शनिवार, 24 अक्टूबर 2020

ऋग्वेद कालीन सभ्यता

 

ऋग्वैदिक काल (Rigvedic Age 1500-1000 BC)


जानकारी के स्रोत: भारत में आर्यो के आरम्भिक इतिहास के संबंध में जानकारी का प्रमुख स्रोत वैदिक साहित्य है। इस साहित्य के आलावा, वैदिक युग के बारे में जानकारी का एक अन्य स्रोत पुराताविवक साक्ष्य है, लेकिन ये अपनी कतिपय त्रुटियों के कारण किसी स्वतंत्र अथवा निर्विवाद जानकारी का स्रोत न होकर साहितियक श्रोतो के आधार पर किये गए विश्लेषण की पुष्टि मात्र करते है।

साहितियक स्रोत (Literary Sources): 

वैदिक साहित्य


ऋग्वेद यह सबसे प्राचीन वेद है। इसमें अग्नि, इन्द्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुतियाँ संग्रहित है।

सामवेद : ऋग्वैदिक श्लोकों को गाने के लिए चुनकर घुनों में बांटा गया और इसी पुनर्विन्यस्त संकलन का नाम 'सामवेद' पड़ा। इसमें दी गई ऋचाएँ उपासना एवं धार्मिक अनुष्ठानो के अवसर पर स्पष्ट तथा लयबद्ध रूप से गाई जाती थी।

यजुर्वेद : इसमें ऋचाओं के साथ- साथ गाते समय किये जाने वाले अनुष्ठानो का भी पघ एवं गघ दोनों में वर्णन है। यह वेद यज्ञ-संबंधी अनुष्ठानों पर प्रकाश डालता है।

अथर्ववेद : यह वेद जन सामान्य की सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियो  को जानने के लिए इस काल का सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें लोक परंपराओं , धार्मिक विचार, विपत्तियों और व्याधियों के निवारण संबंधी तंत्र- मंत्र संग्रहित है।

वेदत्रयी : ऋग्वेद, यजुर्वेद एवं सामवेद

संहिता : चारों वेदों का सम्मिलित रूप

उपनिषद : 108 (प्रमाणित 12)

वेदांग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, (भाषा विगत), छंद और ज्योतिष

 

ऋग्वेद

ऋग्वेद संहिता ऋग्वैदिक काल की एकमात्र रचना है। इसमें 10 मंडल तथा 1028 सूक्त है। इसकी रचना 1500 ई,पु. से 1000 ई.पु. के मध्य हुई। मैक्समूलर ई॰ पू॰ 1200 से 1000 इसकी तिथि मानते है I जैकोबी ने इसका रचना-काल तृतीय सहस्त्राब्दी ई॰ पू॰ बताया है । पं॰ बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद के प्राचीनतम अंश को 6000 ई॰ पू॰ के आस-पास लिखा हुआ बताया है । विन्टरनित्स ने वैदिक साहित्य का आरम्भिक काल ई॰ पू॰ 2500-2000 तक निर्धारित किया है । समस्त मतों पर विचार करने के उपरान्त हम सामान्यतः ऋग्वेद को ई॰ पू॰ 1500 से 1000 ई॰ पू॰ के बीच रचित मान सकते है । इसके कुल 10 मंडलो में से दूसरे से सातवें तक के मंडल सबसे प्राचीन माने जाते है, जबकि प्रथम तथा दसवां मंडल परवर्ती काल के माने गए है। ऋग्वेद के दूसरे से सातवें मंडल को गोत्र मंडल के नाम से भी जाना जाता है क्योकि इन मंडलो की रचना किसी गोत्र विशेष से संबंधित एक ही ऋषि के परिवार ने की थी। ऋग्वेद की अनेक बातें फ़ारसी भाषा के प्राचीनतम ग्रन्थ अवेस्ता से भी मिलती है। गौरतलब है कि इन दोनों धर्म में ग्रंथो में बहुत से देवी-देवताओ और सामजिक वर्गो के नाम भी मिलते-जुलते है।

इसमें तीन पाठ मिलते है:

·       साकल- इसमें 1017 मन्त्र हैं ।

·       बालखिल्य- इसमें 11 मन्त्र हैं ।

·       वाष्कल- इसमें कुल 56 मन्त्र हैं ।

पुरातात्विक स्रोत (Literary Sources)

1. कस्सी अभिलेख (1600 ई.पु.): इन अभिलेख से यह जानकारी मिलती है कि ईरानी आर्यो की एक शाखा का भारत आगमन हुआ।

2. बोगजकोई (मितन्नी) अभिलेख (1400 ई.पु.): 

बोगोज्गोई  अभिलेख 

इन अभिलेखों में हित्ती राजा सुबिवलिम और मितन्नी राजा मतिउअजा के मध्य हुई संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवताओं - इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्य आदि का उल्लेख है।

3. चित्रित घूसर मृदभांड (Painted Grey Wares – P.G.W.)

चित्रित धूसर मृतभाण्ड 

4. उत्तर भारत में हरियाणा के पास भगवानपुरा में हुई खुदाई में एक 13 कमरों का मकान तथा पंजाब में तीन नागर, कटपालन, दधेरी ऐसे स्थान मिले है जिनका संबंध ऋग्वेदकाल से माना जाता है।

 

आर्य सभ्यता का प्रसार 

आर्य सभ्यता का विस्तार 

ऋग्वैदिक काल के भौगोलिक विस्तार तथा बस्तियों की स्थापना के संबंध में जानकारी के लिए मूल रूप से ऋग्वेद  पर ही निर्भर रहना पड़ता है, क्योकि पुरातात्विक साक्ष्यों में प्रमाणिकता का नितांत अभाव है। ऋग्वेद में आर्य निवास-स्थल के लिए सप्तसैंधव क्षेत्र का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ है-सात नदियों का क्षेत्र। इन सात नदियों की पहचान के संदर्भ में विद्वानों में मतभेद है, फिर भी यह माना जा सकता है कि आधुनिक पंजाब के विस्तृत भूखंड को 'सप्तसैंधव' कहा गया है।
 सिंधु  और उसकी सहायक नदियाँ 

ऋग्वेद से प्राप्त जानकारी के अनुसार आर्यो का विस्तार अफगानिस्तान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक था। सतलुज से यमुना नदी तक का क्षेत्र 'ब्रहावर्त' कहलाता था जिसे ऋग्वैदिक सभ्यता का केंद्र माना जाता था। ऋग्वैदिक आर्यो की पूर्वी सीमा हिमालय और तिब्बत, उत्तर में वर्तमान तुर्कमेनिस्तान, पश्चिम में अफगानिस्तान तथा दक्षिण में अरावली तक विस्तृत थी। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि आर्यों का प्रसार अफगानिस्तान से गंगा-घाटी तक था । ऋग्वेद में यत्र-तत्र अनेक नदियों और पर्वतों के नाम मिलते हैं । हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख हुआ है । हिमालय की एक चोटी को ‘मूजवन्त’ कहा गया है जो सोम के लिये प्रसिद्ध थी । पश्चिम की ओर कुभा (काबुल), क्रुमु (कुर्रम) गोमती, सुवास्तु नदियों के उल्लेख से यह पता चलता है कि अफगानिस्तान भी उस समय भारत का ही अंग था । इसके पश्चात् पंजाब की पाँच नदियों- सिन्धु, वितस्ता (झेलम) चेनाब, रावी, विपासा (व्यास) का उल्लेख हुआ है । साथ ही शतुद्री (सतलज), सरस्वती, यमुना तथा गंगा के नाम भी मिलते हैं । (तरेय ब्राह्मण गान्धार क्षेत्र का उल्लेख करता है । इस प्रकार वैदिक भूगोल के अन्तर्गत वर्तमान समय का अफगानिस्तान, पाकिस्तान, पंजाब, हरियाणा, उत्तर पूर्व राजस्थान, पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश आदि सभी सम्मिलित थे । यही भूभाग सैन्धव मध्यता के अधिकार क्षेत्र में भी था ।

 

ऋग्वेदिककालीन नदियाँ- ऋग्वेद के नदी सूक्त में कुल 21 नदियों का विवरण दिया गया है।

नदी

प्राचीन नाम

सिन्ध

सिन्धु

व्यास

विपाशा

झेलम

वितस्ता

चेनाब

आस्किनी

घग्गर

दृशदती

रावी

परुष्णी

सतलज

शतुद्री

गोमल

गोमती

काबुल

कुम्भ

गंडक

सदानीरा

कुर्रम

क्रुमु

 

सरस्वती नदी- सरस्वती नदी सबसे पवित्र नदी मानी गई है। इसके तट पर वैदिक मंत्रों की रचना की गई थी। इसे नदियों में अग्रवर्ती, नदीयों की माता, वाणी,बुद्धि तथा संगीत की देवी कहा गया है। इस नदी को नदीत्तमा भी कहा जाता है। यह नदी ऐसी अदभुत नदी है जो एक स्थान पर दिखती है, तो दूसरे स्थान पर अदृश्य हो जाती है। ऋग्वेद में उल्लेखित अन्य नदीयों के नाम- दृष्द्वती, अपाया, यमुना(3बार उल्लेख),गंगा(1 बार उल्लेख), सरयु,राका, रांसी, अनुमति,अशुनिति।

प्राचीन सरस्वती मार्ग 

मरुस्थल- ऋग्वेद में मरुस्थल के लिए धन्व शब्द आया है। वैदिक आयाँ को संभवत: मरुस्थल का ज्ञान था क्योंकि इस बात की चर्चा की जाती है कि पार्जन्य ने मरुस्थल को पार करने योग्य बनाया।

 

मूल स्थान संबंधी  विभिन्न मत:-

एशिया- अनेक विद्वानों ने एशिया के विभिन्न क्षेत्रों में आर्यों का मूल निवास-स्थान स्वीकार किया है । मैक्समूलर महोदय आर्यों का आदि देश मध्य एशिया, गेड्‌स बैक्ट्रिया तथा एडवर्ड मेयर पामीर के पठार को मानते है । मेयर महोदय का विचार है कि पामीर के पठार से ही इण्डो-ईरानी जाति पूर्व में पंजाब तथा पश्चिम में मेंसोपोटामिया की ओर गयी । 


इस मत का समर्थन ओल्डेनवर्ग तथा कीथ आदि विद्वानों ये भी किया है । ब्रैन्डेस्टीन महोदय ने बताया है कि भारतीय भाषाकोश से प्रकट होता है कि आर्य मूलतः एक पर्वत के नीचे घास के मैदान में निवास करते थे । यह मैदान यूराल पर्वत के दक्षिण में स्थिर किर्जिंग का मैदान था । जो विद्वान् एशिया को आर्यों का इन स्थान स्वीकार नहीं करते, उनका कहना है कि भारोपीय भाषा-भाषी परिवार के मुहावरों का प्रसार यह सिद्ध करता है कि आर्यों का मूल निवास-स्थान एशिया की अपेक्षा यूरोप में खोजना अधिक तर्कसंगत होगा ।

 

भारत-


अनेक विद्वानों की धारणा है कि आर्य मूलत भारत के ही निवासी थे तथा यहीं से वे विश्व के विभिन्न भागों में गये । पं॰ गंगानाथ झा ब्रह्मर्षि देश, डी॰ एस॰ त्रिवेद मुल्तान स्थित देविका, एल॰ डी॰ कल्ल कश्मीर तथा हिमालय क्षेत्र में आर्यों का मूल निवास-स्थान बताते है । किन्तु हमें अब यह तो मान ही लेना चाहिए कि भारत आर्यों का मूल निवास-स्थान नहीं था और वे यहाँ आक्रान्ता के रूप में ही आये थे । सैन्धव सभ्यता आर्य सभ्यता से भिन्न एवं इससे अधिक प्राचीन थी । यदि आर्य भारत के निवासी होते तो वे सर्वप्रथम अपने देश का ही आर्यीकरण करते । समस्त दक्षिणी भारत आज तक आर्यभाषा-भाषी नहीं है । उत्तर-पश्चिम में बलूचिस्तान से ‘ब्राहुई’ की भाषा थी । यह इस बात का सूचक है कि सम्पूर्ण भारत अथवा कम से न से अनार्य था । यह आर्यों के भारतीय मूल के सिद्धान्त के विरुद्ध सबसे प्रबल प्रमाण है । भिन्न भिन्न विद्वानों ने आर्यों का मूल स्थान विश्व के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में निर्धारित करने का प्रयास किया है ।

 

उत्तरी-ध्रुव:- आर्यों का आदि स्थान उत्तरी ध्रुव में मानने वाले सर्वप्रथम विद्वान पं॰ बाल गंगाधर तिलक हैं । तिलक महोदय का विचार है कि आर्यों नें ऋग्वेद की रचना सप्त सैन्धव प्रदेश में किया था । इसमें एक सूक्त के अन्तर्गत दीर्घकालीन उषा की स्तुति मिलती है । दीर्घकालीन उषा उत्तरी ध्रुव में ही दिखाई देती है । महाभारत में सुमेरुपर्वत का वर्णन मिलता है जहाँ छ: महीने का दिन तथा छ: महीने की रात होती है ।

यहाँ भी उत्तरी ध्रुव की ओर ही सकेत है । अतः हम कह सकते है कि आर्य उत्तरी ध्रुव के ही निवासी थे और इसी कारण उनके मस्तिष्क में अपनी मूल भूमि की स्मृति बनी हुई थी । किन्तु तिलक का उपर्युक्त मत कोरे साहित्य पर आधारित होने के कारण मान्य नहीं है । स्वयं आर्यों ने ही सप्त सैन्धव प्रदेश को ‘देवताओं द्वारा निर्मित’ (देवकृत योनि) कहा है । यदि उत्तरी ध्रुव उनका आदि देश होता तो कहीं न कहीं स्पष्ट रुप से उसका उल्लेख वे करते ।

 

यूरोप:-


यूरोप महाद्वीप के विभिन्न स्थानों-जर्मनी, हंगरी तथा दक्षिणी रूस में विद्वानों ने आर्यों का मूल स्थान निर्धारित करने के पक्ष में अपने-अपने तर्क प्रस्तुत किये है ।

जर्मनी/स्कैन्डेनीविया :- जर्मनी को आर्यों का आदि-देश मानने वाले विद्वानों में पेनका, हर्ट आदि प्रमुख है ।


समर्थन:मध्य जर्मनी में स्थित स्कैन्डेनीविया नामक स्थान कभी भी विदेशी आधिपत्य में नहीं रहा तो भी यहाँ के निवासी भोरोपीय भाषा बोलते थे । इससे सिद्ध होती है कि भारोपीय भाषा का मूल स्थान यही था ।पश्चिम बाल्टिक सागर के तट से सर्वप्राचीन एवं अति साधारण वस्तुऐं पाई गयी है । यहाँ से प्राप्त पाषाणोपकरण अत्यन्त कलापूर्ण एवं तकनीकी दृष्टि से उत्तम कोटि के है । ये सब भारोपीयों की कृतियाँ हैं । मध्य जर्मनी से भी प्रागैतिहासिक काल के कुछ मृद्‌भाण्ड पाये गये है । 


इन्हें भी प्राचीन आर्यों से ही सम्बन्धित किया गया है। आर्यों की शारीरिक विशेषतायें भी उन्हें जर्मनी का आदिवासी बताती हैं। जैसे उनकी एक प्रमुख विशेषता भूरे बालों का होना है । आज भी जर्मनी के लोग भूरे बालों वाले पाये जाते है ।

आलोचना - परंतु यदि उपर्युक्त तर्कों की आलोचनात्मक समीक्षा की जाय तो बड़ी आसानी से उनका खण्डन हो जायेगा । एकमात्र भाषाई आधार पर स्कैन्डेनीविया को आर्यों का मूल स्थान नहीं माना जा सकता । किसी स्थान की भाषा का परिवर्तित न होना उसके वोलने वालों की प्रगतिहीनता तथा संकीर्णता को भी सूचित करता है न कि उसकी प्राचीनता को । बाल्टिक सागर तथा मध्य जर्मनी से मिलते-जुलते उपकरण तथा मृदभाण्ड कुछ अन्य स्थानों जैसे दक्षिणी रूस, पोलैण्ड, त्रिपोल्जे आदि से भी मिलते हैं । कुछ उपकरण जर्मनी के उपकरणों से भी अधिक प्राचीन हैं । जहाँ तक भूरे बालों का प्रश्न है यह एक मात्र जर्मनी के निवासियों की ही विशेषता नहीं है । पतंजलि ने भारतीय ब्राह्मणों को भी भूरे बालों वाला बताया है, तो क्या हम केवल इसी आधार पर भारत को आर्यों का आदि देश स्वीकार कर सकते है ।

 हंगरी:-


आर्यों का मूल निवास-स्थान हंगरी अथवा डेन्यूब नदी-घाटी के मानने वाले विद्वानों में गाइल्स सर्वप्रमुख हैं । विभिन्न भारोपीय भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने के बाद उन्होने यह बताया है कि आर्य मूलत एक ऐसे स्थान में रहते थे जहाँ पर्वत, नदियाँ, झील आदि थे तथा गेहू, जौ की प्रमुख रूप से खेती की जाती थी और गाय, बैल, भेड़, घोड़ा, कुत्ता आदि पशु पाले जाते थे । ये सभी विशेषतायें हंगरी प्रदेश अथवा डेन्यूब नदी-घाटी में प्राप्त होती हैं । अतः यहीं आर्यों का मूल निवास-स्थान रहा होगा । किन्तु यह मत भी असंगत है । इस प्रकार की विशेषतायें कुछ अन्य स्थानों में भी पाई जाती है । मात्र भाषाविज्ञान के आधार पर इस समस्या का हल निकालना उचित नहीं लगता ।

दक्षिणी रूस:-


कतिपय पुरातत्वीय एवं भाषाशास्त्रीय सामग्रियों के आधार पर मेयर, पीक तथा गार्डन चाइल्ड्स ने दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास-स्थान स्वीकार किया है । दक्षिणी रूस में किये गये उत्खनन से लगभग उसी प्रकार की संस्कृति के अवशेष मिले हैं जो आर्यों के समय में थे । यहाँ की खुदाई से अश्व का अवशेष भी मिला है जो आर्यों का प्रिय पशु था । पिगट महोदय के अनुसार आर्य दक्षिणी रूस के एक विस्तृत प्रदेश पर निवास करते थे । दक्षिणी रूस के त्रिपोल्ज से लगभग तीस हजार ईसा पूर्व के मृद्‌भाण्ड प्राप्त हुए हैं । इस आधार पर नेहरिंग ने दक्षिणी रूस को आर्यों का आदि-देश बताया है । भारोपीय तथा मध्य रुस की फिनो-उग्रीयन (Finno-Ugrian) भाषाओं में आश्चर्यजनक समता दिखाई देती है जो इस बात की सूचक है कि भारोपीय तथा मध्य रूस की जाति में प्राचीन काल से ही ऐतिहासिक सम्पर्क था । अतः उक्त विद्वानों के अनुसार दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास-स्थान स्वीकार किया जा सकता है । 
इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि आर्यों को विदेशी मूल का मानने का मत प्रधानतया भाषा विज्ञान पर आधारित होने के कारण बहुत अधिक सबल नहीं है । वेद में कोई उद्धरण ऐसा नहीं है जो यह सिद्ध कर सके कि आर्य यहाँ आक्रान्ता के रूप में आये थे । ‘आर्य’ शब्द को जातिवाची मानना ठीक नहीं है । ऋग्वेद के मंत्रों में प्रयुक्त शब्दों की संख्या 153972 है जिसमें ‘आर्य’ शब्द मात्र 33 बार ही आता है । भाषाविदों ने तुलनात्मक भाषा विज्ञान को एक प्रामाणिक शास्त्र के रूप में प्रतिष्ठित किया है किन्तु भाषा एक सांस्कृतिक इकाई है जिसका किसी जाति विशेष से संबंध स्थापित करना उचित नहीं है । एक ही प्रजाति के लोग विभिन्न भाषा-भाषी हो सकते है । ऋग्वेद में आर्य तथा दास-दस्यु के बीच जो विभेद किया गया है वह प्रजातीय न होकर धार्मिक लगता है । आर्य तथा दास-दस्यु किसी जन समुदाय, प्रजाति अथवा जनजाति के नाम नहीं लगते। इनका विरोध धार्मिक व अधार्मिक का विरोध है । दांस-दत्यु का प्रयोग परिचारक के रूप में भी मिलता है । ‘दस्यु’ शब्द ईरानी भाषा में भी मिलता है जो ग्रामीण जन का सूचक है । जहाँ तक ‘ब्राहुई’ भाषा का प्रश्न है इसका दक्षिण की द्रविड़ भाषा से दूर का संबंध ही हो सकता है । उत्तर-पश्चिम में इसके व्यापक प्रचलन का प्रमाण नहीं मिलता । कुछ विद्वानों का कहना है कि बलूचिस्तान में ब्राहुई भाषा-भाषी लोग बाहर से आये थे जबकि कुछ विद्वान् इस भाषा को बोलचाल की आधुनिक पूर्वी एलमी  भाषा बताते है । यह भी दृष्टव्य है कि गोदावरी के दक्षिण में सैन्धव सभ्यता का कोई साक्ष्य नहीं मिलता । जहां तक इन्द्र को ‘पुरन्दर’ अर्थात् पूरी को ध्वस्त करने वाला कहे जाने का प्रश्न है इस संबंध में उल्लेखनीय हैं कि कोटदीजी तथा कालीवगन के प्राक्-सैन्धव स्थलों से भी दुर्गीकरण के साक्ष्य मिल चुके है । स्वयं सिन्धु सभ्यता के लोगों द्वारा पूर्ववर्ती संस्कृति के दुर्गों का भेदन किया जाना भी संभव है । ऐसी स्थिति में अब केवल आर्यों के ही देवता को ‘पुन्दर’ नहीं कहा जा सकता । पुनश्च इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि इन्द्र शत्रु नगरों का विजेता था । पुरातत्व से भी आर्यों के आक्रान्ता होने की बात पुष्ट नहीं होती । अब प्रायः सभी विद्वान् इसे स्वीकार करने लगे है कि इस बात का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है कि आर्य विदेशी आक्रान्ता थे । जो विद्वान् आर्यों को विदेशी मूल का मानते है उनका आधार मैक्समूलर द्वारा निर्धारित ऋग्वेद की तिथि है । सूत्र साहित्य को ई. पु. 600-200 में रखते हुए वे इसके पूर्ववर्ती साहित्य जिसका विभाजन वे ब्राह्मण काल, मन्त्रकाल, तथा छन्दकाल में करते हैं, के लिये दो-दो सौ वर्षों की अवधि निर्धारित करते हुए प्रस्तावित करते हैं कि वैदिक मन्त्रों की रचना लगभग 1200 ई. पू. में हुई । यह निष्कर्ष उस समय तक ठीक था जब तक पश्चिम के लोगों को वैदिक साहित्य के विषय में बहुत कम ज्ञात था । परन्तु अब यह मत अमान्य हो गया है । स्वयं मैक्समूलर ने भी अपने जीवन के अन्तिम दिनों में इसे त्याग दिया था । पुनश्च मैक्समूलर द्वारा निर्धारित तिथिक्रम की विधि संदिग्ध है और इसे सत्य नहीं माना जा सकता ।

 

राजनीतिक व्यवस्था

कबीलों के आधार पर बने बहुत से संगठनों का ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है, जैसे - सभा, विदथ, समिति एवं गण। ये संगठन विचारात्मक, सैनिक और धार्मिक कार्य देखते थे एवं राजा के ऊपर नियंत्रण रखने में योगदान करते थे। इनमे सभा और समिति का महत्वपूर्ण स्थान था। उत्तर-वैदिक काल  की रचना अथर्ववेद  में इन्हें 'प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है। ऐसा माना जाता है कि सभा , जन  के वृद्ध लोगों की परिषद रही होगी, जबकि समिति , साधारण जन  की सामान्य परिषद  होती थी। ऋग्वेद में विदथ नामक संगठन का भी उल्लेख है, जिसके बारे में माना जाता है कि यह इन सभी संस्थाओ में सर्वाधिक प्राचीन थी और इसमें महिलाएँ भी भाग लिया करती थी।

 

प्रशासनिक इकाइयाँ - ऋग्वेदिक काल में राज्य का मूल आधार परिवार था। परिवार का मुखिया 'कुलप' कहलाता था, जो कि गोत्र संबंधो से बंधा रहता था। गोत्र ही संबंधो का मूल आधार होता था। गोत्रों के आधार पर ही ग्राम (Village) का निर्माण होता था, जिसका प्रमुख 'ग्रामणी' होता था। अनेक ग्राम मिलकर विश (clan) बनाते थे, जिसका प्रधान 'विशपति' होता था। विश से जन  बनता था, जो कि तत्कालीन समाज की सबसे बड़ी राजनीतिक इकाई थी जिसका प्रधान राजा (King) होता था। आर्य कई जनों में विभक्त थे । इस काल में अनु, द्रुह्मा, यदु, पुरु, तुर्वस  संगठित जन थे, जो 'पंचजन' कहलाते थे। आर्य कई जनों में विभक्त थे । इनमें पाँच जनों के नाम अक्सर मिलते हैं- अनु, द्रुह्मा, यदु, पुरु, तुर्वस । इन्हें ‘पञ्चजन’ कहा गया है । 


जन के अधिपति को राजा कहा जाता था । ऋग्वैदिक युग के आर्य राजनैतिक दृष्टि से जिन जनों में संगठित थे, वेदों अनुशीलन से उनके सम्बन्ध में भी परिचय मिलता है। इन का भौगोलिक दृष्टि से इस प्रकार विभाजन किया गया है-

उत्तर-पश्चिम के क्षेत्र में- कम्बोज, गान्धारि, अलिन, पक्थ, भलाना और विषाणिन्।

सिन्धु तथा विस्तता नदियों के क्षेत्र में- अर्जीकीय, शिव, केकय और वृचीवन्त।

विस्तता नदी के पूर्ववर्ती पार्वत्य क्षेत्र में- महावृष, उत्तर-कुरु और उत्तर-मद्र।

असिक्नी और पुरुष्णी नदियों के मध्य में- बाल्हीक, द्रुह्यु, तुर्वशु और अनु।

शतुद्री नदी के पूर्व में- भरत, त्रित्सु, पुरु, पारावत और श्रृंजय।

यमुना के क्षेत्र में- उशीनर, वश, साल्व और क्रिवि।

 

राजनीतिक संगठन की सबसे छोटी इकाई कुल अथवा परिवार होता था । परिवार का स्वामी पिता अथवा बड़ा भाई होता था जिसे कुलप’ कहा जाता था । कई कुलों को मिलाकर ग्राम बनता था । ग्राम वस्तुत आत्म-निर्भर होते थे । ग्राम की सुरक्षा के लिये ऊँचे टीले पर एक पुर (दुर्ग) बना होता था । ग्राम का मुखिया ‘ग्रामणी’ कहा जाता था । ‘ग्रामणी’ सम्भवत: नागरिक तथा सैनिक दोनों ही प्रकार के कार्य करता था । ग्राम से बड़ी संस्था ‘विश’ होती थी जिसका स्वामी विशपति’ कहलाता था । अनेक विशों का समूह जन’ होता था । जन के अधिपति को जनपति या राजा कहा जाता था । देश या राज्य के लिये राष्ट्र शब्द आया है । किन्तु यह प्रभुतासम्पन्न राज्य का सूचक नहीं है । एक स्थान पर कई राष्ट्रों के राजा का उल्लेख है । आर्यों के ये विभिन्न जन परस्पर लड़ा करते थे।

 

पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी के कार्य - ऋग्वेद में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी, इन तीनों अधिकारियों का उल्लेख मिलता है । युद्ध के समय पुरोहित राजा के साथ जाता था तथा उसकी विजय के लिये देवताओं से प्रार्थना करता था । शिक्षक, पथ-प्रदर्शक तथा मित्र के रूप में पुरोहित राजा का मुख्य साथी होता था । राजा पुरोहितों का बड़ा सम्मान करते थे । उनका प्रभाव शासन पर भी था । ऋग्वेद में वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि पुरोहितों के नाम मिलते है जिनकी बहुत अधिक प्रतिष्ठा थी । सेनानी, राजा के आदेशानुसार युद्ध में कार्य करता था । शान्तिकाल में सम्भवत उसे नागरिक कार्यों को भी करना पड़ता था । ग्रामणी, प्रशासनिक और सैनिक कार्यों के लिये ग्राम का नेता होता था । वह ग्रामीण जनता के हितों का प्रतिनिधित्व करता था । ऋग्वेद में ग्रामणी शब्द का 30 बार उल्लेख हुआ है। स्पश (गुप्तचर) तथा दूत नामक कर्मचारियों का भी उल्लेख मिलता है जिनका उपयोग राजा करता था। इसके अतिरिक्त और भी राजकर्मचारी रहें होंगे परन्तु उनका उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता । ऋग्वेदिक काल की विधि तथा न्याय व्यवस्था के विषय में हमें निश्चित रूप से कुछ भी ज्ञात नहीं है ।वंशानुगत राजतंत्र शासन का सामान्य स्वरूप था, किन्तु कहीं-कहीं राजा के निर्वाचन  का उल्लेख भी मिलता है। शुरुआत में राजा सामान्यतः सैनिक नेता  होता था, जिसे बलि अर्थात  एक प्रकार का कर  प्राप्त करने का अधिकार होता था। इसके अलावा, वह युद्ध में लूटे गए माल में से भी बड़ा भाग प्राप्त करने का अधिकारी होता था।

 

राजनितिक संस्थाएं

 

विदथ- यह आर्यो की सर्वप्राचीन संस्था थी। इसे जनसभा भी कहा जाता था। रॉथ के अनुसार 'विदथ' संस्था सैनिक असैनिक तथा धार्मिक कार्यो से संम्बद्ध थी। इसी कारण के.पी. जायसवाल विद्थ को एक मौलिक बड़ी सभा मानते हैं। रामशरण शर्मा इसे आर्यो की प्राचीनतम संस्था मानते हैं, उनका मानना है कि ऋग्वेद में विद्थ का उल्लेख 22 बार हुआ है। आपके अनुसार विद्थ ऐसी संस्था थी जो यु़द्ध में लूटी गयी वस्तुओं अथवा उपहार और समय-समय पर मिलने वाली भेटों की सामग्रियों का वितरण करती थी। ऋग्वैदिक काल में स्त्रियाँ भी सभा और विद्थ में भाग लेती थी। इस प्रकार, सभा, समिति, विद्थ और परिषद् वैदिक राजतंत्र में सहायक के रूप में काम करती थी। ऋग्वेद तथा इस पर लिख गए ब्राह्मण एवं ऐतरेय ब्राह्मण दोनों में राजा के निर्वाचन सम्बन्धी सूक्त पाये जाते हैं।

सभा-

सभा की उत्पत्ति ऋग्वेद के उत्तरकाल में हुई थी। यह वुद्ध (श्रेष्ठ) एवं अभिजात (संभ्रान्त) लोगों की संस्था थीं। यह समिति की अपेक्षा छोटी थी। सभा में भागेदारी करने वालों का सभेय कहा जाता था। अथर्ववेद में सभा एक स्थान पर 'नरिष्टा' कहा गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ अनुलंधनीय है। इससे ज्ञात होता है कि सभी द्वारा लिया गया निर्णय अनुलंघनीय होता था। वेदों में इसके सदस्यों को पितरः (पिता) कह कर सम्बोधित कहा गया है । इसका अध्यक्ष सभापति कहा जाता था। सभी का प्रमुख कार्य न्याय प्रदान करना था। ऋग्वेद में 8 बार सभा की चर्चा की गई है।

समिति- यह एक आम जनप्रतिनिधि सभा (केन्द्रीय राजनीतिक) थी। समिति राजा का निर्वाचन करती थी तथा उस पर नियन्त्रण रखती थी। इस समिति के अध्यक्ष कोपति या ईशान कहा जाता था। समिति में राजकीय विषयों पर चर्चा होती थी तथा सहमति से निर्णय होता था। आरुणिपुत्र श्वेतकेतु पंचाल देशीय लोगों को समिति में आया था। उससे जीवन पुत्र प्रवाहण जैबलि ने पांच प्रश्न पूछा था जिसका उत्तर वह नहीं दे पाया था। इससे पता चलता है कि संभवतः समिति में राजनीतिक गैरराजनीतिक विषयों पर भी चर्चा होती थी यह राष्ट्रीय एकेडमी का भी काम करती थी। ऋग्वेद में 9 बार समिति की चर्चा हुई है।

भागदुध- विशिष्ट अधिकारी, जो राजा के अनुयायियों के मध्य बलि (भेंट) का समुचित बंटवारा एवं कर का निर्धारण करता था।

 

राजतांत्रिक या गणतांत्रिक  प्रणाली- ऋग्वेद काल में सामान्यतः राजतंत्र का ही प्रचलन था । ‘राजन’ शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है । राजा को ‘जन का रक्षक’ (गोप्ता जनस्य) तथा दुर्गों का भेदन करने वाला (पुरांभेत्ता) कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि युद्ध के वातावरण में सेना और जाति का नेतृत्व करने के लिये राज-संस्था का उदय हुआ । उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में सम्राट के अतिरिक्त राजर तथा राजक शब्दों का प्रयोग मिलता है तथा उनकी स्थिति में विभेद भी किया गया है । छोटे राजाओं को राजक उससे बड़े को राजन् तथा सबसे बड़े को सम्राट कहा जाता था । इस समय राज्य छोटे होते थे तथा एक राज्य में सामान्य तौर से एक ही जन के लोग निवास करते थे । राजा युद्धों में स्वयं जन का नेतृत्व करना था । राजा का पद इस समय दैवी नहीं समझा जाता था । प्रारम्भ में उसकी स्थिति कबायली मुखिया जैसी ही थी । कालान्तर में सम्राट शब्द का उल्लेख तथा ‘विश्वस्य भुवनस्य राजा’ (सम्पूर्ण संसार का राजा) की अवधारणा से यह स्पष्ट हो जाता है कि राजपद अत्यन्त गौरवशाली एवं प्रतिष्ठित समझा जाने लगा था । शतपथ ब्राह्मण में राज्य तथा साम्राज्य में भेद करते हुए साम्राज्य को राज्य से बड़ा बताया गया है (अवरं हि राज्य परम् साम्राज्यम्) । राजा विशाल एवं भव्य राजमहल में निवास करता था । एक स्थान पर ‘सहस्त्र द्वारों वाले गृह’ (सहस्त्रद्वार गृह) तथा दूसरे स्थान पर राजप्रासाद को सहस्त्र स्तम्भों वाला सभा स्थान कहा गया है । प्रारम्भ में राष्ट्र की सारी प्रजा मिलकर राजा का चुनाव करती थी परन्तु बाद में यह पद आनुवंशिक हो गया । जे. पी शर्मा का विचार है कि इस काल के कुछ जनों में गणराज्यात्मक व्यवस्था भी प्रचलित थी । दसवें मण्डल में ‘गणतन्त्रात्मक समिति’ का उल्लेख है । गण का उल्लेख ऋग्वेद में 46 बार मिलता है। राजा क प्रमुख कर्त्तव्य प्रजा की रक्षा करना था । रक्षा के बदले प्रजा उसे उपहारादि देती थी । ऋग्वेद में ‘बलि’ शब्द का उल्लेख कई स्थानों पर मिलता है । इसका प्रयोग भेंट तथा देवताओं को चढ़ावा के अर्थ में किया गया है । यह स्पष्ट नहीं है कि प्रजा स्वेच्छया इसे राजा को देती थी अथवा यह अनिवार्य कर था । लगता है कि जन के लोग स्वेच्छा से इसे राजा को प्रदान करते थे किन्तु विजित जातियों से यह अनिवार्य रूप से लिया जाता था । ‘बलि’ मुख्यतः अन्न के रूप में दिया जाता था । ऋग्वैदिक युग में राजा भूमि का स्वामी नहीं था । वह प्रधानत युद्ध का नेता होता था । वह व्यक्तिगत रूप से युद्धों में भाग लेता था। राजा के वैधानिक तथा न्यायिक कार्यों के विषय में ऋग्वेद से कोई सूचना नहीं मिलती है ।

न्यायव्यवस्था - न्याय विनरण का कार्य सम्भवत: पुरोहित की सहायता से राजा ही करता था । चोरी, बेईमानी, धोखाधड़ी आदि अपराधों के उदाहरण मिलते हैं । रात में पशुओं की चोरी एक आम अपराध था । मृत्यु-दण्ड की प्रथा नहीं थी । शारीरिक दण्ड तथा जुर्माने किये जाते थे । हत्या करने के अपराध में धनदान द्वारा मुक्त होने की प्रथा थी । एक व्यक्ति को ‘शतदाय’ कहा गया है क्योंकि उसके जान की कीमत सौं गायें थी । अपराधी को खूँटे से बाँधे जाने का भी उल्लेख मिलता है ।

दाशराज्ञ युद्ध -


ऋग्वेद में एक स्थान पर दस राजाओं के युद्ध (दाश-राज्ञ) का उल्लेख हुआ है जो भरतों के राजा सुदास के साथ हुआ था । सुदास के पुरोहित वशिष्ठ थे । इनके विरुद्ध दस राजाओं का एक संघ था जिसमें उपर्युक्त पाँच जनों के अतिरिक्त पाँच लघु जनजातियों- अनिल, पक्थ, भलानस, शिव तथा विषाणिन- के राजा सम्मिलित थे । ऋषि विश्वामित्र इस संघ के पुरोहित थे । यह युद्ध पश्चिमोत्तर प्रदेश में बसे हुए पूर्वकालीन जन तथा ब्रह्मावर्त के उत्तरकालीन आर्यों के बीच उत्तराधिकार के प्रश्न पर लड़ा गया था । इसमें भरत जन के स्वामी सुदास ने रावी नदी के तट पर एक भीषण युद्ध में दस राजाओं के इस संघ को परास्त किया और इस प्रकार वह ऋग्वैदिककालीन भारत का सर्वोपरि सम्राट बन गया । भरत जन के नाम पर ही हमारे देश का नाम ‘भारत’ पड़ा । यह ऋग्वैदिक काल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण जन था जो सरस्वती तथा यमुना नदियों के बीच के प्रदेश में निवास करता था ।


सामाजिक व्यवस्था

परिवार:-ऋग्वैदिक समाज का आधार परिवार था । परिवार पितृ-सत्तात्मक होता था जिसमें पिता अथवा बड़ा भाई परिवार का स्वामी होता था । ऋग्वेद में कुछ ऐसे उल्लेख मिलते है जिनसे स्पष्ट होता है कि पिता के अधिकार असीमित होते थे । वह परिवार के सदस्यों को कठोर से कठोर दण्ड दे सकता था । एक स्थान पर ऋज्रास्व का उल्लेख है जिसके पिता ने उसे अन्धा बना दिया था । वरुण सूक्त के शुन:शेप के आख्यान से ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि पिता अपनी सन्तान को बेच सकता था । परस इसका अर्थ यह नहीं है कि पिता और पारिवारिक सदस्यों के सम्बन्ध कटुतापूर्ण होते थे । ऐसे उद्धरणों को अपवादस्वरूप ही समझना चाहिए । पिता परिवार के सदस्यों के सुख-दुख का पूरा ख्याल रखता था । ही, इतना अवश्य था कि राज्य पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था । संयुक्त परिवार की प्रथा थी । विवाह सूक्त (10.35) से ज्ञात होता है कि नवविवाहिता वधू अपने पति के घर में सास, ससुर, देवर, ननद के ऊपर अधिकार रखने वाली साम्राज्ञी बन जाती थी । ब्राह्मण अपने के किसी न किसी आदि ऋषि की सन्तान मानते थे । इनमें कल्पित वंश की ‘गोत्र’ कहा जाता था जिनकी संख्या मूलत: सात मिलती है- भार्गव, आंगिरस, अत्रिय, काश्यप, वशिष्ठ, आगस्त्य तथा कौशिक

 

वर्ण व्यवस्था:-


ऋग्वैदिककालीन समाज प्रारम्भ में वर्ग-विभेद से रहित था । सभी व्यक्ति ‘जन’ के सदस्य समझे जाते थे तथा सदकी समान सामाजिक प्रतिष्ठा थी । जन के निर्माण के पूर्व के लोगों को ‘अर्य’ तथा ‘कृष्टि’ अथवा ‘चर्षणि’ कहा गया है । ‘अर्य’ का शाब्दिक अर्थ उत्पादन सामर्थ्य होता है किन्तु भारतीय संदर्भ में इससे तात्पर्य सामान्य जन से है । चर्षणि शब्द प्रारम्भ में यायावर या घुमक्कड़ प्रजा का द्योतक था किन्तु जब स्थायी निकास प्रारम्भ हो गया तब प्रजा को सृष्टि कहा गया । इस प्रकार जब आर्य संचरणशील थे तो उन्हें चर्षणि तथा जब वे कर्षणशील बने तो उनके लिये ‘कृष्टि’ शब्द का प्रयोग किया गया । इसमें सभी प्रकार के लोग शामिल थे । ऋग्वेद में ‘वर्ण’ शब्द रड्ग के अर्थ में तथा कहीं-कहीं व्यवसाय-चयन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । आर्यों को गौर वर्ण तथा दासों को कृष्ण वर्ण का कहा गया है ।

 प्रारम्भ में हम तीन वर्णों का उल्लेख पाते है-ब्रह्म, क्षत्र तथा विश । जब आर्य भारत में आये तब उन्हें अनार्यो से संघर्ष करना पड़ा । इसके लिये कुछ ऐसे योद्धाओं की आवश्यकता हुई जो असुरों से उनकी रक्षा कर सके । इस कार्य के लिये उन्होंने अपने में से कुछ उत्साही वीरों को चुना और उन्हें ‘क्षत्र’ नाम दिया । क्षत्र का अर्थ है ‘क्षत् अर्थात् हानि से रक्षा करने वाला ।’ ऋग्वेद में क्षत्र शब्द का प्रयोग सैन्य बल तथा राज्य क्षेत्र तथा ‘क्षत्रिय’ का प्रयोग उसमें निवास करने वाली के लिये हुआ है । नायक तथा योद्धाओं को भी क्षत्रिय कहा गया है । इसी प्रकार यज्ञों को कराने के लिये जो व्यक्ति चुने गये उन्हें ‘ब्रह्मा’ कहा गया । यह विद्वान् तथा गुणवान् लोगों का वर्ग था । कहीं-कहीं ब्राह्मण शब्द का प्रयोग ‘पुरोहित’ के लिये भी मिलता है । शेष जनता को ‘विश’ नाम से सम्बोधित किया जाता था । ऋग्वेद में ‘विश’ शब्द का उल्लेख विविध अर्थों जैसे जनजातीय समुदाय, सन्निवेश, मनुष्यों के समूह, सामान्य प्रजा आदि, में किया गया है । आर. एस. शर्मा का विचार है कि इससे तात्पर्य संचरणशील जनजाति से है जो चारागाहों की खोज में सदा भ्रमण करती रहती थी । कालान्तर में यह उत्पादन की प्रक्रिया से संबद्ध हो गयी । परन्तु इन तीनों वर्णों में कोई कठोरता नहीं थी । एक ही परिवार के लोग कालान्तर में एक चौथा वर्ण ‘शूद्र’ नाम से समाज में उत्पन्न हो गया । प्रारम्भ में ऐसा माना जाता था कि शूद्र वर्ण के अन्तर्गत केवल अनार्य वर्ण के लोग ही सम्मिलित थे । किन्तु इस प्रकार की मान्यता ठीक नहीं है । आर॰ एस॰ शर्मा ने शूद्र वर्ण की उत्पत्ति के ऊपर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालते हुए यह प्रतिपादित किया है कि वस्तुतः इस वर्ग में आर्य तथा अनार्य दोनों ही वर्गों के लोग शामिल थे । आर्थिक तथा सामाजिक विषमताओं के फलस्वरूप दोनों ही वर्णों में श्रमिक वर्ग का उदय हुआ । बाद में सभी श्रमिकों की सामान्य संज्ञा ‘शूद्र’ हो गयी । आर्य शिल्पियों के वंशज भी, जो अपने प्राचीन व्यवसाय में लगे रहे, शूद्र समझे गये । 


ऋग्वेद में उल्लिखित दास-दस्युओं की स्थिति भी इसी प्रकार की रही होगी । ऋग्वेद में दास-दस्युओं को अकर्मन् (वैदिक क्रियाओं को न करने वाला), अदेवयु (वैदिक देवताओं को न मानने वाला), अयज्वन्(यज्ञ न करने वाला), अन्यव्रत (वैदिकेतर व्रतों का अनुसरण न करने वाला), मृद्धवाक(अपरिचित भाषा बोलने वाला) तथा अब्रह्यन् (श्रद्धा और धार्मिक विश्वास से रहित), अव्रत (व्रतों से रहित) I ऋग्वेद के दसवें मण्डल के पुरुषसूक्त में हमें सर्वप्रथम ‘शूद्र’ शब्द मिलता है । यहाँ चारों वर्षा की उत्पत्ति एक ‘विराट’ पुरुष’ के विभिन्न अड़ने से बताई गयी है । यह कहा गया है कि जब देवताओं ने विराट पुरुष की बलि दी तो ”उसके मुख भाग से ब्राह्मण, भुजाओं से राजन्य (क्षत्रिय) उरु भाग से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुये ।” यह वर्ण व्यवस्था का प्राचीनतम उल्लेख है । 

विराट पुरुष 

परन्तु इस समय भी वर्णों में जटिलता नहीं आई थी और वर्ण जन्मजात न होकर व्यवसाय पर आधारित होते थे । व्यवसाय-परिवर्तन सम्भव था । ऋग्वेद के एक स्थान पर एक ऋषि कहता है मैं कवि हूँ,  मेरा पिता वैद्य है तथा मेरी माता अन्न पीसने वाली है, साधन भिन्न है परन्तु सभी धन की कामना करते है ।” इससे स्पष्ट है कि व्यवसाय आनुवंशिक नहीं थे तथा जाति-व्यवस्था का जो संकीर्ण रूप हमें कालान्तर में देखने को मिलता है उससे ऋग्वैदिक समाज निश्चय ही अछूता था ।

 

विवाह तथा स्त्रियों की दशा:- ऋग्वैदिक समाज में विवाह एक पवित्र बन्धन माना जाता था । शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को पति की अर्धाड्गिनी कहा गया है । वह पति के साथ यज्ञीय कार्यों में भाग ले सकती थी । पत्नी से रहित व्यक्ति यज्ञ करने का अधिकारी नहीं था । ऋग्वेद में जायेदस्तम्’ अर्थात् पत्नी ही गृह है, कहकर उसके महत्व को स्पष्टतः स्वीकार किया गया है । परिवार में एकपत्नीत्व विवाह ही सामान्यतः प्रचलित थे यद्यपि कुलीन वर्ग के कुछ लोग कई पत्नियाँ रखते थे । बाल विवाह एवं विधवा विवाह नहीं होते थे । विवाह में कन्यायें अपना मत दे सकती थीं तथा कभी-कभी अपने पतियों का चुनाव स्वयं करती थीं । भाई-बहन एवं पिता-पुत्री का विवाह वर्जित था । अन्तर्जातीय विवाह होते थे, परन्तु आर्यवर्ण का दासवर्ण के साथ विवाह निषिद्ध था । कन्या की विदाई के समय उपहार एवं द्रव्य दिये जाते थे जिसे ‘वहतु’ कहते थे । विधिवत् सम्पन्न हुए विवाह को स्त्री-पुरुष किसी भी प्रकार से समाप्त नहीं कर सकते थे । पुनर्विवाह एवं नियोग प्रथा प्रचलित थी । विवाह का मुख्य उद्देश्य पुत्र की प्राप्ति करना था । पुत्रों की बहुलता के लिये निरंतर प्रार्थना की जाती थी । एक मन्त्र में कहा गया है- हे इन्द्रदेव । इस स्त्री को दश पुत्र प्रदान करो ताकि इसका पति ग्यारहवाँ होवे (दशास्यां पुत्रानाधेहि पतिमेकादशं कृधि) । कन्याओं का जन्म अभीष्ट नहीं था । पितृसत्तात्मक समाज में पुत्रों की चाह अधिक होना स्वाभाविक ही था । पुत्र ही पिता की अन्त्येष्टि संस्कार सम्पन्न कर सकता था तथा उसी से वंश-परम्परा चलती थी । नि:सन्तान व्यक्ति समाज में घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे । एक स्थान पर सन्तानहीनता को दरिद्रता के समान निन्दनीय बताया गया है । पिता, पुत्र के अभाव में किसी अन्य को गोद ले सकता था । समाज में सती-प्रथा के प्रचलित होने का उदाहरण नहीं मिलता । दशम मण्डल के एक सूक्त से पता चलता है कि इस प्रागैतिहासिक प्रथा की औपचारिकताओं को पूरा करने के लिये स्त्री अपने मृत पति के साथ चिता पर लेटती थी तथा फिर उसके सम्बन्धी उससे उठने के लिये आग्रह करते थेनियोग प्रथा के प्रचलन का संकेत मिलता है जिसके अन्तर्गत पुत्र विहीन विधवा पुत्र-प्राप्ति के निमित्त अपने देवर के साथ यौन सम्बन्ध स्थापित करती थी । समाज में स्त्रियों की दशा काफी अच्छी थी । उन्हें पर्याप्त स्वतंत्रता थी । पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था । उनकी शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था थी । ऋग्वेद में घोषा, लोपा, मुद्रा, विश्ववारा आदि स्त्रियों के नाम आते हैं जो पर्याप्त शिक्षिता थीं तथा जिन्होंने कुछ मन्त्रों की रचना भी की थी । स्त्रियों के सामाजिक और धार्मिक अधिकार पुरुषों जैसे ही थे ।

 

भोजन तथा वक्त:- आर्य मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे । भोजन में दूध, घी, दही आदि का विशेष महत्व था । ऋग्वेद में एक स्थान पर दूध में पकी हुई खीर (क्षीर पाकौंदन) का उल्लेख हुआ है । एक अन्य स्थान पर दही में बनने वाले पनीर का उल्लेख मिलता है । घी में पके हुए मालपूवे (अपूंप घृतवंतम्) का भी वर्णन हुआ है । जौ की सत्तू को दही में मिलाकर ‘करंभ’ नामक खाद्य पदार्थ बनाया जाता था । ‘यवागू’ का उल्लेख मिलता है जो जौ की दलिया लगता है । भोजन को मीठा बनाने के लिये मधु का भी प्रयोग किया जाता था । मधु देवताओं को भी चढाया जाता था । मांसाहार का प्रचलन था । ऋग्वेद में नमक का उल्लेख नहीं मिलता है । प्रायः भेड़, बकरी आदि पशुओं का मांस खाया जाता था । गाय के लिये ‘अध्न्या’ (न मारने योग्य) शब्द मिलता है । ए॰ एल॰ बाशम के अनुसार इस शब्द से गाय की आर्थिक महत्ता सूचित होती है क्योंकि गायें ही विनिमय का माध्यम बनती थी । ऐसा लगता है कि विवाह एवं सम्मानित अतिथि के आगमन आदि के अवसरों पर ही गाय का वध होता था । शतप्रथ ब्राह्मण अतिथि के सम्मान में विशाल वृषभ अथवा बकरी को मांसाहार के लिये मारे जाने का विधान करता है । परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि मास के लिये गाय का वध धीरे-धीरे बन्द होने लगा था तथा उसकी पवित्रता बढ़ने लगी । कुछ विद्वानों का विचार है कि पशु बलि के निषेध के पीछे कृषि कार्यों के लिये उनकी उपयोगिता थी किन्तु यह उचित नहीं है । यह दया के कारण था न कि कृषि-व्यापार में उनकी उपयोगिता के कारण । यूरोप, चीन आदि में भी कृषि का प्रचार था किन्तु वहां गाय-बैल मारकर खाये जाते थे । सोम तथा सुरा आयों के मुख्य पेय थे । सोम अपनी मादकता के लिये प्रख्यात था जिसे मूजवन्त पर्वत पर प्राप्त किया था । यज्ञों के अवसर पर सोमरस पान करने तथा देवताओं को पीने के लिये उसे समर्पित करने की प्रथा थी । ऋग्वेद के नवें मण्डल में सोम की स्तुति में कई सूक्त मिलते है । एक स्थान पर कण्व ऋषि दावा करते है कि सोंम रस पीने के वाद उन्होंने अमरत्व प्राप्त कर लिया है तथा देवताओं को जान लिया है । ऋग्वेद में सुरा के दुष्परिणामों का उल्लेख हुआ है तथा वताया गया है कि लोग इसे पीकर दुर्मद हो जाते थे और सभा-समितियों में लड़ने-झगड़ने लगते थो । सुरा की गणना क्रोध, छूत, अज्ञान आदि अनिष्टकारी वस्तुओं के साथ की गयी है । इसे निन्दनीय तथा त्याज्य बताया गया है । महादेवन् का विचार है कि ‘सोम’ वस्तुतः सैधव निवासियों का पेय था और आर्यों ने उन्हीं से इसे ग्रहण कर लिया था । आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन तथा मृगचर्म से बनाये जाते थे । भेड़ की ऊन का ही वस्त्र प्रायः प्रयुक्त होता था । गन्धार प्रदेश की भेड़ें प्रसिद्ध थीं ।

 

वस्त्र आभूषण - लोग वस्त्रों को काटने तथा सीने की कला से परिचित थे । कभी-कभी वस्त्रों पर सोने की तारों से कढ़ाई की जाती थी । स्त्री-पुरुष दोनों पगड़ी धारण करते थे । दोनों आभूषण पहनते थे । कानों में कर्णफूल, गले में निष्क, हाथों में कड़े, पैरों में खडुए, छाती पर सुनहले पदक तथा गले में मणियों का हार (मणि-ग्रीवा) आदि आभूषण पहने जाते थे । लोग केश प्रसाधन की कला से भी परिचित थे । स्त्रियों वालों का आ बनाती तथा पुरुष दाढी एवं जटा रखते थे । कुछ लोग के से दाढ़ी मूँछ भी बनवाते थे । ऋग्वेद में नाई को ‘वप्ता’ कहा गया है ।

 निष्क 

वस्त्र तीन प्रकार के होते थे:

(1) नीवी- कमर के नीचे पहना जाता था ।

(2) बासस- कमर के ऊपर पहना जाने वाला प्रमुख वस्त्र था ।

(3) अधिवासस्- ऊपर से धारण किया जाने वाला चादर या ओढ़नी होती थी ।

मनोरंजन ऋग्वैदिक आर्य आमोद-प्रमोद का जीवन व्यतीत करते थे । रथ-दौड़, घुड़-दौड़ तथा पासा खेलना भी उनके आमोद-प्रमोद के साधन थे । जुआ (द्यूत) भी खेला जाता था । द्युतक्रीड़ा के समय लोग हार-जीत के दाँव लगाते थे । एक स्थान पर जुआरी पुत्र को पिता द्वारा डटे जाने का उल्लेख है । स्त्री तथा पुरुष दोनों झांझ-मंजीरे के बाजों के साथ नृत्य में भाग वाद्यों में दुन्दुभि, कर्करि, वीणा, बाँसुरी आदि का उल्लेख मिलता है । कीथ का विचार है कि ऋग्वैदिक काल में धार्मिक नाटकों का प्रदर्शन भी होता था ।

रथ दौड़ 

 

आर्थिक व्यवस्था

पशु-पालन - ऋग्वेदिककालीन आर्यो की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार पशुचारण (Herding) था। इसका प्रमाण ऋग्वेद में पशुओं के नामो के बहुतायत में प्रयोग तथा उनसे संबंधित विभिन्न प्रकार की वस्तुओं एवं पदनामों के उल्लेख से प्राप्त होता है। इसमें यह भी वर्णित है कि पशुओं की प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार की प्रार्थनाएँ एवं अनुष्ठान किये जाते थे। स्पष्ट है कि इस काल में पशु आय के प्रमुख साधन के रूप में थे। 


गाय
का इन पशुओं में सबसे महत्वपूर्ण स्थान था और संपत्ति की प्रमुख स्रोत (Source) तथा माप (Measure) थी। इसे अघन्या अर्थात न मारे जाने योग्य भी कहा गया है। इसका प्रमाण गाय से संबंधित विभिन्न शब्दों के उल्लेख से मिलता है, यथा - गोमत (धनी व्यक्ति), गविष्ट (गाय की खोज), गोपति (गाय का रक्षक) आदि। अधिकांश जीवन की घटनाएँ गाय के नाम से जुङी थी। जैसे – राजा को (गोपति, गोप्ता), धनीव्यक्ति को (द्रविण, श्वेवान), समय की माप (गोधूली बेला), दूरी की माप (गवयतू), पुत्री को(दुहिता), अतिथि को (गोहन), युद्ध को(गविष्टि/गेसू/गम्य/गत्य) आदि नाम गाय के नामों पर थे।पशु आर्यों की सम्पत्ति समझे जाते थे ।  कृषक पशुओं की वृद्धि के लिये प्रार्थना करते थे । सैनिक पशुओं को लूट के धन में पाने की आशा रखते थे तथा पुरोहित पशुओं से ही पुरष्कृत किये जाते थे । मुख्यतः गायें विनिमय का माध्यम होती थीं । ऋगवेद के कुछ सूक्तों में गाय को देवता के रूप में कल्पित किया गया है । अन्य पशुओं में बैल, घोड़ा, भेंड़, बकरी, गधा, कुत्ता आदि प्रमुख थे । बैलों से हल जोतने तथा गाड़ी खींचने का काम लिया जाता था । घोड़ा भी आयों का प्रिय पशु था जिसकी सहायता से वे युद्धों में विजय प्राप्त करते थे । कुछ सूक्तों में ‘दधिक्रा’ नामक एक दैवी अश्व की प्रशंसा की गयी है । आर्य हाथी से परिचित नहीं थे । पशुओं के कानों पर स्वामित्व-सूचक चिह्न बना दिये जाते थे । गाय को ‘अष्टकर्णी’ (छेदी हुई कानों वाली अथवा कानों पर 8 के चिह्न से अंकित) कहा गया है । आर. एस. शर्मा का मत है कि ऋग्वैदिक आर्य मुख्यतः पशुचारी थे तथा कृषि का उनके जीवन में गौण स्थान था । यही कारण है कि ऋगवेद में पशुपालन की तुलना में कृषि का उल्लेख बहुत कम मिलता है । इसके 10462 मंत्रों में केवल 24 में ही कृषि का उल्लेख प्राप्त होता है ।

 

कृषि:-


ऋग्वेद में कृषि से संबंधित प्रक्रिया चतुर्थ मंडल में मिलता है। ऋग्वेद संहिता के मूल भाग में कृषि के महत्व के केवल तीन शब्द ही प्राप्त होते है- ऊरदर ,धान्य एवं सम्पत्ति । कृषि-योग्य भूमि को 'उर्वरा' एवं 'क्षेत्र ' कहा जाता था। ऋग्वेदिककालीन अर्थव्यवस्था में कृषि का स्थान गौण  था, जैसे कि ऋग्वेद से फसल के रूप में सिर्फ 'यव' का उल्लेख मिलता है, जिसका अर्थ सामान्य अनाज  से लिया जा सकता है और विशेष रूप से यह जौ का घोतक है। कृषि कार्य में संभवतः लकड़ी के बने हलों  का उपयोग होता था। ऋग्वेद में लांगल तथा सीर (हल के लिये) फाल, सीता (हल के फाल से जुती हुई भूमि (कुंड) आदि का उल्लेख है । फाल सम्भवत: लकड़ी का बना होता था । हल में 6,8 या 12 तक बैल जोड़े जाते थे । ‘अर’ शब्द का भी उल्लेख मिलता है । उल्लेखनीय है कि आज भी ग्रामीण भाषा में हल को झर कहा जाता है । इसके तात्पर्य ‘हर’ से हो सकता है । बुआई, कटाई, मड़ाई आदि क्रियाओं से लोग परिचित थे । पकी हुई फसलों को काटने के लिये हंसिये (दात्र, सृणि) का प्रयोग किया जाता था । कूप तथा अवट (खोदकर बने हुए गड्डे), कुल्या (नहर) अश्मचक्र (रहट की चर्खी) आदि का उल्लेख भी ऋगवेद में मिलता है । चक्र (रहट) की सहायता से कूप से पानी निकाला जाता था तथा नालियों द्वारा उसे खेतों तक पहुँचाया जाता था । लोग खाद के प्रयोग से परिचित थे । खेती से उत्पन्न होने वाले अन्नों में यव एवं धान्य का उल्लेख हुआ है । परन्तु इन दोंनों शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं है । बाद में इनका अर्थ क्रमशः जौ तथा चावल हो गया । परन्तु ऋग्वैदिक आर्य चावल से परिचित नहीं थे । विविध उल्लेख सुविकसित कृषि कर्म को प्रमाणित करते हैं । संभवतः इस काल में कृषि वर्षा  पर निर्भर थी, मगर कृषक सिंचाई से परिचित नहीं थे। वैसे वे ऋतुओ  से भलीभाँति परिचित थे।

 

ग्रामीण या शहरी- किन्तु हम देख चुके है कि ऋग्वेद में राष्ट्र, राज्य, राजा जैसे शब्द, संसद, सभा, समिति जैसी संस्थायें तथा अध्यक्ष, सेनानी, दूत, राष्ट्रपति जैसे पदाधिकारियों के नाम मिलते है । इनसे सूचित होता है कि समाज पूर्णतया ग्रामीण नहीं था अपितु इसमें ग्रामीण तथा शहरी, दोनों ही तत्व साथ-साथ विद्यमान थे । ग्रामों का विवरण सूचित करता है कि उनमें काफी बड़ी बस्तियों भी थीं जिनमें अनेक घोड़ों के रथ पर बैठकर लोग अपने घर से उत्सव आदि में जा सकते थे । अतः ऋग्वैदिक समाज को पूर्णतया पशुचारी अथवा घुमक्कड़ कहना समीचीन नहीं होगा । सिन्धु तथा वैदिक समाज के सांस्कृतिक स्तर में बहुत अधिक विभिन्नता नहीं है । वैदिक काल में भी संगठित प्रशासन, दुर्गीकृत भवन तथा थल और जल व्यापार के उदाहरण मिलते है । न तो सिन्धु सभ्यता मात्र नागरिक थी और न ही वैदिक सभ्यता मात्र पशुपालक अथवा घुमक्कड़ । दोनों में ही नागर तथा ग्राम्य तत्व विद्यमान थे ।

 

व्यापार और वाणिज्य:-


व्यापार-वाणिज्य प्रधानतः ‘पणि’ वर्ग के लोग करते थे । ‘पणि’ शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में कई स्थानों पर हुआ है । इसके समीकरण के विषय में विद्वानों में मतभेद है । जिमर तथा लुडविग इस शब्द का अर्थ व्यापारी बताते है । ऋग्वेद में एक स्थान पर देवताओं तथा पणियों के बीच संघर्ष तथा देवताओं द्वारा उनके संहार का वर्णन मिलता है । इस आधार पर लुडविग का विचार है कि वे आदिम व्यापारी थे जो अरब तथा उत्तरी अफ्रीका के व्यापारियों की भाँति काफिलो में चलते थे । अपने जान-माल की सुरक्षा के लिए निमित्त उनके पास सेना होती थी । वे आवश्यकता पड़ने पर अपनी वस्तुओं की रक्षा के लिये आर्य आक्रमणकारियों से युद्ध करने को तैयार रहते थे । ए॰ सी॰ दास की मान्यता है कि पणि आर्य व्यापारी ही थे जो सप्तसिन्धु से निष्कासित होने के उपरान्त फोनेशिया में जाकर बस गये थे । कुछ अन्य विद्वान् ‘पणि’ का समीकरण बेवीलोनियनों, पाण्डवों आदि से करते हैं । लगता है कि वे आर्य व्यापारी ही थे जो अपने कार्य के कारण वैदिक ऋषियों की निन्दा के पात्र बन गये । कालान्तर में वे वैश्य वर्ण के साथ संयुक्त हो गये । पणि अपनी कृपणता के लिये प्रसिद्ध थे । वे ऋण देते थे तथा ब्याज बहुत अधिक लेते थे । उन्हें ‘वेकनाट’ (सूदखोर) कहा गया है । व्यापार अदल-बदल (Barter) प्रणाली पर आधारित था । अनेक स्थानों पर वस्तुओं को खरीदते समय मोल-भाव किये जाने का उल्लेख मिलता है । विनिमय के माध्यम के रूप में ‘निष्क’ का उल्लेख हुआ है परन्तु इसका समीकरण विवादग्रस्त है । संभवतः प्रारम्भ में यह हार जैसा कोई स्वर्णाभूषण था परन्तु बाद में सिक्के के रूप में प्रयोग किया जाने लगा । कपड़ा, चादर तथा चमड़े का व्यापार होता था । स्थल का व्यापार मुख्यतः रथों एवं बैलगाड़ियों द्वारा होता था । ऋग्वेद में समुद्र शब्द आया है । कुछ विद्वान् ‘समुद्र’ का अर्थ विशाल ‘जल-समूह’ लगाते है । राधा कुमुद मुकर्जी के मतानुसार ऋग्वेद में समुद्र का प्रयोग निश्चित रूप से सागर के लिये हुआ है समुद्र की विशालता, गर्जन तथा तरंगों का उल्लेख मिलता है जहाँ नदियां समाहित होती थीं । एक स्थान पर भुज्यु की समुद्र यात्रा का वर्णन है जिसने मार्ग में जलयान के नष्ट हो जाने पर आत्मरक्षा के लिये अश्विनि कुमारों से प्रार्थना की । अश्विनि कुमारों ने उसकी रक्षा के लिये सौ पतवारों वाला जहाज (शतारित्रा) भेजा । 

यह उल्लेख समुद्री यात्रा की ओर संकेत करता है । एक अन्य स्थल पर समुद्र से प्राप्त होने वाले धन (वसूनि समुद्रात) का उल्लेख मिलता है तथा उसे प्रदान करने के निमित्त सोम का आवाह किया गया है । पतवार को ‘अरित्र’ तथा नाविक को अरितृ कहा गया है । इन उल्लेखों से विकसित सामुद्रिक व्यापार का परिचय मिलता है ।

व्यवसाय एवं उद्योग-धन्धे:- ऋग्वैदिक समाज में व्यवसाय आनुवंशिक नहीं थे । तथापि ब्राह्मण मुख्यतः याज्ञिक क्रियाओं को सम्पन्न कराते थे, क्षत्रिय युद्ध सम्बन्धी कार्यों में व्यस्त रहते थे, वैश्य कृषि, पशुपालन तथा धन उधार देने का काम करते तथा शूद्र मुख्यतः तीनों वर्णों की सेवा करते थे । परन्तु शूद्रों के अतिरिक्त अन्य तीनों वर्णों के लोग किसी भी पेशे को अपना सकते थे । ऋग्वैदिक कवियों में अनेक राजन्य (क्षत्रिय) वर्ग के हैं। ब्राह्मण भी यदा-कदा धन उधार देने का कार्य करते थे । इन चार वर्णों के अतिरिक्त ऋग्वेद में कुछ अन्य व्यवसायियों के भी नाम मिलते है । इनमें ‘तक्षा’ (बढई), कर्मा (धातु कर्म करने वाले), स्वर्णकार, चर्मकार, वाय (जुलाहे) कुम्भकार आदि प्रमुख है । बढ़ई तथा संभवतः शिल्पियों का मुखिया होता था । वह सभी प्रकार की लकड़ी की वस्तुओं, विशेषकर रथ तथा गाड़ियों का निर्माण करता था । आर्यों के सामरिक जीवन में रथों का अधिक महत्व होने के कारण ‘तक्षा’ की सामाजिक प्रतिष्ठा अधिक बढी हुई थी । कुछ लोग धातुओं को गलाने तथा उन्हें पीटकर विविध वस्तुऐं बनाने के कार्य में भी कुशल थे । ‘अयस’ नामक धातु का उल्लेख अनेक स्थलों पर मिलता है जिसकी सहायता से घरेलू उपयोग के वर्तनादि बनाये जाते थे। ‘अयस्’ की पहचान असंदिग्ध रूप से नहीं की जा सकती । कुछ विद्वान् इसे ताँबा, कांसा या लोहा बताते हैं । किन्तु ऋग्वैदिक आर्य लोहे से परिचित नहीं थे । कताई-बुनाई का कार्य स्त्री-पुरुष दोनों ही करते थे । सूत, रेशम तथा ऊन से वस्त्र बनाये जाते थे । ऋग्वेद से पता चलता है कि सिन्ध तथा गन्धार प्रदेश सुन्दर ऊनी वस्त्रों के लिये विख्यात था । परूष्णी (रावी) नदी के तट पर बाढिया किस्म के रंगीन ऊनी वस्त्र बनाये जाते थे । गन्धार प्रदेश की भेड़ें अपने चिकने ऊन के लिये सर्वत्र विख्यात थीं । चर्म उद्योग भी ज्ञात था। बैल आदि पशुओं के चमड़े से कोड़े, लगाम, डोरी, थैले आदि बनाये जाते थे। भट्ठी में धातु गलाने वाले को ‘ध्याता’ तथा ‘द्रविता’ एवं मिट्टी के बर्तन बनाने वाले को कुलाल’ कहा गया है । इसके अतिरिक्त वैद्य (भिषक) नर्तक-नर्तकी, नाई (वाप्तृ) गायक, वादक, नर्तक तथा सुरा बेचने वालों का भी अलग वर्ग था । ऋग्वैदिक काल में इनके कोई भी व्यवसायी तुच्छ नहीं समझा जाता था, बल्कि सभी की अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा थी ।

 

धार्मिक स्थिति

 प्रसिद्ध पुरुषसूक्त में वैदिक ऋषि सम्पूर्ण जगत् को एक रूप में देखते है । सृष्टि को ‘विराट पुरुष’ के आत्मयज्ञ का परिणाम बताया गया है । उसे विश्वकर्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, अदिति आदि नाम दिये गये है । ऋग्वैदिककालीन लोगों अर्थात आर्यो का धर्म बड़ा सरल था। वे लोग पूर्णत: ईशवरवादी थे। उन्होंने प्रकृति -संबंधी विचारों का आध्यात्मिक (Spiritual) आधार पर प्रतिपादन किया, न कि वैज्ञानिक (Scientific) आधार पर। ऋग्वैदिक आर्य सांसारिक समृद्धि और सन्मार्ग प्रदर्शन के लिए देवों की आराधना मूर्तियों के माध्यम से नहीं होती थी, बल्कि स्तुति-पाठ (Panegyric) अथवा यज्ञ (Oblation) के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि में दूध, घी, सोम, मधु और अन्न की मंत्र सहित आहुति (offering) द्वारा होती थी।

·   पृथ्वी स्थान के देवता -अग्नि, सोम,पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि।

·   वायुस्थान या आकाश के देवता - सूर्य, धौस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, सवितृ, उषा आदि।

·   द्रिआकाशीय (अंतरिक्ष) देवता- इंद्र, मरुत, वायु, पर्जन्य आदि।

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ऋग्वैदिक देवता -ऋग्वैदिक देवताओं (Gods) में इंद्र, अग्नि, वरुण, सोम, सविता, सूर्य, मरुत, विष्णु, पर्जन्य, ऊष्मा आदि 11 देवता प्रमुख है। ऋग्वेद के सूक्तो (Hymms) में प्रायः इन्हीं देवताओं की स्तुति प्रमुख रूप से की गई है। ऋग्वेद में सबसे महत्वपूर्ण देवता इंद्र को 'पुरुन्दर' भी कहा गया है। उन्हें वर्षा का देवता (Rain God) भी माना गया है। ऋग्वेद में इंद्र की स्तुति में 250 सूक्त है। 

 इंद्र 

इंद्र को रथेष्ट, विजयेन्द्र, सोमपाल, शतक्रतु, वृत्रहन एवं मधवा भी कहा जाता है। ऋग्वेद के दूसरे महत्वपूर्ण देवता अग्नि (Fire) है। वे देवताओं और मनुष्य के बीच मध्यस्थ (Mediator) थे। उनकी स्तुति में 200 सूक्त मिलते है।

अग्नि देवता 

 तीसरे प्रमुख देवता वरुण थे, जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करते थे। वरुण को ऋतस्य गोपा' अर्थात प्रकृतिक घटनाक्रम का संयोजक तथा 'असुर' कहा गया है। इन्द्र और अग्नि समस्त जन द्वारा दी गई बलि अर्थात शाक, जौ आदि वस्तुएँ ग्रहण करने के लिए आहूत  होते थे। अग्नि को सूर्य का ही रूप कहा गया है । वह चर-अचर का ज्ञाता है, इसीलिए इसे ‘जाति वेदस्’ कहा गया । सूर्य के समान सर्वद्रष्टा होने के कारण उसका नाम ‘भुवनचक्षु’ है । वह राक्षसों, पिशाचों, आदि का विनाशक तथा मनुष्यों का मित्र एवं रक्षक था जिसके कारण उसे पिता, बन्धु, मित्र भी कहा गया है। 

वरुण के बाद पृथ्वीवासी देवताओं में सोम, महत्वपूर्ण था । यह देवताओं का प्रमुख पेय भी था जिसमें देवत्व का आरोपण किया गया । वह आनन्द तथा प्रफुल्लता का देवता बन गया। आकाश के देवताओं में सूर्य सर्वप्रमुख थे जिनकी स्तुति पूरे दस सूक्तों में की गयी है । उन्हें सर्वदर्शी एवं स्पश् कहा गया है । सविता उन्हीं का एक रूप है । 


अश्विन् नाम दो युग्म देवता देवों के कुशल चिकित्सक है । उन्हें नासत्य’ कहा जाता है । इन्द्र, अग्नि और सोम के पश्चात् सर्वाधिक सूक्त इन्हीं को समर्पित है । मरुतों, आदित्यों तथा अश्विनों की भी एक ही श्रेणी मानी गयी ।

अश्वनी कुमार 

 ऋग्वैदिक आर्यों ने अपने देवताओं की कल्पना मनुष्य रूप में ही किया तथा उनमें समस्त मानवोचित गुणों को आरोपित कर दिया । देवता तथा मनुष्य में मुख्य अन्तर यह था कि देवता अमर माने गये जबकि मनुष्य मर्ज था । देवता मनुष्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते थे तथा उनमें मनुष्यों जैसी दुर्बलताऐं भी नहीं थीं । ‘सोमरस’ देवताओं का मुख्य पेय कहा गया है । रुद्र के सिवाय अन्य देवताओं का स्वरूप मंगलकारी बताया गया है । वे आसुरी शक्तियों का दमन करते है तथा प्रकृति की व्यवस्था के नियामक हैं । सज्जनों को पुरस्कृत एवं दुर्जनों को दण्डिएत करना उनका कार्य है । इस देव समूह में सर्वप्रधान देवता कौन हैं, यह निर्धारित करना कठिन है । ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की प्रार्थना की है उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का आरोप कर दिया है । मैक्समूलर ने इस प्रवृत्ति को हेनोथीज्म (Henotheism) कहा है । यज्ञ में दूध, अन्न, घी, माँस तथा सोम की आहुतिया दी जाती थीं । यज्ञीय विधि-विधान अत्यन्त जटिल थे । ऋग्वेद में धर्म शब्द विधि (Laws) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसका सम्बन्ध नैतिकता से नहीं है ।'गायत्री मंत्र' ऋग्वेद में उलिलखित है। यह सवितृ (सूर्य) देवता को समर्पित है तथा इसके रचनाकार विश्वामित्र है इसके अतिरिक्त कुछ अमूर्त भावनाओं के द्योतक देवता भी है जैसे- श्रद्धा, मन्यु, धातृ, विधातृ आदि । कुछ देवियों के भी नाम मिलते हैं । सिन्धु नदी को देवी के रूप में मान्यता दी गयी है । जंगल की देवी को ‘अरण्यानी’ कहा गया है । वाग्देवी सरस्वती की भी स्तुति की गयी है । पृथ्वी तथा आकाश को मिलाकर ‘द्यावापृथ्वी’ नाम दिया गया । देवताओं को ‘असुर’ (असु अर्थात् प्राणशक्ति सम्पन्न) कहा गया है । कालान्तर में यह शब्द राक्षसों का सूचक हो गया ।

ऋग्वैदिक आर्यों के परलोक विषयक विचार अधिक स्पष्ट नहीं है । एक स्थान पर मृतात्मा को यम द्वारा शासित लोक में शांतिपूर्वक सुख के साथ निवास करने बाला कहा गया है । स्वर्ग की बड़ी सुन्दर एवं मनोरम कल्पना मिलती है । बताया गया है कि- ‘जहां दिन, रात तथा जल सभी सुन्दर तथा आनन्ददायक होते हैं । वहाँ मनुष्य बलिष्ठ तथा सुन्दर शरीर को प्राप्त करता है और उसका शरीर सभी प्रकार की दुर्बलताओं, आधि-व्याधि आदि से मुक्त हो जाता है । पुण्यकर्मी प्राणी अपने यज्ञादि कर्मों का फल वहां प्राप्त करते हैं । वहाँ अश्वत्थ वृक्ष है जिसके नीचे यम, देवताओं के साथ पान करते हैं ।’ नरक की कल्पना दुष्किर्मियों के लिये दण्ड स्थान के रूप में की गई है । ऐसा लगता है कि लोग पापकर्म के दुष्परिणामों से डरते थे । पाप, ऋत् के उल्लड्थन से पैदा होता था । ‘ऋत’ के मार्ग को श्रेष्ठ कहा गया है (सुगाऋतस्य पंथा) । देवताओं की उपासना, यज्ञीय विधि-विधानों का अनुष्ठान तथा ईश्वर की इच्छा के अनुकूल आचरण करना- ये ही नैतिक जीवन के आदर्श थे । 

यज्ञ  विधि 

ऋगवैदिक ऋषियों के विचार पूर्णतया आशावादी थे जिसमें निराशावाद की कोई झलक नहीं मिलती है । जीवन चाहे सत्य रहा हो या झूठ, वे उसका पूर्ण उपभोग करना चाहते थे । ऋग्वेद दीर्घ आयु, रोगों से मुक्ति, वीर-सन्तति, धन, शक्ति, खानपान की अधिकता, शत्रुओं पर विजय आदि की प्रार्थनाओं से भरा हुआ है । ऋग्वैदिक ऋषि ने जीवन को बन्धन मानकर उसके सुखों की उपेक्षा करने का कभी प्रयास नहीं किया और न ही कायाक्लेश आदि में ही विश्वास किया



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