मध्यपाषाण काल (10000- 4000 ई.पू.)
- यह पुरापाषाण काल और नवपाषाण काल के बीच का काल है|
- इस काल की मुख्य विशेषता “माइक्रोलिथ” (लघु पाषाण उपकरण) है
- जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार पर भारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं
- “माइक्रोलिथ” (लघु पाषाण उपकरण) की खोज सर्वप्रथम कार्लाइल द्वारा 1867 में विंध्य क्षेत्र में की गई थी| पश्चिम, मध्य भारत और मैसूर (कर्नाटक) में इस युग की कई गुफाएँ मिलीं हैं।
- इस युग को “माइक्रोलिथक युग” के नाम से भी जाना जाता है|
- इस काल के मनुष्यों का मुख्य पेशा शिकार करना, मछली पकड़ना और खाद्य-संग्रह करना था
- इस काल में पशुपालन की शुरूआत हुई थी जिसके प्रारंभिक निशान मध्य प्रदेश और राजस्थान से मिले हैं| तापमान में बदलाव आया और गर्मी बढ़ी। गर्मी बढ़ने के कारण जौ, गेहूँ, धान जैसी फसलें उगने लगीं। मध्य पाषाण युग में लोग मुख्य रूप से पशुपालक थे।मनुष्यों ने इन पशुओं को चारा खिलाकर पालतू बनाया। इस प्रकार मध्य पाषाण काल में मनुष्य पशुपालक बना
- महादहा (उ. प्र.) तथा सरायनाहरराय भारत में मध्यपाषाण काल के प्राचीनतम स्थल हैं
- लंघनाज, महादहा, सरायनाहरराय से गर्त्त(जमीन के अंदर) चूल्हे के साक्ष्य मिले हैं । जहाँ से पशुओं की जली हुई हड्डीयाँ प्राप्त हुई हैं ।
- सांभर क्षेत्र में लेखवा, खैरवा, गोविंदगढ से मानव द्वारा वृक्षारोपण के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं ।
- सबसे पहला मानव अस्थिपंजर मध्यपाषाण काल से मिला है।
- 1867 में सी.एन.कार्लाइल ने सिंहल(श्रीलंका) क्षेत्र से मध्यपाषाण स्थलों की प्रथम बार खोज की थी।
मध्य पाषाण कालीन स्थल- राजस्थान , दक्षिणी उत्तरप्रदेश , मध्य भारत , पूर्वी भारत , दक्षिण भारत में कृष्णा नदी के दक्षिण क्षेत्र अर्थात राजस्थान से मेघालय तक व उत्तरप्रदेश से लेकर सुदूर दक्षिण तक प्राप्त हुए हैं ।
मध्य पाषाण युगीन संस्कृति के महत्त्वपूर्ण स्थल | |
स्थल | क्षेत्र |
1- बागोर | राजस्थान |
2- लंघनाज | गुजरात |
3- सराय नाहरराय, चोपनी माण्डो, महगड़ा व दमदमा | उत्तर प्रदेश |
मध्य प्रदेश |
राजस्थान- बागोर(भीलवाङा) बागोर एवं आदमगढ से पशुपालन के प्राचीनतम राक्ष्य मिले हैं . जिनका काल लगभग 5500 ई. पू. माना गया है।लेकिन यह अपवाद है क्योंकि पशुपालन का प्रारंभ नवपाषाण काल से माना जाता है। बागोर से पाषाण उपकरणों के साथ- साथ मानव कंकाल एवं परवर्ती काल के लोहे उपकरण भी प्राप्त हुए हैं।
· तिलवार
·सरायनाहरराय- यहाँ से मानवीय आक्रमण के युद्ध का प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुआ है, यहाँ से स्तंभ गर्त (आवास हेतु झोंपङियों का साक्ष्य ) के साक्ष्य मिले हैं तथा गर्त चूल्हे के साक्ष्य भी मिले हैं Iसरायनाहरराय से 8 संयुक्त गर्त चूल्हे प्राप्त हुये हैं जो संयुक्त परिवार प्रथा का उदाहरण है। यहाँ से आवास के प्रमाण मिले हैं ।
· महादहा
गुजरात- लंघनाज & बलसाना
पश्चिमी बंगाल- वीरभानपुर
मध्यप्रदेश- आदमगढ
उत्तरप्रदेश- बेलन घाटी
दक्षिण में संगनकल , रेणीगुंटा , तिन्नेवेली मध्यपाषाण युगीन अवशेष मिले हैं ।
तमिलनाडु- टेरीसमूह
पूर्वी भारत में मयूरभंज , सुंदरगढ , सेबालगिरि से मध्यपाषाण युगीन पुरातात्विक अवशेष मिले हैं ।
मध्य पुरापाषाण काल में औजार बनाने की तकनीक
इस काल के फलक उपकरण दो तकनीकों द्वारा बनाए जाते थेIप्रथम विधि के उपकरण सर्वप्रथम इंग्लैड के कलैक्टोन-आन-सी Clacton-on-sea) नामक स्थान से सर्वप्रथम प्राप्त हुए थे। इस विधि में सर्वप्रथम पत्थर से फलक उतारी जाती थी, फिर उस फलक को दोबारा तीखा कर (retouching) आवश्यकतानुसार आकार का उपकरण बना लिया जाता था।दूसरी विधि को लवलॅवा विधि (Lowallosi-on-technique) का नाम दिया गया इस विधि द्वारा निर्मि औजार सर्वप्रथम फ्रांस के तावलवा नामक स्थान से प्राप्त हुए इसलिए इसे लवलॅवा तकनीक का नाम दिया गयाइस विधी द्वारा पत्थर से जो फलक अलग किया जाता उसे ऐसे ही प्रयोग किया जा सकता थाIइस विधि में जिस पत्थर का फलकीकरण किया जाता था उस पर किसी तीखे उपकरण से जिस प्रकार का औजार बनाना होता था उसकी रूपरेखा दी जाती थी,दूसरे चरण में उसके भीतरी हिस्से को ऊपर से छील दिया जाता था इसे Tortoise Ore कहा जाता थाI
तृतीय चरण में एक छोटा प्लेट फार्म तैयार किया जाता थाIजहाँ तीखी चीज रखकर उस पर हथौडे से आघात किया जाता था। इस प्रकार मनचाहे आकार का उपकरण बनाया जा सकता था।
प्रागैतिहासिक कला
उत्तरपाषाण काल और मध्यपाषाण काल के लोग चित्रकला जानते थेI प्रागैतिहासिक कला कई जगहों पर प्रकट होती है किंतु मध्य प्रदेश में भीमबेटका इसका एक महत्वपूर्ण केन्द्र हैI भोपाल से 45 कि.मी. दक्षिण में, विंध्य की पहाड़ियों में स्थित, इस स्थल पर 500 से ज्यादा चित्रित चट्टानंे पाई जाती हैं जो लगभग 10 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैली हुई हैंI यह चट्टानी चित्रकला उत्तरपाषाणकालीन से मध्यपाषाणकलीन दौर तक की है और कहीं कहीं तो यह नवीन समय तक की हैं।किंतु अधिकांश चट्टानें मध्यपाषाणकालीन समय से संबंधित हैं। कई पक्षी, पशु और मनुष्यों के चित्र बनाये गये हैं, स्पष्ट तौर पर अधिकांश पशु और पक्षी जो चित्रों में प्रकट होते हैं वहीं हैं जिनका भोजन के लिए शिकार किया जाता थाऐसे पक्षी जो अनाज खाकर जीते थे, प्रारम्भिक चित्रों में दिखाई नहीं देते हैं जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि वह शिकारियों का समाज थाIयह जानना रोचक है कि उत्तरी विंध्य की बेलन घाटी में तीनों चरण-पुरापाशाण मध्यपाशाण और नवपाशाण क्रम में पाये जाते हैं
ठीक यही सब कुछ नर्मदा घाटी के मध्य में भी होता हैI किंतु नवपाषाणकालीन संस्कृति ने मध्यपाशाणकालीन संस्कृति की जगह ले ली, जो 1000 ई.पू. के लौह युग की शुरूआत तक जारी रही।
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