ताम्रपाषाणिक संस्कृतियां
1. जोर्वे की ताम्रपाषाणिक संस्कृति
जोरवे महाराष्ट्र प्रान्त के अहमदनगर जिले में गोदावरी की सहायक नदी प्रवरा के बायें तट पर स्थित है। 1963 ई. में एच. डी. संकालिया ने यहाँ उत्खनन कार्य करवाया था जिसमें विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों का उद्घाटन हुआ। यहाँ के उत्खनन से ताम्रपाषाणिक युग की एक ऐसी संस्कृति का पता चलता है जो महाराष्ट्र की अपनी संस्कृति है तथा जिसका विस्तार विदर्भ और कोंकण को छोड़कर समूचे महाराष्ट्र में दिखाई देता है।
कालानुक्रम:- इसकी कालावधि ई. पू. 1400-700 निर्धारित की गयी है। इस संस्कृति के अन्य उत्खनितपुरास्थलहै- नेवासा, दायमाबाद(अहमदनगरजिला), चन्दोली, सोनगाँव, इनामगाँव(पुणे), प्रकाश तथा नासिक। इसमें दक्षिण की नवपाषाणिक संस्कृति के तत्व भी मिलते है। जोर्वे संस्कृति से सम्बंधित चंदोली, सोनगांव, नेवासा तथा इनामगांव से कतिपय(अनेक) रेडियोकार्बन तिथियां उपलब्ध है जिसके आधार पर इस संस्कृति का समय 1600ई०पू० से 1000ई० पू० के मध्य निर्धारित किया गया है।यद्यपि इनामगांव में यह और बाद तक चलती रही जिसकी अंतिम तिथि
700ई०पू० प्राप्त हुई।
संस्कृति का प्रसार-
जोर्वे की ताम्रपाषाणिक संस्कृति का प्रसार क्षेत्र महाराष्ट्र में विदर्भ के कुछ हिस्सों तथा कोंकण को छोड़ कर सम्पूर्ण महाराष्ट्र अथवा डेक्कन के पठारी क्षेत्र में प्रवाहित नदियों की घाटियाँ हैं। प्रवरा तथा गोदावरी नदियों की घाटी इस संस्कृति की जन्मस्थली कही जा सकती है। जोर्वे संस्कृति की सर्वप्रथम जानकारी महाराष्ट्र के अहमद नगर जिले में स्थित जोर्वे नामक पुरास्थल के उत्खनन से हुई।जोर्वे तथा नेवासा पुरास्थल जिनके नाम पर इस संस्कृति का नामकरण किया गया है, अहमद जिले में प्रवरा की घाटी में ही स्थित हैं। अन्य उत्खनित स्थलों में से प्रकाश, सावलदा तथा कौठे(धुले जिले में) ,बहाल व टेकवाड़ा(जलगांव जिले में) स्थित है।
शहरी या ग्रामीण:- जोरवे संस्कृति मुख्यतः ग्रामीण थी लेकिन इसके कुछ स्थल दैमाबाद, इनामगाँव से नगरीकरण के साक्ष्य भी मिलते है। ये सभी नदी तट पर स्थित थे। इस संस्कृति के लोग स्थायी रूप से मकान बनाकर गाँवों में निवास करते थे। मकान मिट्टी, गारे, घास-फूस तथा बल्लियों की सहायता से तैयार किये जाते थे। इनका स्वरूप वर्गाकार, वृत्ताकार अथवा आयाताकार मिलता है। मकानों का आकार चौकोर होता था जिसमें मालवा संस्कृति की भौंति चारों कोनों को गोल आकार दे दिया जाता था दीवालों में लकड़ी के लट्ठों का टेक लगाया जाता था। मकानों की छतें सम्भवत: घास-फूस की होती थी कतिपय मकानों में आंगन के साक्ष्य मिले हैं। मकानों के अन्दर मिट्टी के बर्तन, सिल-लोढ़ा आदि भी मिले हैं।
प्रारम्भिक जोर्वे:- इस काल में वर्गाकार अथवा आयताकार घरों का निर्माण करते थे।छत्त लकडी के स्तम्भों पर टिकती थीं।वर्षा के पानी के निकास की समुचित व्यवस्था थी ।घरों के फर्श पर निरन्तर लेप लगाते थे,जैसे आज प्रचलित है। अनेक घरों में द्विकलश शवाधान मिले हैं।घरों में कटोरे ,टोंटीदार लोटे, ऊँची गर्दन के लोटे,तसले, गहरे कटोरे,आदि मिले हैं।इन पर लाल रंग का लेप तथा उस पर काले रंग से अलंकरण हुआ है। उल्लेखनीय है कि थाली के समान कोई भी बर्तन नही मिला है। घरों के बीच लगभग 5 फीट का मार्ग होता था।
उत्तर जोर्वे संस्कृति:- इस काल में गृह गोलाकार हो जाते हैं जिनका व्यास 2 मी० से 4.30 मी० था। इनकी छत लकडी के खम्बों पर आधारित होती थी। घरों में चूल्हों की व्यवस्था थी।फर्श काली मिट्टी पीटकर बनाते थे तथा उसको लीपते थे।सबसे बड़े घर मे 16 स्तम्भ गर्त मिले हैं। इसकाल में भी घरों में विविध बर्तन मिलते हैं परन्तु थाली नहीं मिलती है।घरों की दीवारें लकडी, टट्टर आदि से बनाकर उसे मिट्टी से प्लास्टर कर देते थे। इस काल में घर बहुत सटे हुए बनाते थे।
अर्थव्यवस्था और कृषि:- जोर्वे ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के लोग कृषि और पशुपालन करते थे। यहाँ के लोग गेहूँ, जौ, मटर, मूँग, मसूर आदि की खेती करते थे। इनामगाँव से ताड़ झरबेर और जामुन की गुठलियाँ मिली हैं, जिससे संकेत मिलता है कि लोग इनका प्रयोग खाद्य पदार्थ के रूप में करते रहे होंगे। इनामगाँव से फसलों की सिंचाई का साक्ष्य मिला है। यहाँ से प्रारम्भिक जोर्व संस्कृति (1400-1000 ई०पू०) से एक नहर का प्रमाण मिला है जो 200 मीटर लम्बी.4 मीटर चौड़ी और 3.5 मी० गहरी है। नहर का निर्माण बाढ़ के पानी को एक बाँध में एकत्र करने के लिए किया गया था। बाँध 240 मीटर लम्बा और 2.40 मीटर चौड़ा था। खेती के लिए सम्भवतः हल का प्रयोग भी होने लगा था इनामगाँव के पास पाली से बैल के कन्धे से बना एक अर्द (हल के फाल का प्रारम्भिक रूप) मिला है। खेती के साथ पशुपालन भी किया जाता था। पालतू पशुओं में गाय, बैल भेड़, बकरी और कुत्ते आदि प्रमुख हैं उल्लेखनीय है कि इनामगाँव से प्राप्त एक मिट्टी के बर्तन पर बैलगाड़ी में जुते बैलों का चित्रण मिला है। विद्वानों की मान्यता है कि जोर्वे संस्कृति के लोग पशुओं का उपयोग भार वाहन में करने लगे थे वन्य पशुओं के अस्थि अवशेषों से शिकार की प्रवृत्ति का सातत्य दिखायी पड़ता है । जोर्वे संस्कृति में कृषि-पशुपालन जीवन यापन का मुख्य आधार था, किन्तु धातुओं के प्रयोग और कपास की खेती से उद्योग-धन्धों के विकास से इंकार नहीं किया जा सकता है। मृद्भाण्डों के विकास को देखते हुए कुम्भहारगोरी के व्यवसाय का अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है।
पशुपालन:- ये लोग मांसाहारी थे तथा पशुओं का पालन भी करते थे।पालतू पशुओं में गाय, बैल, भेड बकरी और खरगोश आदि पालते थे। ये जंगली पशुओं का शिकार भी करते थे ।इन जंगली पशुओं में गाय, भैंस, चीतल, चौंघिया,हिरन, साम्भर की हड्डियां मिली है।
शवाधान:- हड़प्पा लोगों की भांति अलग-2 समाधि-स्थल नहीं होते थे। नेवासा, बहल, चंदोली, दायमाबाद ,सोनगांव तथा इनामगांव में शवाधान मिले हैं।
इनमें नेवासा में 131 (126बच्चों के) तथा इनामगांव में शवाधान 50 मिले हैं। ये लोग घरों में फर्श के नीचे शवाधान बनाते थे।बच्चों को रुक्ष हस्तनिर्मित लाल या भूरी पात्र के कलश में मुँह से मुँह लगाकर रखते थे।तथा बडो को उत्तर दक्षिण दिशा में लिटाकर रखते थे। मृतकों के साथ भोज्य सामग्री, पानी मिट्टी के बर्तन तथा आभूषण रखते थे। बच्चों को दफनाने से पूर्व उनपर तेल व गोबर का लेप करते थे। जोरवे के स्थलों से धूसर भाण्ड भी मिलते है जो दक्षिण की नवपाषाण परम्परा के हैं।
धार्मिक मान्यता:- नेवासा, चंदोली तथा इनामगांव के उत्खननों से इनकी धार्मिक मान्यताओं के सम्बंध में प्रकाश पड़ता है इन स्थानों से जोर्वे संस्कृति के स्तरों से कतिपय मानव एवं पशु की मिट्टी की मूर्ति प्राप्त हुई है। नेवासा से एक मिट्टी की स्त्री प्रतिमा मिली थी। इनामगांव से प्राप्त स्त्री तथा वृषभ की मूर्तियां विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस प्रकार यह अनुमान लगाया गया है कि प्रारम्भिक तथा उत्तर जोर्वे के लोग मातृदेवी की पूजा करते थे तथा वृषभ उनका वाहन था।
वस्त्र एवं आभूषण:- जोर्वे संस्कृति के लोग सूती तथा सिल्क के वस्त्र पहनते थे।तथा ये लोग अंगेट, कार्नेलियन, जैस्पर, चाल्सेडनी ,सोने ताम्बे तथा हाथी दाँत के आभूषण बनाते थे।सोना सम्भवतः कर्नाटक से आता था किन्तु निर्माण स्थानीय होता था।इस संस्कृति के पुरास्थलों से सेलखड़ी, तामड़ा पत्थर, पकी मिट्टी, ताम्र तथा सोने के मनके प्राप्त हुए हैं।
नेवासा में एक बच्चे के कंकाल के गले में ताम्र के बने मनकों का हार पड़ा हुआ मिला है।काजल शलाका की प्राप्ति से पता चलता है कि ये लोग काजल भी लगाते थे I दैमाबाद की साइट से, बीड निर्माता के घर को देखा गया है जिसे 4.4 वर्ग मीटर की बजरी से भरे पोस्टहोल की योजना द्वारा दर्शाया गया था। इस संरचना के फर्श पर कारेलियन, लंबी बैरल, पॉलीगॉनल के एक अधूरे मनके को इकट्ठा किया गया था। इसके आधार पर उत्खनन (साली 1986: 137) ने इसे एक बीड निर्माता के रूप में पहचाना; हालांकि इसके संघ में कच्चे माल का कोई डिबेट नहीं मिला था। कई विद्वानों ने इन तकनीकों का अध्ययन किया है और उन्हें व्यवस्थित रूप से प्रलेखित किया हैI
हाइड्रोलिक्स: इसका सबसे अच्छा सबूत निचले डेक्कन क्षेत्र में इनामगांव की साइट से आता है। एक सिंचाई नहर, 240 मीटर लंबी और 2.5 मीटर चौड़ी
और गहरी खोज की गई थी। इसके समानांतर मिट्टी के मोर्टार में स्थापित पत्थरों की एक तटबंध की दीवार बनाई गई थी। इसका निर्माण नहर की सिल्ट को रोकने के उद्देश्य से किया गया था । यह उपमहाद्वीप में चालकोलिथिक से जुड़ा सबसे अच्छा हाइड्रोलिक सबूत है।
मृदभांड परम्पराएं:-
जोर्वे संस्कृति में कई प्रकार की पात्र परम्पराएं प्रचलित थी।वे पात्र परम्पराएं जो जोर्वे संस्कृति के पहले ही अस्तित्व में आ चुकी थीं, उनमें से मालवा पात्र परम्परा और दूधिया स्लिप वाली पात्र परम्परा विशेष उल्लेखनीय है। इस
संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट पात्र परम्परा थी, यद्यपि इसमें अन्य पात्र-परम्पराओं को भी अपना लिया गया था। जोरवे परम्परा में लाल आधार पर काले डिजाइन के
बर्तन चाक पर बनाये जाते थे। इनकी मिट्टी खूब गूंथी होती थी। बर्तनों को सावधानीपूर्वक तैयार किये गये आँवों में पकाया जाता था। इस संस्कृति का एक खास नमूना टोंटीदार तथा नौतली मृद्भाण्ड है। इसके
अतिरिक्त गहरे कटोरे, तसले, मटकें, घड़े आदि भी
मिलते है। किन्तु थालियाँ या तश्तरियाँ नहीं मिलती।
बर्तनों की डिजाइन प्रायः ज्यामितीय है जिन्हे तिरछी समानान्तर रेखाओं द्वारा बनाया
गया है। अनेक ताम्र उपकरण जैसे चूड़ियाँ, मनके, छेनी, सलाइयाँ, कुल्हाड़ी, छूरे आदि प्रमुख है।
उपकरण:- इस संस्कृति के उत्खनन से डोलेराइट की कतिपय कुल्हाड़ियाँ मिली है।अंगेट तथा चालसेडनी के ब्लेड बड़ी संख्या में प्रयोग करते थे। ताम्बे से कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने की कटिया, गुरियाँ तथा चूड़ियाँ बनाते थे।इसके अतिरिक्त इस संस्कृति के लोग
चाकू, सुई, विभिन्न स्थलों से लघुपाषाण उपकरण बहुत बड़ी संख्या में मिले हैं। इनामगांव के साक्ष्य से ज्ञात होता है कि ये चूना बनाते थे तथा उसकी गेंद बनाकर रखते थे। इस संस्कृति की पात्र परम्परा विशिष्ट थी।इसे भलीभांति पकाते थे।टोटीयुक्त चौड़े मुह की हौडी, कोखदार कटोरा, ऊँची गर्दन वाले सुराही नुमा पात्र आदि इस परंपरा के विशिष्ट बर्तन थे। इनके बर्तनो में थाली अथवा तस्तरी नही होती थी। कुछ बड़े संग्रह पात्र कठौती तथा दीपक आदि हस्तनिर्मित रुक्ष लाल / धूसर रंग के होते थे। इनामगांव से एक विशिष्ट प्रकार का भट्ठा मिला जो 1.7मी० व्यास का है। इसके अतिरिक्त दायमाबाद से एक गैंडा, एक हाथी, एक भैंसा तथा एक रथ(दो बैल खड़ी मुद्रा में तथा 1 व्यक्ति सवार) मिले हैं।ये खिलौने ताम्बे के बने हैं।
2. कायथा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति
नर्मदा और उसकी सहायक ताप्ती एवं माही और यमुना की सहायक चम्बल तथा बेतवा द्वारा सिंचित मालवा का पठार मध्यप्रदेश के अंतर्गत आता है। इस क्षेत्र के ताम्र पाषाणिक प्रमुख पुरास्थलों में त्रिपुरी(जिला जबलपुर),एरण(जिला सागर), उज्जैन( जिला उज्जैन) तथा कायथा(जिला उज्जैन) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मालवा (म०प्र०) क्षेत्र की ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों में कायथा प्राचीनतम है। कायथा 23°30'N और 76°00' के मध्य, छोटी काली सिंधु नदी के दाहिने तट पर उज्जैन जनपद में मुख्यालय से 25km दूर पूर्व की ओर अवस्थित है। काली सिन्धु चम्बल की सहायक नदी है।पहले कायथा को " कपित्थक" के नाम से जाना जाता था जो महानखगोलविद ज्योतिष विज्ञानी वराहमिहिर की जन्मस्थली मानी जाती है।
1964 में इस पुरास्थल को खोजने का श्रेय तथा 1965~1967 ई० में इसके सीमित उत्खनन का तथा श्रेय वी .एस . वाकणकर को जाता है। इतना ही नहीं कायथा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति को भारतीय पुरातत्व के इतिहास में प्रतिस्थापित करने का श्रेय भी वी०एस० वाकणकर को जाता है।
दक्कन कॉलेज एण्ड पोस्ट ग्रेजुएट रिसर्च इंस्टीट्यूट पुणे के D. अंसारी तथा विक्रम विश्वविद्यालय के सहयोग से 1968 में पुनः विस्तृत पैमाने पर उत्खनन कराया गया। इसके आसपास कुछ अन्य ताम्रपाषाणिक स्थल है जैसे~ एरण, त्रिपुरी, उज्जयिनी। कायथा के विस्तृत उत्खनन के फलस्वरूप पांच सांस्कृतिक अनुक्रम प्रकाश में आए जिनमें से नीचे की तीन ताम्रपाषाणिक थे। मालवा क्षेत्र से अब तक 40 से अधिक पुरास्थल प्राप्त हुए हैं जिनमें सबसे प्राचीनतम कायथा संस्कृति है।
कालानुक्रम:- कायथा पुरास्थल के प्रथम सांस्कृतिक स्तर के जमाव से प्राप्त कार्बनिकृत पदार्थों से तीन रेडियोकार्बन तिथियां प्राप्त हुई है जो निम्नवत है:-
1)2150±100ई०पू०
2)1685±100ई०पू०
3)1463±100ई०पू०
उपर्युक्त कार्बन तिथियों के आलोक में पुरातत्वविदों ने कायथा की ताम्रश्मयुगीन संस्कृति की तिथि का निर्धारण 2000ई०पू० से 1800ई०पू० के मध्य स्वीकार किया है। किन्तु पोशेल तथा रिसमन इसे संशोधन के उपरांत C-2400-2000 ई०पू० के अंतर्गत रखते हैं।
कायथा संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं:-
आवास :- कायथा संस्कृति के लोग जमीन में लकड़ी के लठ्ठे अथवा खम्बे गाड़कर बांस-बल्ली आदि के टटरे बनाकर अपने मकान निर्मित किया करते थे उनके मकान प्रायः गोल अथवा चौकोर होते थे। बाँस अथवा सरकंडे आदि से बनी दीवारों को मिट्टी के गाढे लेप से सुरक्षित किया जाता था। मकानों की छत को बांस की टहनियों तथा घास फूस से ढक दिया जाता था।
इस प्रकार मालवा में कायथा संस्कृति के लोग इस क्षेत्र के पहले निवासी थे जिन्होंने मकान बनाकर स्थायी रूप से यहां पर रहना प्रारम्भ किया।
उपकरण:-उपकरणों के आधार पर कायथा को ताम्रपाषाणिक संस्कृति का मन गया है। कायथा संस्कृति के लोग ताम्र तथा कांस्य धातुओं से भलीभांति परिचित थे । यहां के उत्खनन में एक मकान से प्राप्त एक घड़े में 2 तांबे की कुल्हाड़ियाँ (axe) मिली हैं जिनका निर्माण साँचे में ढाल कर किया गया है।इसके अतिरिक्त यहां एक से प्राप्त एक मृदभांड में बेधक, ब्लेड, चन्द्रिका आदि लघुपाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। यहां के उत्खनन में 2 पात्रो में चूड़ियाँ क्रमशः 15 तथा 23 की संख्या में मिली है।
एक बर्तन में 2 हार मिले हैं।
जिनमें एक मे 173 तथा दूसरे में 160 गुरियाँ थीं। इनमें अधकांशतः कार्नेलियन तथा अंगेट की थी। एक घड़े से स्टियलाइट की 40,000 छोटे छोटे मनके / लघुबीड प्राप्त हुये है।
मृदभांड परम्परा:- इस संस्कृति की पहचान तीन विशिष्ट मृदभांड परम्पराओं से की जाती है। इनमें से प्रथम अथवा मुख्य मृदभांडपरम्परा पतली एवं पुष्ट मृदभांड परम्परा है~
क.भूरे अथवा लाल मृदभांड:-
इसे मजबूत तथा पतली गर्दन का बनाया गया है। इस पर मोटा भूरा लेप गर्दन से निचले हिस्से तक मिलता है। इन पात्रों पर गहरी और मोटी धारियां लाल रंग से बनायी गयी है। इसके ऊपर बैगनी अथवा गहरे लाल रंग से रेखीय चित्रण मिलता है। प्रमुख पात्र प्रकारों में तसले , कटोरे, गहरी तस्तरी, घड़े, मटके, हंडियां आदि मिले हैं।
ख. धूसर मृदभांड:-
इस प्रकार के बर्तन सुंदर गर्दन के साथ अपेक्षाकृत पतले बनाये गये है। इसके ऊपर लाल रंग का चित्रण था।मृदभांडों के चित्रण- आड़ी- बेड़ी, रेखायें, बंदनवार , जालीदार हीरक आकर आदि रंगों का गेरु से करते थे। ऐसे बर्तनो में तसले, हँड़िया, घड़े तथा लोटे है।
ग. लाल रंग के मृदभांड:- यह लाल रंग की महीन व बिना लेप की पात्र परम्परा है किंतु इस पर भी उत्कीर्णन मिलता है। इस प्रकार के पात्रों में खरोंच कर लहरदार, टेढ़ी मेढ़ी आकृतियां बनाई गई है। इस पात्र प्रकारों में कटोरे ,तसले आदि है।
कृषि एवं पशुपालन:- यहां के लोगो की मिश्रित अर्थव्यवस्था थीं जो कृषि, पशुपालन, शिकार तथा मत्स्य उघोग पर आधारित थी। ये लोग गेहूं और जौ की खेती करते थे।यहाँ वर्षा पर्याप्त होती थी । पालतू पशुओं में गाय, बैल, बकरी, भेड़ प्रमुख थे।
3. अहाड (बनास) संस्कृति/आहड़ की ताम्रपाषाणिक संस्कृति
अहाड संस्कृति का उद्भव:- इस संस्कृति के अधिकांश पुरास्थल एक क्षेत्र विशेष में ही दिखलाई देते हैं।इनका विस्तार दक्षिणी पूर्वी राजस्थान और पश्चिमी मध्यप्रदेश में ही मिलता है।इस आधार पर यह सम्भावना प्रकट की जा सकती है कि यह एक क्षेत्रीय संस्कृति रही होंगी।
तिथिक्रम:- प्रारम्भ में अहाड के साम्य के आधार पर बालाथल की भी ताम्रपाषाणिक संस्कृति को द्वितीय सहस्त्राब्दि के प्रथम चरण में रखा गया था।किंतु बालाथल से प्राप्त रेडियोकार्बन तिथियों के आधार पर पुरातात्विक निर्धारित तिथि क्रम में परिवर्तन किया गया है, यहां से चार तिथियां उपलब्ध है ये निम्न है:-
1)2350±70ई०पू०
2)2825±60ई०पू०
3)2300±80ई०पू०
4) 2310±80ई०पू०
कहा जा सकता है कि यह संस्कृति
2500ई०पू० में प्रारंभ हुई तथा 2350ई०पू० से 2300ई०पू० के बीच मध्य अवस्था में थी। इस संस्कृति का समापन 1800ई०पू० के लगभग माना जा सकता है।
उत्खनन:- गुजरात और राजस्थान में जब सैन्धव सभ्यता का अस्तित्व बना हुआ था तभी दक्षिणी पूर्वी राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला के पश्चिम में स्थित क्षेत्रों में एक ताम्रपाषाणिक संस्कृति का उदय हुआ।भारतीय पुरातत्व में इसे अहाड संस्कृति के नाम से जाना जाता है। इसका उत्खनन 1952- 53 तथा 1953 - 54 में रतनलाल अग्रवाल ने कराया। उत्खनन से ताम्रपाषाणिक संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। 1961- 62 में राजस्थान के पुरातत्व एवं सग्रहालय विभाग,
डेक्कन कॉलेज तथा पुणे व मेलबर्न विश्वविद्यालय ने संयुक्त रूप से इसका उत्खनन पुनः कराया। राजस्थान के ताम्रपाषाणिक पुरास्थलों में अहाड़ का प्रमुख स्थान है। यह पुरास्थल राजस्थान के उदयपुर जिले में स्थित है। इस ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के अनेक पुरास्थल राजस्थान के विभिन्न जिलों उदयपुर, चित्तौड़, अजमेर, जयपुर आदि और मध्य प्रदेश के उज्जैन और मन्दसौर से प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय है कि ताम्र-पाषाणिक संस्कृति के अधिकांश पुरास्थल राजस्थान की बनास. नदी और उसकी सहायक नदियों की घाटी में मिले हैं, अत: पुरातत्त्वविद् इस ताम्र पापाणिक संस्कृति को 'बनास संस्कृति' का नाम भी प्रदान करते हैं।
अहाड के अतिरिक्त चित्तौड़ का उत्खनन 1959- 60 में B.B. लाल ने किया तथा बालाथल का प्रो० वि. एन . मिश्र ने किया। इन स्थलों के अतिरिक्त 90 से अधिक पुरास्थल चिन्हित किये गए हैं। अहाड संस्कृति का स्वरूप मुख्यतः अहाड,बालाथल तथा गिलुण्ड नामक पुरास्थल है। अहाड पुरास्थल का टीला
500×270×13 मी० बड़ा था। जिसमें 13 मी० का आवासीय जमाव था। स्थानीय लोग इसे धूलकोट के नाम से जानते है। उत्खनन के आधार पर प्रारंभ में यह दो काल खण्डो 1 तथा 2 में विभाजित था जिसे पुनः तीन उपकालखण्डों में विभाजित करते हैं। बालाथल गांव के पूर्वी छोर पर इनका फैलाव 5 एकण से अधिक है तथा इसका सम्पूर्ण जमाव 7 मी० है । इसमें 2 संस्कृतियों के अवशेष मिले हैं:-ताम्रपाषाणिक तथा लौहयुगीन
अहाड संस्कृति की विशेषताएं:-
आवास:- भवनों का निर्माण क्षेत्र में उपलब्ध पत्थरों तथा कच्ची ईंटो तथा गारे से करते है। पत्थर खण्डों का प्रयोग नीवं के लिए करते थे।सम्भवतः दीवारें कच्ची ईंट व गारा या मिट्टी की बनी होती थी कहीं कहीं पत्थर व पके ईट भी मिले हैं। मकान वर्गाकार अथवा आयताकार छोटे तथा बड़े दोनों प्रकार के होते थे।मकानों का छप्पर बांस-बल्लियों तथा घास-फूस का सम्भवतः बनाया जाता था।
स्तम्भ गर्तों के साक्ष्य से यह इंगित होता है कि कुछ मकानों की दीवारें बांस बल्ली की बनायी जाती थी। मकानों की फर्श मिट्टी तथा नदी की ग्रेवेल को मिला कर अथवा जली मिट्टी को पीटकर बनाते थे। घरों में n आकार के चूल्हों की भी व्यवस्था थी। चूल्हे एक अथवा दो मुंह के होते थे।अहाड में एक मकान में एक ही कतार में 6 चूल्हे मिले हैं।
भोज्य व्यवस्था:- बालाथल से प्राप्त अन्नों से पता चलता है कि इनके भोज्य पदार्थों में गेहूं, जौ, चावल, ज्वार, मूंग, उड़द ,मटर, चना, आदि अन्न शामिल थे। फलों में बेर के प्रमाण उपलब्ध हुए हैं।ये लोग मांसाहारी भी थे। ये मछली, कछुआ, मुर्गी, गाय, भैंस, बकरी, सुअर आदि के मांस खाते थे।जंगली जानवरों में हाथी,गौर ,नीलगाय, चीता,खरगोश आदि से परिचित थे। घोंघे आदि का प्रयोग भी भोजन में करते थे।
मृदभांड परम्परा:-
यहां पर 7 प्रकार की मृदभांड परम्पराएँ चिन्हित की गई है जो सभी चाक पर निर्मित है।इन्हें 2 वर्गों में विभाजित किया गया है:- महीन तथा रुक्ष वर्ग। उपयोगिता के आधार पर इन्हें मोटी अथवा पतली परतों का बनाया जाता था। प्रमुख पर्तो में थालियां, तश्तरी, गहरे कटोरे, खाँचेदार कटोरे, घड़े, तसले, दक्कन आदि हैं।
अर्थव्यवस्था:- अहाड़ संस्कृति के लोगों का जीवन-यापन कृषि और पशुपालन पर आधारित था। उत्खनन से प्राप्त मृाण्डों से अधजली धान की भूसी, पुआल और दानों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनका प्रयोग मिट्टी गूंथते समय सालन के रूप में किया गया था इससे स्पष्ट हो जाता है कि अहाड़ के लोग धान की खेती करते थे। अहाड़ पुरास्थल के उत्खनन से गेहूँ और जौ के साक्ष्य नहीं मिले हैं, किन्तु राजस्थान के अन्य ताम्र पाषाणिक पुरास्थलों से गेहूँ और जौ के खेती के साक्ष्य उपलब्ध हैं। अतः विद्वानों का अनुमान है कि अहाड़ के लोग भी इनकी खेती करते रहे होंगे। अहाड़ संस्कृति के विभिन्न सांस्कृतिक कालों से पशुओं की हड्डियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन पशुओं में जंगली और पालतू दोनों प्रकार के पशु थे। पालतू पशुओं में गाय-बैल, भेड़-बकरी और सुअर का उल्लेख किया जा सकता है। इस प्रकार अहाड़ संस्कृति में अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार मिश्रित खेती (कृषि-पशुपालन) माना जा सकता है, किन्तु धातु के प्रयोग के कारण उद्योग-धन्धों के विकास से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।
उपकरण:- अहाड तथा बालाथल से प्रस्तर उपकरण अत्यल्प अथवा न के बराबर हैं।ये लोग ताम्र उपकरणों का प्रयोग बहुतायत से करते थे।घरों से प्राप्त चूल्हों का उपयोग भट्टी के रूप में करके ताम्बे की चादर को पीटकर मनोकूल आकार दिये जाते थे।अहाड से प्राप्त ताम्बे की कुल्हाड़ियां, चाकू, चूड़ी, तथा अंगूठियां, छल्ले तथा छड़े आदि उल्लेखनीय है।
आभूषण:- उपकरणों के अतिरिक्त ताम्बे के कान के टाप्स तथा लटका भी मिले हैं।यहां के लोग कार्नेलियन, अगेट, तथा स्टियलाइट तथा मिट्टी की गुरियों से कण्ठ हार बनाते थे।
अहाड संस्कृति के उत्खनन से उपकरणों व आभूषणों के अलावा अन्य सामग्रियां भी प्रकाश में आयीं। अहाड से 12km दूर मैतून तथा उमरा नामक स्थानों से ताम्बे को गलाने के साक्ष्य प्राप्त हुए। मिट्टी की बैल की आकृतियां काफी संख्या में मिली है जिनका उपयोग सम्भवतः पूजा के लिए होता था।ऐसी प्रतिमायें राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में स्थित मर्मी से मिली है।इनके अतिरिक्त कुत्ते समान खिलौने तथा छिद्रित चक्र भी मिले हैं।
4. मालवा की ताम्रपाषाणिक संस्कृति
मालवा
संस्कृति एक ताम्रपाषाण पुरातात्विक संस्कृति थी जो मध्य भारत के मालवा क्षेत्र और
महाराष्ट्र के दक्कन प्रायद्वीप के कुछ हिस्सों में मौजूद थी। यह मुख्य रूप
से सी के लिए दिनांकित है।
कालानुक्रम:- मालवा संस्कृति के विभिन्न पुरास्थलों से अनेक कार्बन तिथियाँ उपलब्ध हैं जिनके आलोक में पुरतच्वविद् इस संस्कृति का समय 1700 ई० पू० से 1200 ई० प० निर्धारित करने की संस्तुति करते हैं। 1600 BCE 1300 BCE, लेकिन कैलिब्रेटेड रेडियोकार्बन तिथियों ने सुझाव दिया है कि इस संस्कृति की
शुरुआत सी के रूप में हो सकती है (2000-1750
ईसा पूर्व) I इस संस्कृति
को कृषि के जीवन के बढ़ते प्रभुत्व की विशेषता है, लेकिन इसमें देहाती और शिकार
समूहों को भी शामिल किया गया है। लोगों ने गेहूं, जौ, फलियां और बाद में चावल, और पालतू पशुओं, भेड़, बकरियों और सूअरों
की खेती की। अधिकांश बस्तियों में, शहरी नियोजन का कोई सबूत नहीं है, बल्कि घरों का
"बेतरतीब" वितरण है, लेकिन कुछ सबसे बड़े स्थलों में नियोजित निपटान, बड़े
घरों, और सार्वजनिक वास्तुकला के प्रमाण हैं। अधिकांश आवास जंगल और दाउब से बने गोल झोपड़े थे। अनाज के भंडारण के लिए छोटे गोल झोंपड़े, और बड़े आयताकार ढांचे का
उपयोग किया जाता है, जिनका उपयोग धार्मिक प्रदर्शन के लिए किया जा सकता था।
उत्खनन:- मालवा ताम्र-पाषाणिक संस्कृति से क्षेत्र विशेष की संस्कृति का बोध होता है। वस्तुत: इस संस्कृति का विस्तार क्षेत्र मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में देखा जाता है, किन्तु इस संस्कृति का प्रमुख पुरास्थल नवदाटोली तथा महेश्वर (दोनों खरगोन जिला, उ०प्र०) माने जाते हैं। इस विषय में पुरातत्त्वविद् पुरास्थल के नाम के आधार पर मालवा संस्कृति को 'नवदाटोली ताम्र पाषाणिक संस्कृति' की संज्ञा भी प्रदान करते हैं, जो सर्वथा उचित प्रतीत होती है। नवदाटोली पुरास्थल मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी के दक्षिणी तट पर स्थित है। इस पुरास्थल का उत्खनन सन् 1952-54 तथा 1957-59 ई० में कराया गया था। उत्खनन कार्य दकन कालेज पुणे और एम एस० विश्वविद्यालय, बड़ौदा के संयुक्त तत्वावधान में हुआ। जिसका नेतृत्व एच.डी.सांकलिया ने किया। उत्खनन के फलस्वरूप पाँच सांस्कृतिक-काल प्रकाश में आये, जिनमें ताम्र पाषाणकालीन संस्कृतियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
उपकरण एवं अन्य पुरावशेष
मालवा संस्कृति के लोग यद्यपि ताँबे से परिचित थे, किन्तु ताँबे का उपयोग सीमित दिखायी पड़ता है। ताम्र निर्मित पुरानिधियों में चपटी कुल्हाड़ियाँ, छेनी, मछली के कांटे, चूड़ियाँ अंगठियाँ आदि उल्लेखनीय हैं । मनकों का निर्माण गोमेद, अकीक जैसे रत्नों और मिट्टी से किया गया है। नवदाटोली के उत्खनन में प्रत्येक घर से लघु पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं। पुरातत्वविदों का मत है कि संभवत: नवदाटोली के लोग अपनी आवश्यकतानुसार पाषाण उपकरणों का निर्माण घर में ही करते थे।
आवास:- मालवा संस्कृति के इस पुरास्थल से भवन निर्माण के जो साक्ष्य मिले हैं उनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि लोग बांस-बल्ली और घास-फूस की झोपड़ियाँ बनाते थे। दीवार बाँस के पर्दो (घरों) से बनायी जाती थी जिनके दोनों ओर मिट्टी का लेप किया जाता था। मकानों का आकार चौकोर और वृत्ताकार होता था।
वृत्ताकार घरों का व्यास तीन फुट से पन्द्रह फुट तक होता था। विद्वानों की धारणा है कि छोटे वृत्ताकार घरों का उपयोग सम्भवतः अनाज रखने के लिए होता था। मकानों की फर्श मिट्टी और गोबर से बनायी जाती थी बस्तियों में मकान आस-पास बनते थे किन्तु मकानों के बीच में रास्ता होता था। मकान की सफाई के लिए चूने का प्रयोग किया जाता था। नवदाटोली पुरास्थल से कच्ची अथवा पकी ईंटों के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं। मकानों के अन्दर से सिल-लोढ़े, मृद्भाण्ड और चूल्हें मिले हैं उल्लेखनीय है कि मालवा संस्कृति से सम्बन्धित जो पुरास्थल महाराष्ट्र (इनामगाँव और दायमाबाद) में है उनके भवन निर्माण की विधियाँ नवदाटोली से भिन्न है। महाराष्ट्र के दोनों पुरास्थलों से मिट्टी की दीवालों से बने मकान मिले हैं। इन पुरास्थलों से गर्त-आवास भी मिले हैं यहाँ के मकान आयताकार हैं।
उल्लेखनीय है कि मालवा संस्कृति के इनाम गाँव पुरास्थल से 32 मकानों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनमें 28 आयताकार हैं। मकानों के कोने गोलाई लिए हुए होते थे। मकानों की दीवालों पर प्राप्त स्तम्भ-गर्त (गट्टे) से अनुमान लगाया जाता है कि बाँस या बल्ली को रखकर पहाड़ियों का निर्माण होता था मकानों की छतें ढलवाँ होती थीं । इनामगाँव के मकानों में आँगन के साक्ष्य भी मिले हैं । मकानों के अन्दर और बाहर गोलाकार चूल्हे मिले हैं । इनामगाँव के गर्तयुक्त मकान में सीढ़ियों के साक्ष्य मिले हैं। इसी प्रकार दायमाबाद से भी 28 मकानों के अवशेष मिले हैं, जिनका प्रयोग आवास, व्यवसाय और धर्म आदि के लिए किया जाता था। मालवा संस्कृति के एरण और नागदा पुरास्थलों से बस्तियों के किलेबन्दी के साक्ष्य मिले हैं। इसी तरह इनामगाँव (जोर्वे युग) में भी पत्थर के छोटे टुकड़ों और मिट्टी से किलेबन्दी के प्रमाण मिले हैं।
औजार:- औजार बनाने के लिए तांबे और पत्थर का इस्तेमाल किया जाता था। अर्ध-कीमती
पत्थरों के मोती पाए गए हैं। समुद्र के किनारे से बनी
वस्तुएं गुजरात में तटीय
समुदायों के साथ व्यापार का संकेत देती हैं, जैसे भरूच। धर्म के साक्ष्य में बैल की मूर्तियाँ, वृक्षों की पूजा, साँप, और देवियाँ, और अग्नि के बलिदान के लिए वेदी शामिल हैं। मालवा संस्कृति के स्थलों में दैमाबाद,
इनामगाँव, कायथा, नागदा, विदिशा, एरण, मंदसौर, और नवदतोली (महेश्वर के पास) शामिल हैं।
मृद्भाण्ड:- उनके मिट्टी के बर्तन लाल या नारंगी थे, और ज्यामितीय, पुष्प, जानवर और काले रंग में मानव डिजाइन के साथ चित्रित किए गए थे। नवदाटोली के उत्खनन से मालवा संस्कृति के मृद्भाण्डों के चार प्रकार मिले हैं। इन पात्र प्रकारों में लाल रंग पर काले रंग से चित्रित पात्र प्रकार मुख्य हैं। पुरातत्वविद् इस पात्र परम्परा को 'मालवा मृदभाण्ड परम्परा' को संज्ञा देते हैं।
1.
इन पात्रों पर प्रकृति के चित्रों और ज्यामितीय रेखाओं से चित्रण किया गया है। मालवा परम्परा के पात्र नवदाटोली के सभी सांस्कृतिक कालों से मिले हैं। इस परम्परा के प्रमुख पात्र प्रकारों में साधार तश्तरियाँ, तसले, लोटे, थालियां, पेंदी युक्त कटोरे हैं।
2. नवदाटोली की दूसरी पात्र परम्परा काले-लाल पात्रों पर सफेद रंग को चित्रकारी से युक्त है। इस पात्र परम्परा के प्रमुख पात्रों में थालियाँ, कटोरे, कुल्हड़, करई प्रमुख हैं। इन पात्रों को भी ज्यामितीय रेखाओं से अलंकृत किया गया है। इस पात्र परम्परा का प्रचलन द्वितीय सांस्कृतिक चरण तक ही सीमित दिखाई पड़ता है।
3.
मालवा संस्कृति की तीसरी पात्र परम्परा दूधिया स्लिप वाली है। इनका अलंकरण रेखाओं और विभिन्न पशुओं हिरण, बकरे और नाचते हुए सामूहिक मानव के चित्रों से किया गया है इस पात्र परम्परा के प्रमुख पात्रों में आधारयुक्त कटोरे, तश्तरियाँ आदि उल्लेखनीय है ।
4.
मालवा संस्कृति की चौथी पात्र परम्परा का सम्बन्ध जोवें पात्र परम्परा से माना जाता है। इन पात्रों को लाल रंग से प्रलेपित किया गया है। इनके अलंकरण के लिए ज्यामितीय रेखाओं का प्रयोग मिलता है। इनके पात्र प्रकारों में टोंटीदार बर्तन, लम्बे गर्दन वाले घडे, कटोरे आदि हैं।
अर्थव्यवस्था:- नवदाटोली पुरास्थल से प्राप्त पुरावशेषों से लोगों के रहन-सहन और आर्थिक व्यवस्था पर भी प्रकाश पड़ता है। अर्थव्यवस्था कृषि तथा पशुपालन पर आधारित थी। विभिन्न प्रकार के अनाजों; जैसे-गेहूँ, जौ, चना, धान, मूंग, उड़द आदि की खेती की जाती थी। कृषि के साथ पशुपालन भी किया जाता था। पालतू पशुओं में गाय बैल भैस भेड़-बकरी आदि प्रमुख है। उत्खनन स्थल से वन्य जीवों की अस्थियाँ भी प्राप्त हुई हैं। सम्भवतः इनका शिकार किया जाता था। कृषि और पशुपालन के अलावा उद्योग-धन्धों के विकास के साक्ष्य उपलब्ध हैं। दायमाबाद के विभिन्न मकान व्यवसायगत उद्देश्य के लिए निर्मित किये गये प्रतीत होते हैं। पुरातत्वविदों की धारणा है कि दायमाबाद के कार्यसूचक मकानों में विभिन्न उद्योग-धन्धों के कारखाने रहे होंगे, जो संस्कृति के अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग थे।
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