उपयोग भी विनिर्माण के लिए किया जाता था।
धर्म
मातृदेवी की पूजा- सिंधु
घाटी में खुदाई से बड़ी संख्या में देवियों की मूर्तियाँ मिली
है. ऐसी मूर्तियाँ समकालीन पश्चिमी एशिया के अन्य सभ्यताओं में भी प्राप्त हुई हैं.
ये मूर्तियाँ मातृदेवी अथवा प्रकृति देवी
की है. अतः कहा जा सकता है कि लोग मातृ देवी की पूजा किया करते थे.
, इसका ज्ञान हमें हड़प्पा से पाप्त एक मुहर के चित्र से मिलता है। चित्र में स्त्री के
पेट से एक पौधा निकलता हुआ दिखाई देता
है, जिससे यह ज्ञात होता है कि इसका सम्बन्ध पृथ्वी की देवी,
पौधों की उत्पत्ति और लोगों के विश्वास से था. इसलिए मालूम होता है कि यहाँ के लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस् की।
एक-दूसरे चित्र में एक
स्त्री पालथी मारकर बैठी हुई है और इसके दोनों ओर पुजारी हैं. संभवतः इसी से भविष्य
में शक्ति की पूजा, मातृपूजा और देवीपूजा
का प्रचालन हुआ. 
चाकू लिये हुए एक पुरुष का भी चित्र है और नारी अपने हाथों को
ऊपर उठाये हुए है, जिसकी शायद बलि चढ़ाई जाने वाली है। मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा में खड़ी हुई अर्धनग्न नारी की बहुत मृण्मय मूर्तियाँ मिली हैं, इनके शरीर
पर छोटा सा लहंगा है, जिसे कटि प्रदेश पर मेखला से बाँधा गया है। गले में हार पड़ा हुआ है तथा
मस्तक पर पंखे के आकार की विचित्र शिराभूषा है।
इसके दोनों ओर प्याले जैसा पदार्थ है, जिसमें लगे धुएँ के निशान से यह ज्ञात
होता है कि इनमें भक्तों द्वारा देवी को प्रसन्न करने के लिए तेल या धूप जलाया
जाता था। इस प्रकार की मूर्तियाँ पश्चिमी एशिया में भी मिली हैं। ये
उस समय की मातृदेवी की उपासना की व्यापकता की सूचित करती हैं। दो बाघों के साथ लड़ते हुए एक
पुरुष की सुमेर के प्रसिद्ध वीर गिलगमेश के साथ तुलना की गई
है।
पशुपति शिव पूजा-
एक मुहर में तीन मुँह वाला एक नग्न व्यक्ति चौकी पर पद्मासन लगाकर बैठा हुआ है। इसके चारों ओर हाथी तथा बैल हैं। चौकी के नीचे हिरण है, उसके सिर पर सींग और विचित्र शिरोभूषा है। इसने हाथों में चूड़ियाँ और गले में हार पहन रखा है। यह मूर्ति शिव के पशुपति रूप की समझी जाती है। पद्मासन में ध्यानावस्थित मुद्रा में इसकी नासाग्र दृष्टि शिव के योगेश्वर या महायोगी रूप को सूचित करती है। तीन अन्य मुहरें पशुपति के इस रूप पर प्रकाश डालती हैं।


लिंग और योनि पूजा-
मातृदेवी और शिव के अतिरिक्त सिन्धु निवासी लिंग और योनि की पूजा
प्रतीक रूप में करते थे. शंकु
तथा बेलन
के आकार के पत्थरों से यह ज्ञात होता है कि उस समय शिव की मूर्ति पूजा के
अतिरिक्त लिंग पूजा भी प्रचलित थी। हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की खुदाइयों
में लिंग एवं योनियों की प्रतिमाएँ काफी बड़ी संख्या में प्राप्त हुई हैं. ये पत्थर, चीनी
मिट्टी अथवा सीप के बने हुए हैं. कुछ लिंगों
का आकार बहुत छोटा था. संभवतः छोटे आकार के लिंगों को लोग शुभ मानकर ताबीज के रूप
में हमेशा अपने साथ रखते थे.
इसके विपरीत बड़े लिंगों को किसी
निश्चित स्थान पर प्रतिष्ठित करके पूजा जाता
होगा. योनियाँ छल्ले के रूप में पाई गई हैं. इस प्रकार सिन्धु निवासी लिंग और योनियों द्वारा
सृष्टिकर्ता या शिव की पूजा करते थे.
वृक्ष पूजा- सिन्धु
निवासी वृक्षों की भी पूजा करते थे. खुदाई से वृक्षों के अनेक चित्र मुहरों पर अंकित
मिले हैं. एक मुहर पर, जो मोहनजोदड़ो से पाई
गई है, दो जुड़वां पशुओं के सिरों
पर पीपल की पत्तियाँ दिखलायी
गई हैं.
एक अन्य मुहर में पीपल की डाली के बीच
एक देवता का चित्र है.
पशु पूजा- वृक्ष
की पूजा के अतिरिक्त सिन्धु निवासी विभिन्न पशुओं की भी पूजा करते थे. खुदाइयों में
मुहरों पर इन पशुओं के चित्र मिले
ही हैं, साथ ही साथ इनकी मूर्तियाँ भी प्राप्त
हुई हैं. मानव एवं पशुओं की आकृतियों का सम्मिश्रण कर अनेक पशुओं की मूर्तियाँ बनाई
जाती थीं. इससे सपष्ट है कि सिन्धु निवासी पशुओं में भी दैवी अंश की कल्पना कर उनकी
पूजा करते थे. कुछ पशुओं को देवता
का वाहन भी समझा जाता था. पशुओं
में सबसे प्रमुख कुबड़वाला करते थे.
सांड के अतिरिक्त
भैंसा, बैल और नागपूजा की भी
प्रथा प्रचलित थी. इनकी पूजा इनसे प्राप्त होनेवाले लाभ अथवा उनके डर से किया जाता
होगा. साँपों को दूध पिलाने तथा
पूजा करने का विचार भी इस सभ्यता में था। अधिकांश मुहरों पर संक्षिप्त लेख, एक श्रृंगी, सांड, भैंस,
बाघ, गैडा, हिरन, बकरी एवं हाथी के चित्र उकेरे गये हैं।
इनमें से
सर्वाधिक आकृतियाँ एक
श्रृंगी, सांड (unicorn) की मिली हैं।
जल एवं प्रतीक पूजा- सिन्धु
निवासी संभवतः जल देवता की भी पूजा करते थे या स्नान को धार्मिक
अनुष्ठान का दर्जा प्रदान किया गया था. संभवतः इसी उद्देश्य से मोहनजोदड़ो में
विशाल स्नानागार का प्रबंध
किया गया था. खुदाइयों से सींग, स्तम्भ और स्वस्तिक
के चित्र भी मुहरों पर मिले हैं.
ये संभवतः किसी देवी-देवता के प्रतीक स्वरूप
थे और इनकी पूजा की जाती थी. सूर्य पूजा तथा स्वस्तिक के भी चिह्न यहाँ पाये गए हैं।
अग्निपूजा (यज्ञ)- कालीबंगा और लोथल के उत्खनन से स्पष्ट साक्ष्य मिलता है कि सिन्धु घाटी सभ्यता के युग में यज्ञ-बलि प्रथा प्रचलित थी. हैं। मिट्टी के एक ताबीज पर एक व्यक्ति को ढोल पीटता हुआ तथा दूसरे व्यक्ति को नाचते हुए दिखाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान काल की भाँति उस समय संगीत और नृत्य पूजा के अंग थे। धोलावीरा के दुर्ग में एक कुआँ मिला है इसमें नीचे की तरफ जाती सीढ़ियाँ है और उसमें एक खिड़की थी जहाँ दीपक जलाने के सबूत मिलते है।
उस कुएँ में सरस्वती नदी का पानी आता था, तो शायद सिंधु घाटी के लोग उस कुएँ के जरिये सरस्वती की पूजा करते थे।
यज्ञ एवं बलि - कालीबंगा में गढ़ी वाले टीले में एक चबूतरे पर एक कुआँ, अग्निदेवी और एक आयाताकार गर्त मिला है जिसके भीतर चारों ओर पालतू पशुओं की हड्डियाँ और हिरन के सींग मिले हैं. अनुमानतः इनका धार्मिक अनुष्ठान में पशुबलि से सम्बन्ध था. कालीबंगा में ही एक चबूतरे के ऊपर कुएँ के पास सात आयाताकार अग्निवेदियाँ एक कतार में मिली हैं. निचले नगर के अनेक घरों में भी अग्नि वेदिकाएँ प्राप्त हुई हैं. लोथल के निचले नगर में कई घरों में फर्श के नीचे, या कच्ची ईंटों के चबूतरे के ऊपर आयाताकार या वृत्ताकार मिट्टी के घेरे बने थे. इनमें से कुछ में राख, पक्की मिट्टी के तिकोने बर्तन मिलते हैं.
इनके आकार-प्रकार से स्पष्ट है कि इनका प्रयोग चूल्हे की तरह नहीं होता था, और ये इतने बड़े हैं कि भांड के रखने के लिए भी इनको उपयोग किया जाना संभव प्रतीत नहीं होता. यहाँ स्वास्तिक के चित्र भी मिले है।
अंत्येष्टि- अंत्येष्टि के निम्नलिखित प्रकार थे-
- पूर्ण समाधिकरण,
- आंशिक समाधिकरण और
- दाह संस्कार
सबसे अधिक पूर्ण समाधिकरण प्रचलित था।
रूपनगर की एक समाधि में मालिक के साथ कुत्ते को दफनाए जाने का साक्ष्य मिलता है। कुत्ता एवं मालिक को साथ दफनाये जाने का साक्ष्य बुर्जहोम में भी मिला है।
हड़प्पा की एक कब्र में ताबूत मिला है और सुरकोटड़ा से अनोखी कब्र मिली है।
लिपि व लेखन कला - प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहाँ के लोगों ने भी लेखन कला का आविष्कार किया था। हड़प्पाई लिपि का पहला नमूना 1853 ई॰ में मिला था और 1923 में पूरी लिपि प्रकाश में आई परन्तु अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है। लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण निजी सम्पत्ति का लेखा-जोखा आसान हो गया। दिलचस्प बात ये है की हड़प्पाई लिपि दाएं से बाएं, फिर बाएं से दाएं लिखी जाती थी. इस तरह की लिखने की कला को बोस्ट्रोफेडम कहते हैI इस लिपि में लगभग 64 मूल चिह्न हैं एवं 250-400 तक अक्षर हैं जो सेलखड़ी की आयताकार मुहरों एवं तांबे की गुटिकाओं आदि पर मिलते हैं। लिपि चित्राक्षर थी।
यह दाएँ से बाएँ और पुन: बाएँ से दाएँ लिखी जाती है। यह लिपि अत्यंत छोटे-छोटे अभिलेखों में मिलती है। इस लिपि में प्राप्त सबसे बड़े लेख में लगभग 17 चिह्न थे। विद्वानों ने सैन्धव लिपि पढ़ने के काफी प्रयास किये हैं किन्तु अभी तक विशेष सफलता नहीं मिली है। 1931 ई. में लैंगडन एवं बाद में सी.जे. गैड्स तथा सिडनी स्मिथ ने इन लेखों को संस्कृत भाषा के निकट माना है।
प्राणनाथ ने ब्राह्मी लिपि का सैन्धव लिपि से तुलनात्मक अध्ययन कर दोनों के लिपि चिह्नों के ध्वनि निर्धारण करने की चेष्टा की है। 1934 ई. में हण्टर ने सैन्धव लिपि का वैज्ञानिक विश्लेषण कर पढ़ने का प्रयास किया है। द्रविड़ भाषा के अधिक निकट मानते हुए फादर हरास ने सैन्धव लिपि को द्रविड़ भाषा से सम्बद्ध करने का प्रयत्न किया है। एक भारतीय विद्वान् आई महादेवन ने कम्प्यूटर की सहायता से इसे पढ़ने की कोशिश की। कृष्ण राव ने सैन्धव लेखों की संस्कृत से साम्यता स्थापित की है। डॉ फतेहसिह एवं डॉ. एस.आर. राव ने भी इस दृष्टि से उल्लेखनीय कार्य किया है। हाल ही में बिहार के दो प्रशासक विद्वानों- अरूण पाठक एवं एन. के. वर्मा ने सैन्धव लिपि का संथालों की लिपि से तादात्म्य स्थापित किया है। उन्होंने संथाल (बिहार) आदिवासियों से अलग-अलग ध्वन्यात्मक संकेतों वाली 216 मुहरें प्राप्त की जिनके संकेत चिह्न सिंधु घाटी में मिली मुहरों से काफी हद तक मेल खाते हैं। इसके बावजूद भी सिंधु लिपि को पढ़ पाने में हम असफल हैं।
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