उत्तर वैदिक काल में कुछ जनपदों का उल्लेख मिलता है। बौद्ध ग्रंथों में भी इनका उल्लेख कई बार हुआ है। महाजनपद काल को कई अन्य नामों से भी
जाना जाता है जैसे – सूत्रकाल या
बुद्ध काल । द्वितीयनगरीकरण की शुरुआत। महाजनपद काल को
जानने के लिए पुरातात्विक तथा साहित्यिक दोनों ही
स्रोतों का महत्वपूर्ण स्थान है-
NBPW (उत्तरी काले पॉलिसदार मृदभांड)

500 ई.पू. के लगभग पुराने सिक्के जो दूसरी शता. ई.पू. तक के प्राप्त हुये हैं। भारत में प्रचलित प्राचीन मुद्रा तथा मुद्रा प्रणाली की शुरुआत हुई। प्रारंभ में चांदी के आहत सिक्के सर्वाधिक थे, ताँबे , काँसे के सिक्के भी प्राप्त हुये हैं। आहत सिक्के धातु के टुकङे पर चिन्ह विशेष ठप्पा मारकर (पीटकर) बनाए जाते थे। आहत सिक्कों पर चिन्हों के अवशेष भी मिलते हैं जैसे – मछली, पेङ, मोर, यज्ञ वेदी, हाथी, शंख, बैल, ज्यामीतीय चित्र (वृत्त, चतुर्भुज, त्रिकोण ), खरगोश।
इन सिक्कों का कोई नियमित आकार नहीं था। ये राजाओं द्वारा जारी नहीं किए गए माने जाते हैं , बल्कि व्यापारिक समूहों से संबंधित माने गए हैं। अधिकांश आहत सिक्के पूर्वी यू.पी.(इलाहाबाद, शाहपुरा) तथा बिहार(मगध) से मिले हैं।
खारवेल का हाथी गुंफा अभिलेख – (1 शता. ई.पू.)
I.देशी साहित्य –
·
बौद्ध धर्म – सुत्तपिटक, विनयपिटक, अंगुतर निकाय, महावस्तु।
· जैन धर्म –भगवती सूत्र, कल्प सूत्र, औषाइयान, औपपाधिक सूत्र, आगम, आवश्यक चूर्णी।
·
ब्राह्मण – वेदांग(शिक्षा, व्याकरण, ज्योतिष,
निरुक्त, कल्प, छंद,
), पुराण।
II.विदेशी साहित्य –
·
हेरोडोटस की हिस्टोरिका
·
हिकेटियस की ज्योग्रोफी
·
नियार्कस का विवरण
·
अनासीक्रीटीस का विवरण – सिकंदर की जीवनी
·
केसियस का विवरण
सोलह महाजनपद-
1.कुरु |
मेरठ और थानेश्वर; राजधानी इन्द्रप्रस्थ। |
|
बरेली, बदायूं और फ़र्रुख़ाबाद; राजधानी
अहिच्छत्र तथा कांपिल्य। |
|
मथुरा के आसपास का
क्षेत्र; राजधानी मथुरा। |
|
इलाहाबाद और उसके
आसपास; राजधानी कौशांबी। |
|
अवध; राजधानी साकेत और श्रावस्ती। |
|
ज़िला देवरिया; राजधानी कुशीनगर और पावा (आधुनिक पडरौना) |
|
वाराणसी; राजधानी वाराणसी। |
|
भागलपुर; राजधानी चंपा। |
|
दक्षिण बिहार, राजधानी गिरिव्रज (आधुनिक राजगृह)। |
|
ज़िला दरभंगा और
मुजफ्फरपुर; राजधानी
मिथिला, जनकपुरी और वैशाली। |
|
बुंदेलखंड; राजधानी शुक्तिमती (वर्तमान बांदा के पास)। |
|
जयपुर; राजधानी विराट नगर। |
|
– गोदावरी घाटी; राजधानी पांडन्य। |
|
मालवा; राजधानी उज्जयिनी। |
|
- पाकिस्तान स्थित
पश्चिमोत्तर क्षेत्र; राजधानी
तक्षशिला। |
|
कदाचित आधुनिक
अफ़ग़ानिस्तान; राजधानी
राजापुर। |
1.
अवन्ति महाजनपद
भौगोलिक विस्तार - प्राचीन काल में यहाँ हैहयवंश का शासन था। अवंती, पौराणिक 16 महाजनपदों में से एक था। प्राचीन अवंती वर्तमान उज्जैन के स्थान पर ही बसी थी, यह तथ्य इस बात से सिद्ध होता है कि क्षिप्रा नदी जो आजकल भी उज्जैन के निकट बहती है, प्राचीन साहित्य में भी अवंती के निकट ही वर्णित है। उज्जैन से एक मील उत्तर की ओर भैरोगढ़ में दूसरी-तीसरी शती ई. पू. की उज्जयिनी के खंडहर पाए गए हैं। यहाँ वेश्या-टेकरी और कुम्हार-टेकरी नाम के टीले हैं जिनका सम्बन्ध प्राचीन किंवदंतियों से है। आधुनिक मालवा ही प्राचीन काल की अवन्ति है। इसके दो भाग थे― उत्तरी अवन्ति और दक्षिणी अवन्ति। उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी और दक्षिणी अवन्ति की राजधानी माहिष्मति थी। आधुनिक मालवा का प्रदेश जिसकी राजधानी उज्जयिनी और महिष्मति थी।
साहित्यिक स्त्रोत- प्राचीन संस्कृत तथा पाली साहित्य में अवंती या उज्जयिनी का सैंकड़ों बार उल्लेख हुआ है। महाभारत में सहदेव द्वारा अवंती को विजित करने का वर्णन है। बौद्ध काल में अवंती उत्तरभारत
के शोडश
महाजनपदों में से थी जिनकी सूची अंगुत्तरनिकाय में हैं। जैन
ग्रंथ भगवती सूत्र में इसी जनपद को मालव कहा गया है। इस जनपद में
स्थूल रूप से वर्तमान मालवा, निमाड़ और मध्य प्रदेश का
बीच का भाग सम्मिलित था। पुराणों के अनुसार अवंती की स्थापना यदुवंशी
क्षत्रियों द्वारा की गई थी। बुद्ध के समय अवंती का राजा चंडप्रद्योत था। इसकी पुत्री वासवदत्ता से
वत्सनरेश उदयन ने विवाह किया था जिसका उल्लेख भास रचित 'स्वप्नवासवदत्ता' नामक नाटक में है। वासवदत्ता को अवन्ती से सम्बंधित मानते हुए एक स्थान पर इस नाटक में कहा गया
है-'हम! अतिसद्दशी खल्वियमार्याय अवंतिकाया: चतुर्थ शती
ई. पू. में अवन्ती का जनपद मौर्य-साम्राज्य में सम्मिलित था और उज्जयिनी
मगध-साम्राज्य के पश्चिम प्रांत की राजधानी थी। इससे पूर्व मगध और अवन्ती
का संघर्ष पर्याप्त समय तक चलता रहा था जिसकी सूचना हमें परिशिष्टपर्वन से
मिलती है। 'कथासरित्सागर' से यह ज्ञात होता है कि अवन्तीराज चंडप्रद्योत के पुत्र पालक ने कौशाम्बी को अपने राज्य में मिला लिया था। विष्णु
पुराण से विदित होता है कि संभवत: गुप्त काल से पूर्व अवन्ती पर आभीर इत्यादि शूद्रों या विजातियों का
आधिपत्य था-'सौराष्ट्रावन्ति…विषयांश्च--आभीर शूद्राद्या
भोक्ष्यन्ते'। ऐतिहासिक परम्परा से हमें यह भी विदित होता है कि प्रथम शती ई. पू. में (57 ई. पू. के लगभग) विक्रम संवत के संस्थापक किसी
अज्ञात राजा ने शकों को हराकर उज्जयिनी को अपनी राजधानी बनाया था। गुप्त काल में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने
अवंती को पुन: विजय किया और वहाँ से विदेशी सत्ता को उखाड़ फैंका। कुछ विद्वानों
के मत में 57 ई. पू. में विक्रमादित्य नाम का कोई राजा नहीं था और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही अवंती-विजय
के पश्चात् मालव संवत को जो 57 ई. पू. में प्रारम्भ हुआ था, विक्रम
संवत का नाम दे दिया।
ह्यूनत्सांग का वर्णन- चीनी यात्री ह्यूनत्सांग/युवानच्वांग के यात्रावृत से ज्ञात होता है कि अवन्ती या उज्जयिनी का राज्य उस
समय (615-630 ई.) मालव राज्य से अलग था और वहाँ एक स्वतन्त्र राजा का शासन था। कहा
जाता है शंकराचार्य के समकालीन अवन्ती-नरेश सुधन्वा
ने जैन धर्म का उत्कर्ष सूचित करने के लिए प्राचीन अवन्तिका का नाम उज्जयिनी (विजयकारिणी) कर दिया था किन्तु यह केवल
कपोल कल्पना मात्र है क्योंकि गुप्तकालीन कालिदास ('वक्र: पंथा यदपि भवत:
प्रस्थिस्योत्तराशां, सौधोत्संगप्रणयविमुखोमास्म
भूरुज्जयिन्या:' ) को भी उज्जयिनी नाम ज्ञात था।
इसके साथ ही कवि ने अवन्ती का भी उल्लेख किया है-'प्राप्यावन्तीमुदयनकथाकोविदग्रामवृद्धान्' इससे संभवत: यह जान पड़ता है कि कालिदास के समय में अवन्ती उस जनपद का नाम था, जिसकी
मुख्य नगरी उज्जयिनी थी। 9 वीं व 10 वीं शतियों में उज्जयिनी में परमार
राजाओं का शासन रहा। तत्पश्चात् उन्होंने धारा नगरी में अपनी राजधानी बनाई। मध्यकाल में इस नगरी
को मुख्यत: उज्जैन ही
कहा जाता था और इसका मालवा के सूबे के एक मुख्य स्थान के रूप में वर्णन मिलता है।
जैन ग्रन्थ विविधतीर्थ कल्प में मालवा प्रदेश का ही नाम अवंति या अवंती है। राजा शंबर के पुत्र अभिनंदन देव का चैत्य अवन्ति के मेद नामक ग्राम में स्थित था। इस चैत्य को मुसलमान सेना ने नष्ट कर दिया था किन्तु इस ग्रन्थ के अनुसार वैज नामक व्यापारी की तपस्या से खण्डित मूर्ति
फिर से जुड़ गई थी।
अवन्ती के स्मारक -
उज्जयिनी के वर्तमान स्मारकों में मुख्य, महाकाल का मन्दिर क्षिप्रा नदी के तट पर भूमि के नीचे बना है। इसका निर्माण प्राचीन मन्दिर के
स्थान पर रणोजी सिंधिया के मन्त्री रामचन्द्र बाबा ने 19 वीं शती के उत्तरार्ध में करवाया था। महाकाल की शिव के द्वादश ज्योतिर्लिगों में गणना की जाती है। इसी कारण इस नगरी को शिवपुरी भी कहा गया है। हरसिद्धि का मन्दिर कहा जाता है, उसी प्राचीन मन्दिर का प्रतिरूप है जहाँ विक्रमादित्य इस देवी की पूजा किया करते
थे। राजा भतृहरि की गुफ़ा संभवत: 11 वीं शती का अवशेष है। चौबीस खम्भा दरवाज़ा शायद प्राचीन महाकाल मन्दिर के प्रांगण का मुख्य द्वार था। कालीदह-महल
1500 ई. में
बना था। यहाँ की प्रसिद्ध वेधशाला जयपुर-नरेश जयसिंह द्वितीय ने 1733 ई. में बनवाई थी। वेधशाला का जीर्णोद्धार 1925 ई. में किया गया था।
2. अश्मक या अस्सक महाजनपद
भौगोलिक विस्तार - अश्मक अथवा अस्सक महाजनपद पौराणिक 16 महाजनपदों
में से एक था। दक्षिण भारत का एकमात्र महाजनपद। नर्मदा और गोदावरी नदियों के बीच
अवस्थित इस प्रदेश की राजधानी 'पाटन' थी। इस राज्य
के राजा इक्ष्वाकुवंश के थे। इसका अवन्ति के साथ
निरंतर संघर्ष चलता रहता था। धीरे-धीरे यह राज्य अवन्ति के अधीन हो गया। आधुनिक काल में इस प्रदेश को महाराष्ट्र कहते हैं। बौद्ध साहित्य में इस प्रदेश का उल्लेख मिलता है, जो गोदावरी के तट पर स्थित था।
साहित्यिक स्त्रोत - महागोविन्दसूत्तन्त' के अनुसार यह प्रदेश रेणु और धृतराष्ट्र के समय में विद्यमान था। इस ग्रन्थ में अस्सक के राजा ब्रह्मदत्त का उल्लेख है। सुत्तनिपात में अस्सक को गोदावरी तट पर स्थित बताया गया है। इसकी राजधानी पोतन, पौदन्य या पैठान में थी। पाणिनि ने अष्टाध्यायी में भी अश्मकों का उल्लेख किया है।
अश्मक को उत्तर-पश्चिमी भारत का मानने वाले तथ्य- सोननंदजातक में अस्सक को अवंती से सम्बंधित कहा गया है। अश्मक नामक राजा का उल्लेख वायु पुराण और महाभारत में है--'अश्मकों नाम राजर्षि: पौदन्यं योन्यवेशयत्'। सम्भवत: इसी राजा के नाम से यह जनपद अश्मक कहलाया। ग्रीक लेखकों ने अस्सकेनोई लोगों का उत्तर-पश्चिमी भारत में उल्लेख किया है। इनका दक्षिणी अश्वकों से ऐतिहासिक सम्बन्ध रहा होगा या यह अश्वकों का रूपान्तर हो सकता है। कूर्मपुराण तथा बृहत्संहिता में अश्मक उत्तर भारत का अंग माना गया है। इन ग्रंथों के अनुसार पंजाब के समीप अश्मक प्रदेश की स्थिति थी।
अश्मक को दक्षिण भारत का मानने
वाले तथ्य- राजशेखर ने अपनी 'काव्य-मीमांसा' में इसकी स्थिति दक्षिण भारत के प्रदेशों में मानी है। राजशेखर के अनुसार माहिष्मती से आगे दक्षिण की ओर 'दक्षिणापथ' का आरम्भ होता है, जिसमें महाराष्ट्र, विदर्भ,
कुंतल, क्रथैशिक, सूर्पारक,
कांची, केरल, चोल,
पांड्य, कोंकण आदि जनपदों का समावेश बतलाया गया है। राजशेखर अश्मक जनपद को इसी दक्षिणापथ का अंग मानते हैं। ब्रह्मांडपुराण में यही स्थिति
अंगीकृत की गई है। दश-कुमारचरित' में दंडी ने, 'हर्षचरित' में बाणभट्ट ने तथा 'अर्थशास्त्र' की टीका में भट्टस्वामी ने भी इसे महाराष्ट्र प्रान्त के अंतर्गत माना है। दशकुमार चरित' के अष्टम उच्छ्वास के अनुसार अश्मक के राजा ने कुंतल, कोंकण, वनवासि, मुरल,
ऋचिक तथा नासिक के राजाओं को विदर्भ नरेश से युद्ध करने के लिए भड़काया, जिससे उन लोगों ने विदर्भ नरेश पर एक साथ ही आक्रमण कर दिया।
इससे स्पष्ट है कि अश्मक महाराष्ट्र का ही कोई अंग या समग्र महाराष्ट्र का सूचक थाI
3. अंग महाजनपद
भौगोलिक विस्तार - अंग देश का सर्वप्रथम नामोल्लेख अथर्ववेद (5.22.14) में है 'गंधारिभ्यं मूजवद्भयोङ्गेभ्यो मगधेभ्य: प्रैष्यन् जनमिव शेवधिं तवमानं परिदद्मसि।' यह मगध के पूरब था। वर्तमान के बिहार के मुंगेर और भागलपुर जिले। इनकी राजधानी चंपा थी। चंपा उस समय भारतवर्ष के सबसे प्रशिद्ध नगरियों में से थी। आज भी भागलपुर के एक मुहल्ले का नाम चंपानगर है। राजा दशरथ के मित्र लोमपाद और महाभारत के अंगराज कर्ण ने वहाँ राज किया था।
साहित्यिक स्त्रोत - इसका प्राचीन नाम मालिनी था। बौद्ध ग्रंथ 'अंगुत्तरनिकाय' में भारत के बुद्ध पूर्व सोलह जनपदों में अंग की गणना हुई है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। बौद्ध ग्रंथो में अंग और वंग को प्रथम आर्यों की संज्ञा दी गई है। महाभारत के साक्ष्यों के अनुसार आधुनिक भागलपुर, मुंगेर और उससे सटे बिहार और बंगाल के क्षेत्र अंग प्रदेश के
क्षेत्र थे। प्रारंभ में इस जनपद के राजाओं ने ब्रह्मदत्त
के सहयोग से मगध के कुछ राजाओं को पराजित भी किया था किंतु कालांतर
में इनकी शक्ति क्षीण हो गई और इन्हें मगध से पराजित होना पड़ा। महाभारत काल में यह कर्ण का राज्य था। इसके प्रमुख नगर चम्पा (बंदरगाह), अश्वपुर थे। अथर्ववेद के रचनाकाल (अथवा उत्तर वैदिक काल) तक अंग, मगध की भांति ही, आर्य-सभ्यता के प्रसार के बाहर था, जिसकी सीमा तब तक पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक ही थी। महाभारतकाल में अंग और मगध एक ही राज्य के दो भाग थे। शांति
पर्व 29,35 (अंगं बृहद्रथं चैव मृतं सृंजय शुश्रुम') में मगधराज जरासंध के पिता बृहद्रथ को ही अंग का शासक बताया गया है। शांति
पर्व 5,6-7 ('प्रीत्या ददौ स कर्णाय मालिनीं नगरमथ, अंगेषु
नरशार्दूल स राजासीत् सपत्नजित्। पालयामास चंपां च कर्ण: परबलार्दन:, दुर्योधनस्यानुमते तवापि विदितं तथा') से स्पष्ट है कि जरासंध ने कर्ण को अंगस्थित मालिनी या चंपापुरी देकर वहां का
राजा मान लिया था। तत्पश्चात् दुर्योधन ने कर्ण को अंगराज घोषित कर दिया था। विष्णु पुराण (4.18) में अंगवंशीय राजाओं का उल्लेख है। कथासरित्सागर
44, 9 से सूचित होता है कि ग्यारहवीं शती ई. में अंगदेश का विस्तार समुद्रतट (बंगाल की खाड़ी) तक था क्योंकि अंग का एक नगर
विटंकपुर समुद्र के किनारे ही बसा था। जातक-कथाओं तथा बौद्धसाहित्य के अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि गौतमबुद्ध से पूर्व, अंग की गणना उत्तरभारत के षोडश जनपदों में थी। अंगनगर या चंपा का उल्लेख बुद्धचरित (27.11) में भी है। पूर्वबुद्धकाल में अंग तथा मगध में राज्यसत्ता के लिए सदा शत्रुता रही। जैनसूत्र- उपासकदशा में अंग तथा
उसके पड़ोसी देशों की मगध के साथ होने वाली शत्रुता का आभास मिलता है। प्रज्ञापणा-सूत्र में अन्य जनपदों
के साथ अंग का भी उल्लेख है तथा अंग और बंग को आर्यजनों का महत्त्वपूर्ण स्थान बताया गया है। अपने ऐश्वर्यकाल
में अंग के राजाओं का मगध पर भी अधिकार था जैसा कि विधुरपंडितजातक (कावेल-6.133) के
उस उल्लेख से प्रकट होता है जिसमें मगध की राजधानी राजगृह को अंगदेश का ही एक नगर बताया गया है।
किंतु इस स्थिति का विपर्यय होने में अधिक समय न लगा और मगध के राजकुमार बिंबिसार ने अंगराज ब्रह्मदत्त को मारकर उसका
राज्य मगध में मिला लिया। बिंबिसार अपने पिता की मृत्यु तक अंग का शासक भी रहा था। कालिदास ने रघुवंश (6.27) में अंगराज का उल्लेख इंदुमती-स्वयंवर के प्रसंग में मगध-नरेश के ठीक पश्चात् किया है जिससे प्रतीत होता है कि अंग की प्रतिष्ठा
पूर्वगुप्तकाल में मगध से कुछ ही कम रही होगी। रघुवंश.
(6.27) में ही अंगराज्य के प्रशिक्षित हाथियों का मनोहर वर्णन है-'जगाद चैनामयमंगनाथ: सुरांगनाप्रार्थित यौवनश्री: विनीतनाग:
किलसूत्रकारैरेन्द्रं पदं भूमिगतोऽपि भुंक्ते'।
4. कम्बोज महाजनपद
विस्तार - गांधार-कश्मीर के उत्तर आधुनिक पामीर का पठार था, उसके पश्चिम बदख्शाँ-प्रदेश कंबोज महाजनपद कहलाता था। हाटक या राजापुर इस राज्य की राजधानी थी। यह भारत से बाहर स्थापित है आधुनिक अफगानिस्तान; राजधानी राजापुर। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार कंबोज जनपद सम्राट अशोक महान का सीमावर्ती प्रांत था। कंबोज देश का विस्तार कश्मीर से हिन्दूकुश तक था। इसके दो प्रमुख नगर थे राजपुर और नंदीपुर। राजपुर को आजकल राजौरी कहा जाता है। पाकिस्तान का हजारा जिला भी कंबोज के अंतर्गत ही था। कंबोज के पास ही गांधार जनपद था। कंबोज उत्तरापथ के गांधार के निकट स्थित था जिसकी ठीक-ठाक स्थिति दक्षिण-पश्चिम के पुंछ के इलाके के अंतर्गत मानी जा सकती है। आधुनिक मान्यता के अनुसार कश्मीर के राजौरी से तजाकिस्तान तक का हिस्सा कंबोज था जिसमें आज का पामीर का पठार और बदख्शां भी हैं। बदख्शां अफगानिस्तान में हिन्दूकुश पर्वत का निकटवर्ती प्रदेश है और पामीर का पठार हिन्दूकुश और हिमालय की पहाड़ियों के बीच का स्थान है।
कनिंघम
ने अपने सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'एंशेंट जियोग्राफी ऑव इंडिया' में राजपुर का अभिज्ञान दक्षिण-पश्चिम
कश्मीर के राजौरी नामक नगर (जिला पुंछ, कश्मीर) के साथ किया
है। यहां नंदीनगर नामक एक और प्रसिद्ध
नगर था। सिकंदर के आक्रमण के समय
कंबोज प्रदेश की सीमा के अंतर्गत उरशा (पाकिस्तानी जिला हजारा) और अभिसार (कश्मीर का जिला
पुंछ) नामक छोटे-छोटे
राज्य बसे हुए थे। जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कंधार, बल्ख,
वाखान, बगराम, पामीर,
बदख्शां, पेशावर, स्वात,
चारसद्दा आदि हैं, उन्हें संस्कृत और प्राकृत-पालि साहित्य में क्रमश: कुंभा या कुहका, गंधार, बाल्हीक,
वोक्काण, कपिशा, मेरू,
कम्बोज, पुरुषपुर (पेशावर), सुवास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता था।
पुरातात्विक स्त्रोत - अशोक के पांचवें शिलालेख में कंबोज का गंधार के साथ उल्लेख है।
साहित्यिक स्त्रोत - रामायण के अनुसार कंबोज वाल्हीक और वनायु देश के पास स्थित है। रामायण ('कांबोज विषये जातैर्बाल्हीकैश्च हयोत्तमै: वनायुजैर्नदीजैश्च पूर्णाहरिहयोत्तमै: ) में कंबोज, वाल्हीक और वनायु देशों के श्रेष्ठ घोड़ों का अयोध्या में होना वर्णित है। महाभारत ('गृहीत्वा तु बलं सारं फाल्गुन: पांडुनन्दन: दरदान् सह काम्बोजैरजयत् पाकशासनि:') के अनुसार अर्जुन ने अपनी उत्तर दिशा की दिग्विजय-यात्रा के प्रसंग में दर्दरों या दर्दिस्तान के निवासियों के साथ ही कांबोजों को भी परास्त किया था। अंगुत्तरनिकाय मे कंबोज का गंधार के साथ उल्लेख है। महाभारत और राजतरंगिणी में कंबोज की स्थिति उत्तरापथ में बताई गई है। महाभारत ('कर्ण राजपुरं गत्वा काम्बोजानिर्जितास्त्वया')में कहा गया है कि कर्ण ने राजपुर पहुंचकर कांबोजों को जीता, जिससे राजपुर कंबोज का एक नगर सिद्ध होता है। ईशानपुर प्राचीन काम्बोज का एक नगर था। कालिदास ने रघुवंश ('काम्बोजा: समरे सोढुं तस्य वीर्यमनीश्वरा:, गजालान् परिक्लिष्टैरक्षोटै: सार्धमानता:' ) में रघु के द्वारा कांबोजों की पराजय का उल्लेख किया है। इस उद्धरण में कालिदास ने कंबोज देश में अखरोट वृक्षों का जो वर्णन किया है वह बहुत समीचीन है। इससे भी इस देश की स्थिति कश्मीर में सिद्ध होती हैं। युवानच्वांग ने भी राजपुर का उल्लेख किया है । वैदिक काल में कंबोज आर्य-संस्कृति का केंद्र था जैसा कि वंश-ब्राह्मण के उल्लेख से सूचित होता है, किंतु कालांतर में जब आर्यसभ्यता पूर्व की ओर बढ़ती गई तो कंबोज आर्य-संस्कृति से बाहर समझा जाने लगा। यास्क और भूरिदत्तजातक में कंबोजों के प्रति अवमान्यता के विचार प्रकट किए गए हैं। युवानच्वांग ने भी कांबोजों को असंस्कृत तथा हिंसात्मक प्रवृत्तियों वाला बताया है। कंबोज के राजपुर, नंदिनगर और राइसडेवीज़ के अनुसार द्वारका नामक नगरों का उल्लेख साहित्य में मिलता है। महाभारत में कंबोज के कई राजाओं का वर्णन है जिनमें सुदर्शन और चंद्रवर्मन मुख्य हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र में कंबोज के 'वार्ताशस्त्रोपजीवी' संघ का उल्लेख है जिससे ज्ञात होता है कि मौर्यकाल से पूर्व यहाँ गणराज्य स्थापित था। मौर्यकाल में चंद्रगुप्त के साम्राज्य में यह गणराज्य विलीन हो गया होगा।कर्निघम के अनुसार राजपुर कश्मीर में स्थित राजौरी है।
5. काशी महाजनपद
इसकी
राजधानी वाराणसी थी। जो वरुणा और असी नदियों की
संगम पर बसी थी। वर्तमान की वाराणसी व आसपास का क्षेत्र इसमें सम्मिलित रहा था।
जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता अश्वसेन काशी के राजा
थे। इसका कोशल राज्य के
साथ संघर्ष रहता था।
साहित्यिक स्त्रोत - गुत्तिल जातक के अनुसार काशी नगरी 12 योजन विस्तृत थी और भारत वर्ष की सर्वप्रधान नगरी थी इसकी राजधानी वाराणसी (बनारस) थी. काशी के कौसल, मगध और अंग राज्यों से सम्बन्ध अच्छे नहीं रहे और प्रायः उसे उनसे संघर्षरत रहना पड़ा, गौतम बुद्ध के समय में काशी राज्य का राजनैतिक पतन हो गया। हरिवंशपुराण में उल्लेख आया है कि ‘काशी’ को बसाने वाले पुरुरवा के वंशज राजा ‘काश’ थे। अत: उनके वंशज ‘काशि’ कहलाए।संभव है इसके आधार पर ही इस जनपद का नाम ‘काशी’ पड़ा हो। काशी नामकरण से संबद्ध एक पौराणिक मिथक भी उपलब्ध है। उल्लेख है कि विष्णु ने पार्वती के मुक्तामय कुंडल गिर जाने से इस क्षेत्र को मुक्त क्षेत्र की संज्ञा दी और इसकी अकथनीय परम ज्योति के कारण तीर्थ का नामकरण काशी किया।
वाराणसी के रूप में काशी का वर्णन
वाराणसी विश्व का प्राचीनतम बसा
हुआ शहर है। यह गंगा नदी के किनारे बसा है और हज़ारों साल से उत्तर भारत का
धार्मिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। दो नदियों वरुणा
और असि के मध्य बसा होने के कारण
इसका नाम वाराणसी पड़ा। बनारस या वाराणसी का नाम पुराणों, रामायण, महाभारत जैसे अनेकानेक
ग्रन्थों में मिलता है। शेरिंग, मरडाक, ग्रीब्ज और पारकर जैसे विद्वानों के मतानुसार प्राचीन
वाराणसी वर्तमान नगर के उत्तर में सारनाथ
के समीप स्थित थी। गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर को ही भगवान शिव ने
पृथ्वी पर अपना स्थायी निवास बनाया था। यह शहर प्रथम
ज्योर्तिलिंग का भी शहर है। पुराणों में
वाराणसी को ब्रह्मांड का केंद्र बताया गया है । हाल में अकथा के उत्खनन से इस बात की पुष्टि होती है
कि वाराणसी की प्राचीन स्थिति उत्तर में थी जहाँ से 1300 ईसा पूर्व के अवशेष प्रकाश में आये
हैं। पद्मपुराण' के एक उल्लेख के अनुसार दक्षिणोत्तर में ‘वरुणा' और पूर्व में ‘असि’ की
सीमा से घिरे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी
पड़ा। अथर्ववेद' में वरणावती नदी का उल्लेख है। संभवत: यह आधुनिक
वरुणा का ही समानार्थक है। अग्निपुराण' में नासी नदी का उल्लेख मिलता है।वाराणसी का
पुराना नाम काशी है। 'महाभारत' में 'काशी' का नाम 'वाराणसी'
भी मिलता है. 'समेतं
पार्थिवंक्षत्रं वाराणस्यां नदीसुतः, कन्यार्थमाह्वयद् वीरो
रथनैकेन संयुगे।' 'ततो वाराणसीं गत्वा अर्चयित्वा वृषभध्वजम्, कपिलाह्नदे
नरः स्नात्वा राजसूयमवाप्नुयात्।' जैन ग्रंथ 'प्रज्ञापणा
सूत्र' में
भी वाराणसी का उल्लेख है। 'विविधितीर्थकल्प' के अनुसार असी गंगा और वरुणा के तट पर स्थित होने के कारण यह नगरी 'वाराणसी' कहलाती थी। वाराणसी के संबंध में महाराजा
हरिश्चन्द्र की कथा, रूपांतरण के साथ इस जैन ग्रंथ में वर्णित है। 'दंतखात सरोवर' के निकट तीर्थंकर पार्श्वनाथ का
चैत्य स्थित था और उससे 6 मील की दूरी पर बोधिसत्व का मंदिर था।
6. कुरु महाजनपद
परिचय- आरम्भ में कुरुओं की राजधानी असनदिवन्त में थी जिसमे अन्तर्गत कुरुक्षेत्र (सरस्वती और दृषद्वती के बीच भूमि) सम्मिलित था। शीघ्र ही कुरुओं ने दिल्ली एवं उत्तरी दोआब पर अधिकार कर लिया। अब उनकी राजधानी हस्तिनापुर हो गयी। बलिहव प्रतिपीय, राजा परीक्षित, जनमेजय आदि इसी राजवंश के प्रमुख राजा थे। परीक्षित का नाम अथर्ववेद में मिलता है। जनमेजय के बारे में माना जाता है कि उसने सर्पसत्र एवं दो अश्वमेध यज्ञ कराया था। कुरु वंश का अन्तिम शासक निचक्षु था। वह हस्तिनापुर से राजधानी कौशाम्बी ले आया, क्योंकि हस्तिनापुर बाढ़ में नष्ट हो गया था।
विस्तार- आधुनिक हरियाणा तथा दिल्ली का यमुना नदी के पश्चिम वाला अंश शामिल था। इसकी राजधानी आधुनिक इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) थी। महाभारत काल के पूर्व दक्षिण कुरुओं का राज्य हिन्दुकुश के आगे से कश्मीर तक था। बाद में पांचालों पर आक्रमण करके उन्होंने अपना क्षेत्र विस्तार किया। महाभारत काल में कुरुओं का क्षेत्र था मेरठ और थानेश्वर के आसपास था क्षेत्र और राजधानी थी पहले हस्तिनापुर और बाद में इन्द्रप्रस्थ । बौद्ध कल में यह संपूर्ण क्षेत्र कुषाणों के अधीन हो चला था। मुख्य कुरु जनपद हस्तिनापुर (ज़िला मेरठ, उ.प्र.) के निकट था। कुरुक्षेत्र की सीमा तैत्तरीय आरण्यक में इस प्रकार है- इसके दक्षिण में खांडव, उत्तर में तूर्ध्न और पश्चिम में परिणाह स्थित था। संभव है ये सब विभिन्न वनों के नाम थे। कुरु जनपद में वर्तमान थानेसर, दिल्ली और उत्तरी गंगा द्वाबा (मेरठ-बिजनौर ज़िलों के भाग) शामिल थे। पपंचसूदनी नामक ग्रंथ में वर्णित अनुश्रुति के अनुसार इलावंशीय कौरव, मूल रूप से हिमालय के उत्तर में स्थित प्रदेश (या उत्तरकुरु) के रहने वाले थें । कालांतर में उनके भारत में आकर बस जाने के कारण उनका नया निवासस्थान भी कुरु देश ही कहलाने लगा।
साहित्यिक स्त्रोत- जैनों के उत्तराध्ययनसूत्र में यहाँ के इक्ष्वाकु नामक राजा का उल्लेख मिलता है। जातक कथाओं में सुतसोम, कौरव और धनंजय यहाँ के राजा माने गए हैं। कुरुधम्मजातक के अनुसार, यहाँ के लोग अपने सीधे-सच्चे मनुष्योचित बर्ताव के लिए अग्रणी माने जाते थे और दूसरे राष्ट्रों के लोग उनसे धर्म सीखने आते थे। महाभारत में भारतीय कुरु-जनपदों को दक्षिण कुरु कहा गया है और उत्तर-कुरुओं के साथ ही उनका उल्लेख भी है। अंगुत्तर-निकाय में 'सोलह महाजनपदों की सूची में कुरु का भी नाम है जिससे इस जनपद की महत्ता का काल बुद्ध तथा उसके पूर्ववर्ती समय तक प्रमाणित होता है। महासुत-सोम-जातक के अनुसार कुरु जनपद का विस्तार तीन सौ कोस था। जातकों में कुरु की राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बताई गई है।
हत्थिनापुर या
हस्तिनापुर का उल्लेख भी जातकों में है। ऐसा जान पड़ता है कि इस काल के पश्चात् और मगध की
बढ़ती हुई शक्ति के फलस्वरूप जिसका पूर्ण विकास मौर्य साम्राज्य की स्थापना के साथ
हुआ, कुरु, जिसकी
राजधानी हस्तिनापुर राजा निचक्षु के समय में गंगा में बह गई थी और जिसे छोड़ कर इस राजा ने वत्स जनपद में जाकर अपनी राजधानी कौशांबी में बनाई थी, धीरे-धीरे विस्मृति के गर्त में विलीन
हो गया। इस तथ्य का ज्ञान हमें जैन उत्तराध्यायन
सूत्र से होता है जिससे बुद्धकाल में
कुरुप्रदेश में कई छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व ज्ञात होता है।
7. कोशल महाजनपद
उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिला, गोंडा और बहराइच के क्षेत्र
शामिल थे। इसकी प्रथम राजधानी अयोध्या थी।
द्वितीय राजधानी श्रावस्ती थी।
कोशल के एक राजा कंश को पालिग्रंथों में 'बारानसिग्गहो' कहा
गया है। उसी ने काशी को जीत कर कोशल में मिला लिया था। कोशल देश के राजा प्रसेनजित थे। उत्तरी भारत का
प्रसिद्ध जनपद जिसकी राजधानी विश्वविश्रुत नगरी अयोध्या थी। उत्तर प्रदेश के
फैजाबाद ज़िला, गोंडा और बहराइच के
क्षेत्र शामिल थे। रामायण
(कोसलो नाम मुदित: स्फीतो जनपदो महान। निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत
धनधान्यवान् ॥) में इसका उल्लेख है।
पुरातात्विक स्त्रोत - गुप्तसम्राट समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में ‘कोसलक महेंद्र’ या कोसल (दक्षिण कोसल) के महेन्द्र का उल्लेख है जिस पर समुद्रगुप्त ने विजय प्राप्त की थी।
कुछ विदेशी विद्वानों (सिलवेन लेवी, जीन
प्रेज्रीलुस्की) के मत में कोसल आस्ट्रिक भाषा
का शब्द है। आस्ट्रिक लोग भारत में द्रविड़ों से भी पूर्व आकर बसे थे ।
ऋग्वेद में वर्णन- यह जनपद सरयू (गंगा नदी की सहायक नदी) के तटवर्ती प्रदेश में बसा हुआ था। सरयू के
किनारे बसी हुई जिस बस्ती का उल्लेख ऋग्वेद है, हो सकता है की यही बस्ती आगे चलकर अयोध्या के रूप में विकसित हो गयी।
इस उद्धरण में चित्ररथ को इस बस्ती का प्रमुख बताया गया है। शायद इसी व्यक्ति का उल्लेख रामायण में
भी है।
रामायण काल- रामायण में कोसल
राज्य की दक्षिणी सीमा पर वेदश्रुति नदी बहती थी। श्री रामचंद्रजी ने अयोध्या से वन के लिए
जाते समय गोमती नदी को पार करने के पहले ही कोसल की सीमा को पार कर लिया था। वेदश्रुति तथा गोमती पार करने का
उल्लेख अयोध्याकाण्ड में है और तत्पश्चात् स्यंदिका या सई नदी को पार
करने के पश्चात राम ने पीछे छूटे हुए अनेक जनपदों वाले तथा मनु द्वारा इक्ष्वाकु को दिए गए समृद्धिशाली (कोसल) राज्य की
भूमि सीता को दिखाई। राजा दशरथ की रानी कौशल्या संभवत: दक्षिण कोसल (रायपुर-बिलासपुर
के ज़िले, मध्य प्रदेश) की राजकन्या
थी। जान पड़ता है कि रामायण-काल में ही यह
देश दो जनपदों में विभक्त था- उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल।
अन्य साहित्यिक वर्णन - महाभारत में भीमसेन की दिग्विजय-यात्रा में कोसल-नरेश बृहद्बल की पराजय का उल्लेख है। अंगुत्तरनिकाय के अनुसार बुद्धकाल से पहले कोसल की गणना उत्तर भारत के सोलह
जनपदों में थी। इस समय
विदेह और कोसल की सीमा पर सदानीरा (गंडकी) नदी बहती थी। बुद्ध के
समय कोसल का राजा प्रसेनजित था, जिसने अपनी पुत्री कोसला का विवाह मगध-नरेश बिंबिसार के साथ किया था। काशी का राज्य जो इस समय कोसल के अंतर्गत था, राजकुमारी को दहेज में उसकी प्रसाधन
सामग्री के व्यय के लिए दिया गया था। इस समय कोसल की राजधानी श्रावस्ती में थी। अयोध्या का निकटवर्ती उपनगर साकेत बौद्धकाल का
प्रसिद्ध नगर था। विष्णु पुराण के इस उद्धरण में सम्भवत: गुप्तकाल के
पूर्ववर्ती काल में कोसल का अन्य जनपदों के
साथ ही देवरक्षित नामक राजा द्वारा शासित होने का वर्णन है। यह दक्षिण कोसल भी
हो सकता है। कालिदास ने रघुवंश में अयोध्या को उत्तर कोसल की राजधानी कहा
है। छठी और पाँचवी शती ई. पू. मौर्य-साम्राज्य की स्थापना के साथ कोसल मगध-साम्राज्य ही का एक भाग बन गया।
8. चेदि महाजनपद
विस्तार -वर्तमान में बुंदेलखंड का इलाका कभी चेदि महाजनपद का भाग रहा था । इसकी राजधानी शक्तिमती / सूक्तिमती / शुक्तिमती थी। इस राज्य का उल्लेख महाभारत में भी है। शिशुपाल यहाँ का राजा था। पौराणिक 16 महाजनपदों में से एक था। यह शुक्तिमती नदी के पास का देश था, जिसमें बुंदेलखंड का दक्षिणी भाग और जबलपुर का उत्तरी भाग सम्मिलित था। बौद्ध ग्रंथों में जिन सोलह महाजनपदों का उल्लेख है उनमें यह भी था। कलिचुरि वंश ने भी यहाँ राज्य किया। किसी समय शिशुपाल यहाँ का प्रसिद्ध राजा था। उसका विवाह रुक्मिणी से होने वाला था कि श्रीकृष्ण ने रूक्मणी का हरण कर दिया इसके बाद ही जब युधिष्ठर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को पहला स्थान दिया तो शिशुपाल ने उनकी घोर निंदा की। इस पर श्रीकृष्ण ने उसका वध कर डाला। मध्य प्रदेश का ग्वालियर क्षेत्र में वर्तमान चंदेरी क़स्बा ही प्राचीन काल के चेदि राज्य की राजधानी बताया जाता है।मध्ययुग में चेदि प्रदेश की दक्षिणी सीमा अधिक विस्तृत होकर मेकलसुता या नर्मदा तक जा पहुँची थी जैसा कि कर्पूरमंजरी से सूचित होता कि नदियों में नर्मदा, राजाओं में रणविग्रह और कवियों में सुरानन्द चेदिमंडल के भूषण हैं।
साहित्यिक वर्णन - ऋग्वेद में चेदि
नरेश कशुचैद्य का उल्लेख है । रैपसन के अनुसार कशु
या कसु महाभारत में वर्णित चेदिराज वसु है और इन्द्र के कहने से उपरिचर
राजा वसु ने रमणीय चेदि देश का राज्य स्वीकार किया था। महाभारत में चेदि देश की अन्य कई देशों के
साथ, कुरु के परिवर्ती देशों में गणना की गई है। कर्णपर्व
में चेदि देश के निवासियों की प्रशंसा की गई है । महाभारत के समय कृष्ण का प्रतिद्वंद्वी शिशुपाल
चेदि का शासक था। इसकी राजधानी शुक्तिमती बताई गई है। चेतिय जातक में चेदि की राजधानी सोत्थीवतीनगर कही गई है जो शुक्तिमती ही
है इस जातक में चेदिनरेश उपचर के पांच पुत्रों द्वारा हत्थिपुर,
अस्सपुर, सीहपुर, उत्तर पांचाल और दद्दरपुर नामक नगरों के बसाए जाने का उल्लेख है।
महाभारत में शुक्तिमती को शुक्तिसाह्वय भी कहा गया है। अंगुत्तरनिकाय में सहजाति
नामक नगर की स्थिति चेदि प्रदेश में मानी गई है।सहजाति इलाहाबाद से दस मील पर स्थित भीटा है। चेतियजातक
में चेदिनरेश की नामावली है जिनमें से अंतिम उपचर
या अपचर, महाभारत आदि पर्व में
वर्णित वसु जान पड़ता है। वेदव्य जातक में चेति या चेदि से काशी जाने वाली
सड़क पर दस्युओं का उल्लेख है। विष्णु पुराण में चेदिराज शिशुपाल का उल्लेख है। मिलिंदपन्हो में
चेति या चेदि का चेतनरेशों से संबंध सूचित होता है। सम्भवतः कलिंगराज खारवेल इसी वंश का राजा था।
9.
वज्जि या वृजि महाजनपद
विस्तार - वज्जि या वृजि प्राचीन
भारत के 16
महाजनपदों में से एक था।उत्तर बिहार
का बौद्ध कालीन गणराज्य जिसे बौद्ध साहित्य में वृज्जि कहा गया है। वास्तव में यह आठ गणतांत्रिक कुलों
का एक राज्य-संघ था जिसके आठ अन्य सदस्य (अट्ठकुल) थे
जिनमें विदेह, लिच्छवी तथा ज्ञातृकगण प्रसिद्ध थे, जिसकी राजधानी वैशाली थी।
इसमें
आज के बिहार राज्य के दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, शिवहर व मुजफ्फरपुर जिले
सम्मिलित थे। यह महाजनपद मगध के उत्तर में स्थित था।
पुरातात्विक स्त्रोत - बुल्हर के मत में वज्रि का नामोल्लेख अशोक के शिलालेख सं. 13 में है। जैन तीर्थंकर महावीर वृज्जि गणराज्य के ही राजकुमार थे।
साहित्यिक स्त्रोत - वृजियों का उल्लेख पाणिनि ने
दिया है। कौटिल्य अर्थशास्त्र में
वृजिकों को लिच्छविकों से भिन्न बताया गया है और वृजियों के संघ का भी उल्लेख किया
गया है। युवानच्वांग ने भी वृज्जि
देश को वैशाली से अलग बताया है
किन्तु फिर भी वृजियों का वैशाली से निकट सम्बन्ध था। बुद्ध के जीवनकाल में मगध सम्राट अजातशत्रु
और वृज्जि गणराज्य में बहुत दिनों तक संघर्ष चलता रहा। महावग्ग के अनुसार अजातशत्रु के दो मन्त्रियों सुनिध और वर्षकार
(वस्सकार) ने पाटलिग्राम
(पाटलिपुत्र) में एक क़िला वृज्जियों के आक्रमणों को रोकने के लिए बनवाया था। महापरिनिब्बान सुत्तन्त में भी अजातशत्रु और
वृज्जियों के विरोध का वर्णन है। वज्जि शायद वृजि
का ही रूपांतर है।
10. वत्स महाजनपद
विस्तार - उत्तर प्रदेश के प्रयाग (आधुनिक प्रयागराज) के आस-पास केन्द्रित था। पुराणों के अनुसार, राजा निचक्षु ने यमुना नदी के तट पर अपने राज्यवंश की स्थापना तब की थी जब हस्तिनापुर राज्य का पतन हो गया था। इसकी राजधानी कौशाम्बी थी। आधुनिक उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद तथा मिर्ज़ापुर ज़िले इसके अर्न्तगत आते थे। इस जनपद की राजधानी कौशांबी (ज़िला इलाहाबाद,उत्तर प्रदेश) थी। ओल्डनबर्ग के अनुसार ऐतरेय ब्राह्मण में जिन वंश के लोगों का उल्लेख है वे इसी देश के निवासी थे।उत्तरपूर्व में यमुना की तटवर्ती भूमि इसमें सम्मिलित थी। इलाहाबाद से 30 मील दूर कौशाम्बी इसकी राजधानी थी। वत्स को वत्स देश और वत्स भूमि भी कहा गया है। इसकी राजधानी कौशांबी (वर्तमान कोसम) इलाहाबाद से 38 मील दक्षिणपश्चिम यमुना पर स्थित थी। महाभारत के युद्ध में वत्स लोग पांडवों के पक्ष से लड़े थे।कौशांबी में जनपद की राजधानी प्रथम बार पांडवों के वंशज निचक्षु ने बनाई थी।
गौतम बुद्ध के समय वत्स देश का राजा उदयन था जिसने अवंती-नरेश चंडप्रद्योत की पुत्री वासवदत्ता से विवाह किया था। इस राज्य की सर्वोच्च उन्नति शतानीक के पुत्र उदयन के समय में हुई थी। कहा जाता है, उसका जन्म उसी दिन हुआ था जिस दिन गौतम बुद्ध का हुआ था। इतना तो निश्चित है कि वह बुद्ध का समकालीन था और अपने समय के प्रमुख व्यक्तियों में से एक था।उदयन के साम्राज्य की सीमाएँ ज्ञात नहीं हैं। किंतु संभवत: उसका राज्य गंगा और यमुना के दक्षिण में था और पूर्व में मगध तथा पश्चिम में अवंति से इसकी सीमाएँ मिली थीं।
साहित्यिक स्त्रोत - वत्स देश का
नामोल्ल्लेख रामायण में भी है-कि लोकपालों के समान प्रभाव वाले राम चन्द्र वन
जाते समय महानदी गंगा को पार करके शीघ्र ही धनधान्य से समृद्ध और प्रसन्न वत्स
देश में पहुँचे। इस उद्धरण से सिद्ध होता है कि रामायण-काल में गंगा नदी वत्स
और कोसल जनपदों की सीमा पर बहती थी। अंगुत्तरनिकाय के सोलह महाजनपदों
में वत्स देश की भी गिनती की गई है।हर्ष की
प्रियदर्शिका के अनुसार उदयन ने कलिंग
की विजय करके अपने श्वसुर दृढ़वर्मन को पुन: अंग के सिंहासन पर स्थापित
किया था। एक जातक कथा से प्रतीत होता है कि सुंसुमारगिरि के भग्ग
(भर्ग) लोगों का राज्य भी वत्स राज्य के अधीन था। प्रारंभ में उदयन बौद्ध धर्म के विरुद्ध था। उसने नशे में
क्रुद्ध में होकर एक बार पिंडोल नाम
के भिक्षु को उत्पीड़ित किया था किंतु बाद में पिंडोल के प्रभाव के कारण ही वह बुद्ध
का अनुयायी बना। यह स्वाभाविक था कि वत्स
और अवंती के राजवंश अपनी शक्ति की
स्पर्धा में परस्पर शत्रु बनें किंतु उदयन
के जीवनकाल में अवंतिनरेश प्रद्योत भी
वत्सराज पर आक्रमण करने का साहस न कर सका। कालांतर में, ऐसा
प्रतीत होता है कि वत्स राज्य अवंति राज्य के प्रभाव में आकर उसी में मिल गया। पुराणों
में उदयन के बाद वहिनर, दंडपाणि, निरमित्र और क्षेमक के नामों के साथ वत्स के राजाओं की सूची समाप्त
होती है। इन राजाओं के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। इनमें से वहिनर ही संभवत: बोधिकुमार के
नाम से एक जातक में और नरवाहन
के नाम से कथासरितत्सागर में उल्लिखित है। पुराणों के अनुसार क्षेमक के साथ वत्स के राजवंश का अंत हुआ।
मगध नरेश शिशुनाग के द्वारा अवंति राज्य की विजय के साथ ही वत्स
राज्य भी मगध राज्य का अंग बन गया। कथासरित्सागर में उसकी
दिग्विजय का विशद वर्णन है। किंतु इन विवरणों में ऐतिहासिक सत्य को खोज निकालना
कठिन है। वत्स देश के लावाणक नामक
ग्राम का उल्लेख भास रचित स्वप्नवासवदत्ता नाटक
के प्रथम अंक में है,छठे अंक में राजा
उदयन के कथन से सूचित होता है कि
वत्स राज्य पर अपना अधिकार स्थापित करने में उदयन को महासेन अथवा चंडप्रद्योत से
सहायता मिली थी। महाभारत के अनुसार भीम सेन ने पूर्व दिशा की दिग्विजय के प्रसंग में वत्स भूमि पर
विजय प्राप्त की थी।
11. पांचाल महाजनपद
विस्तार - पांचाल की दो
शाखाये थी―उत्तरी और दक्षिण। उत्तरी
पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र और दक्षणि
पांचाल की काम्पिल्य थी। मध्य
दोआब क्षेत्र (बदायु फरूखाबाद ) चुलानी ब्रह्मदत्त पांचाल देश का एक महान शासक था। इसके नाम का सर्वप्रथम उल्लेख यजुर्वेद की तैत्तरीय
संहिता में 'कंपिला' रूप में मिलता है। पांडवों की
पत्नी,
द्रौपदी को पंचाल की राजकुमारी होने के कारण पांचाली भी कहा
गया। कनिंघम के अनुसार वर्तमान रुहेलखंड उत्तर
पंचाल और दोआबा दक्षिण पंचाल था। पांचाल को पांच कुल के
लोगों ने मिलकर बसाया था। यथा किवि, केशी,
सृंजय, तुर्वसस और सोमक।
पंचालों और कुरु जनपदों में परस्पर लड़ाई-झगड़े चलते रहते थे।
साहित्यिक स्त्रोत - शतपथ ब्राह्मण में पंचाल की परिवका या परिचका नामक नगरी का उल्लेख है
जो वेबर
के अनुसार महाभारत की एकचका है। ब्रह्मपुराण तथा मत्स्य पुराण में इन्हें मुदगल सृंजय, बृहदिषु,
यवीनर और कृमीलाश्व कहा गया है। पंचालों और कुरु जनपदों में
परस्पर लड़ाई-झगड़े चलते रहते थे। महाभारत के आदिपर्व से ज्ञात होता है कि पांडवों
के गुरु द्रोणाचार्य ने अर्जुन की सहायता से पंचालराज द्रुपद को हराकर
उसके पास केवल दक्षिण पंचाल (जिसकी राजधानी कांपिल्य थी) रहने
दिया और उत्तर पंचाल को हस्तगत कर लिया था। महाभारत आदिपर्व में वर्णित द्रौपदी का
स्वयंवर कांपिल्य
में हुआ था। दक्षिण पंचाल की सीमा गंगा नदी के दक्षिणी
तट से लेकर चम्बल नदी या चर्मण्वती नदी तक थी। विष्णु पुराण में कुरु-पांचालों को मध्यदेशीय कहा गया है I
12. मगध महाजनपद
मगध प्राचीन भारत के सोलह महाजनपद में से एक था
। मगध महाजनपद दक्षिण बिहार के पटना व गया जिलो पर स्थित था। अभी इस नाम से बिहार में एक प्रंमडल है - मगध प्रमंडल । इसकी
प्रारम्भिक राजधानी राजगीर थी जो चारो तरफ से पर्वतो से घिरी होने के कारण गिरिब्रज के नाम
से जानी जाती थी। मगध की स्थापना बृहद्रथ ने की थी और
ब्रहद्रथ के बाद जरासंध यहाँ का शाषक था। चौथी शती ई.पू. में मगध के शासक नव नंद थे। इनके बाद चन्द्रगुप्त मौर्य तथा अशोक के राज्यकाल में मगध के प्रभावशाली राज्य की शक्ति अपने उच्चतम गौरव के
शिखर पर पहुंची हुई थी और मगध की राजधानी पाटलिपुत्र भारत
भर की राजनीतिक सत्ता का केंद्र बिंदु थी।
विस्तार - मगध
महाजनपद की सीमा उत्तर में गंगा से
दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक, पूर्व में चम्पा से पश्चिम में सोन नदी तक
विस्तृत थीं । मगध का सर्वप्रथम उल्लेख से सूचित होता है कि विश्वस्फटिक नामक
राजा ने मगध में प्रथम बार वर्णों की परंपरा प्रचलित
करके आर्य सभ्यता का प्रचार किया था।वाजसेनीय संहिता में मागधों या मगध के चारणों का उल्लेख है। मगध की प्राचीन राजधानी राजगृह थी ।
यह पाँच पहाड़ियों से घिरा नगर था । कालान्तर में मगध की
राजधानी पाटलिपुत्र में
स्थापित हुई । मगध राज्य में तत्कालीन शक्तिशाली राज्य कौशल, वत्स
व अवन्ति को अपने जनपद में मिला लिया।
साम्राज्य के रूप मे स्थापना - बिम्बिसार ने हर्यक वंश की
स्थापना 544 ई. पू. में
की । इसके साथ ही राजनीतिक शक्ति के रूप में बिहार का सर्वप्रथम उदय हुआ । बिम्बिसार को मगध साम्राज्य का वास्तविक
संस्थापक/राजा माना जाता है । बिम्बिसार ने गिरिव्रज (राजगीर) को अपनी
राजधानी बनायी । इसके वैवाहिक सम्बन्धों (कौशल, वैशाली
एवं पंजाब) की नीति अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया ।
यह " मगध' नामक क्षेत्र मध्य बिहार का एक भौगोलिक क्षेत्र हैं । राजनीतिक एवं प्रशासनिक मानचित्र में यह मुख्यत: मगध प्रमंडल के रूप में है । इस मगध प्रमंडल के ज़िले हैं- गया, औरंगाबाद, जहानाबाद, नवादा । प्रमंडल का मुख्यालय गया में ही है और यही है मगधांचल का सांस्कृति, राजनीतिक तथा व्यावसायिक केन्द्र।
साहित्यिक स्त्रोत - मगध का सर्वप्रथम
उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है । इससे सूचित होता है कि प्राय: उत्तर वैदिक काल तक मगध, आर्य सभ्यता के प्रभाव क्षेत्र के बाहर था। शतपथ ब्राह्मण और अभियान चिन्तामणि में इसे 'कीकट' कहा गया है। बौद्ध काल तथा परवर्तीकाल
में उत्तरी भारत का सबसे अधिक शक्तिशाली जनपद था। कालिदास (संभवत: 5वीं शती ई.) ने रघुवंश में इंदुमती के स्वयंवर के प्रसंग में मगधनरेश परंतप का भारत
के सब राजाओं में सर्वप्रथम उल्लेख किया गया है। इसी प्रसंग में मगध-नरेश की
राजधानी को कालिदास ने पुष्पपुर में बताया है। जैन साहित्य में
अनेक स्थलों पर मगध तथा उसकी राजधानी राजगृह (प्राकृत रायगिह)
का
उल्लेख है।
13. मत्स्य या मच्छ महाजनपद
विस्तार - इसमें राजस्थान के अलवर, भरतपुर तथा जयपुर जिले के क्षेत्र शामिल थे। इसकी राजधानी विराटनगर थी।
यहां के लोग बहुत ईमानदार हुआ करते थे।महाभारत के
अनुसार चेदि- मत्स्य दोनों
पर एक ही राजा शहाज ने राज्य किया। इस देश में विराट का राज था तथा वहाँ की राजधानी उपप्लव नामक नगर में थी। विराट नगर मत्स्य देश का
दूसरा प्रमुख नगर था। सहदेव ने अपनी दिग्विजय-यात्रा में मत्स्य देश पर विजय
प्राप्त की थी। भीम ने भी मत्स्यों को विजित किया था। अलवर
के एक भाग में शाल्व देश था जो मत्स्य का पार्श्ववती जनपद था। पांडवों ने मत्स्य देश में विराट के यहाँ रह कर अपने अज्ञातवास का एक वर्ष बिताया था।
साहित्यिक स्त्रोत - मत्स्य
निवासियों का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद
में है। इस उद्धरण में मत्स्यों का वैदिक काल के प्रसिद्ध राजा सुदास के शत्रुओं के साथ उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में
मत्स्य-नरेश ध्वसन द्वैतवन का उल्लेख है, जिसने सरस्वती के तट पर अश्वमेध यज्ञ किया
था। इस उल्लेख से मत्स्य देश में सरस्वती तथा द्वैतवन सरोवर की स्थिति सूचित होती है। गोपथ ब्राह्मण में
मत्स्यों को शाल्वों और कौशीतकी
उपनिषद में कुरु-पंचालों से
सम्बद्ध बताया गया है। महाभारत में
इनका त्रिगर्तों और चेदियों के साथ भी उल्लेख है। मनुसंहिता
में मत्स्यवासियों को पांचाल और
शूरसेन के निवासियों के साथ ही ब्रह्मर्षि देश में स्थित माना है- 'कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पंचाला शूरसेनका: एष
ब्रह्मर्षि देशो वै ब्रह्मवतदिनंतर:|' उड़ीसा
की भूतपूर्व मयूरभंज रियासत में
प्रचलित जनश्रुति के अनुसार मत्स्य देश सतियापारा
(ज़िला मयूरभंज) का प्राचीन नाम था।
उपर्युक्त विवेचन से मत्स्य की स्थिति पूर्वोत्तर राजस्थान में सिद्ध होती है
किन्तु इस किंवदंती का आधार शायद तह तथ्य है कि मत्स्यों की एक शाखा मध्य काल के
पूर्व विजिगापटम (आन्ध्र प्रदेश) के निकट जा कर बस गई थी। उड़ीसा के राजा जयत्सेन
ने अपनी कन्या प्रभावती का विवाह
मत्स्यवंशीय सत्यमार्तड से किया था
जिनका वंशज 1269 ई. में अर्जुन नामक व्यक्ति
था। सम्भव है प्राचीन मत्स्य देश की पांडवों से संबंधित किंवदंतियाँ उड़ीसा में
मत्स्यों की इसी शाखा द्वारा पहुँची हो।
14. मल्ल महाजनपद
विस्तार -यह भी एक गणसंघ था और गोरखपुर के
आसपास था। मल्लों की दो शाखाएँ थीं। एक की राजधानी कुशीनारा (जहाँ
महात्मा बुद्ध को महापरिनिर्वाण प्राप्त हुआ) थी जो
वर्तमान कुशीनगर है तथा दूसरे की राजधानी पावा या पव (जहाँ
वर्धमान महावीर को निर्वाण मिला)थी जो वर्तमान फाजिलनगर है। पौराणिक
16 महाजनपदों में से एक था। यह भी एक गणसंघ था और
पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाके इसके क्षेत्र थे। यह जनपद वज्जि संघ के
उत्तर में स्थित एक पहाड़ी राज्य था। इसका उल्लेख अंगुत्तर निकाय में आया
है।'मल्ल' नाम
'मल्ल राजवंश' के नाम पर है जो इस
महाजनपद की उस समय शासक थे।
पुरातात्विक स्त्रोत - बुद्ध के कुशीनगर में निर्वाण प्राप्त करने के उपरान्त, उनके अस्थि-अवशेषों का एक भाग मल्लों को मिला था जिसके संस्मरणार्थ उन्होंने कुशीनगर में एक स्तूप या चैत्य का निर्माण किया था। इसके खंडहर कसिया में मिले हैं। इस स्थान से प्राप्त एक ताम्रपट्टलेख से यह तथ्य प्रमाणित भी होता है—‘(परिनि) वार्ण चैत्यताभ्रपट्ट इति’।
मगध के राजनीतिक उत्कर्ष के समय मल्ल जनपद
इसी साम्राज्य की विस्तरणशील सत्ता के सामने न टिक सका। चौथी शती ई. पू. में
चंद्रगुप्त मौर्य के महान् साम्राज्य में विलीन हो गया। जैन ग्रंथ 'भगवती सूत्र' में मोलि या मालि नाम से मल्ल-जनपद का उल्लेख है।
साहित्यिक
स्त्रोत - मल्ल
देश का सर्वप्रथम निश्चित उल्लेख रामायण में इस प्रकार है कि राम चन्द्र जी ने लक्ष्मण-पुत्र चंद्रकेतु
के लिए मल्ल देश की भूमि में चंद्रकान्ता नामक पुरी
बसाई जो स्वर्ग के समान दिव्य थी। महाभारत मे भी इसका उल्लेख इस प्रकार से है :-
‘मल्ला: सुदेष्णा:प्रह्लादा माहिका शशिकास्तथा’ ; ‘अधिराज्यकुशाद्याश्च मल्लराष्ट्रं च केवलम्’;
‘ततो गोपालकक्षं च सोत्तरानपि कोसलान्, मल्लानामधिपं
चैव पार्थिवं चाजयत् प्रभु:’। बौद्ध-ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय में मल्ल जनपद का उत्तरी भारत के
सोलह जनपदों में उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में मल्ल देश की दो राजधानियों का वर्णन
है— कुशावती और पावा I महापरिनिब्बानसुत्त के वर्णन के अनुसार गौतम बुद्ध के समय
में कुसीनारा या कुशीनगर के निकट मल्लों का शालवन हिरण्यवती नदी (गंडक) के तट पर स्थित था। मनुस्मृति में
मल्लों को व्रात्य क्षत्रियों में
परिगणित किया गया है, क्योंकि ये बौद्ध धर्म के दृढ़ अनुयायी
थे। कुसजातक में ओक्काक (इक्ष्वाकु) नामक मल्ल-नरेश का उल्लेख है।
इक्ष्वाकुवंशीय नरेशों का परंपरागत राज्य अयोध्या या कोसल
प्रदेश में था। राय चौधरी का मत है कि मल्ल राष्ट्र में बिंबिसार के पूर्व गणराज्य स्थापित हो गया था। इससे पहले यहाँ
के अनेक राजाओं के नाम मिलते हैं। बौद्ध
साहित्य में मल्ल जनपद के भोग नगर ,अनुप्रिय तथा उरुवेलकप्प नामक नगरों के नाम मिलते हैं।
बौद्ध तथा जैन साहित्य में मल्लों
और लिच्छवियों की प्रतिद्वंदिता के अनेक उल्लेख हैं।
15. सुरसेन या शूरसेन महाजनपद
विस्तार -शूरसेन महाजनपद उत्तरी-भारत का
प्रसिद्ध जनपद था, मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्र इस जनपद में
शामिल थे। इसकी राजधानी मथुरा थी। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अवंति पुत्र यहाँ का
राजा था। पुराणों में मथुरा के राजवंश को यदुवंश कहा जाता था।
क्या शूरसेन कृष्ण के वंशज थे- शूरसेन नाम किस व्यक्ति विशेष के कारण पड़ा? यह विचारणीय है । पुराणों की वंश-परंपरा-सूचियों को देखने से पता चलता है कि शूर या शूरसेन नाम के कई व्यक्ति प्राचीन काल में हुए । इनमें उल्लेखनीय ये है-हैहयवंशी कार्तवीर्य अर्जुन के पुत्र शूरसेन, भीम सात्वत के पुत्र अंधक के परनाती शूर राजाधिदेव, श्रीराम के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र शूरसेन तथा श्रीकृष्ण के पितामह शूर । श्रीकृष्ण के पितामह का नाम शूर था, न कि शूरसेन (हरिवंश, विष्णु आदि पुराणों में तथा परवर्ती संस्कृत साहित्य में श्री कृष्ण के लिये 'शौरि' नाम मिलता है ।) । इनके नाम से जनपद की संज्ञा का आविर्भाव मानने में कठिनाई प्रतीत होती है।कुछ इतिहासकारों के मतानुसार यह एक क़बीला था जिसने ईसा पूर्व 600-700 के आस-पास ब्रज पर अपना अधिकार कर लिया था और स्थानीय संस्कारों से मेल बढ़ने के लिए कृष्ण पूजा शुरू कर दी।
साहित्यिक स्त्रोत - शूरसेन ने पुरानी मथुरा के स्थान पर नई नगरी बसाई थी जिसका वर्णन रामायण के उत्तरकांड में है। शूरसेन-जनपदीयों का
नाम भी रामायण ('तत्र म्लेच्छान्पुलिंदांश्च सूरसेनांस्तथैव च, प्रस्थलान् भरतांश्चैय कुरूंश्च यह मद्रकै:') में आया है। रामायण
('भविष्यति पुरी रम्या शूरसेना न संशय) में मथुरा को शूरसेना
कहा गया है। महाभारत ('स
शूरसेनान् कार्त्स्न्येन पूर्वमेवाजयत् प्रभु:, मत्स्यराजंच
कौरव्यो वशेचक्रे बलाद् बली') में
शूरसेन-जनपद पर सहदेव की विजय का
उल्लेख है।कालिदास ने रघुवंश (सा शूरसेनाधिपतिं सुषेणमुद्दिश्य लोकान्तरगीतकीर्तिम्, आचारशुद्धोभयवंशदीपं शुद्धान्तरक्ष्या जगदे कुमारी')में शूरसेनाधिपति सुषेण का वर्णन किया है, इसकी
राजधानी मथुरा का उल्लेख कालिदास ने
इसके आगे रघुवंश में किया है। श्रीमद्
भागवत ('शूरसेना यदुपतिर्मथुरामावसन् पुरीम्, माथुरान्छूरसेनांश्च
विषयान् बुभुजे पुरा, राजधानी तत: साभूत सर्वयादभूभुजाम्,
मथुरा भगवान् यत्र नित्यं संनिहितों हरि:') में यदुराज शूरसेन का उल्लेख है जिसका राज्य शूरसेन-प्रदेश
में कहा गया है। मथुरा उसकी राजधानी थी। विष्णु
पुराण ('तथापरान्ता: सौराष्ट्रा: शूराभीरास्तथार्बुदा:') में शूरसेन
के निवासियों को ही संभवत: शूर कहा गया है और इनका आभीरों के साथ उल्लेख है।
16.
गांधार महाजनपद
पौराणिक 16
महाजनपदों में से एक। पाकिस्तान का पश्चिमी तथा अफ़ग़ानिस्तान का पूर्वी
क्षेत्र। इस प्रदेश का मुख्य
केन्द्र आधुनिक पेशावर और आसपास के इलाके थे। इस महाजनपद के प्रमुख नगर थे - पुरुषपुर (आधुनिक
पेशावर) तथा तक्षशिला इसकी राजधानी थी । इसका अस्तित्व 600 ईसा पूर्व से 11वीं सदी तक रहा। कुषाण शासकों के दौरान यहाँ बौद्ध धर्म बहुत फला फूला पर बाद में मुस्लिम आक्रमण
के कारण इसका पतन हो गया।
विस्तार- चीनी इतिहास–ग्रंथों से सूचित होता है कि द्वितीय शती ई. पू. में ही इस प्रदेश में भारतीयों ने उपनिवेश बसा लिए थे और ये लोग बंगाल- असम तथा ब्रह्मदेश के व्यापारिक स्थलमार्ग से यहाँ पहुँचे थे। 13वीं
शती तक युन्नान का भारतीय नाम गंधार ही प्रचलित था, जैसा कि तत्कालीन मुसलमान
लेखक रशीदुद्दीन के वर्णन से सूचित होता है। इस प्रदेश का चीनी नाम नानचाओं था। 1253 ई. में चीन के सम्राट कुबलाख़ाँ ने गंधार को जीतकर यहाँ के हिन्दू राज्य की
समाप्ति कर दी।
साहित्यिक
वर्णन - अथर्ववेद में गंधारियों की गणना अवमानित जातियों में की गई है किंतु परवर्ती काल में गंधारवासियों
के प्रति मध्यदेशीयों का दृष्टिकोण बदल गया और गंधार में बड़े विद्वान् पंडितों ने
अपना निवास-स्थान बनाया। तक्षशिला गंधार की लोकविश्रुत राजधानी थी। छान्दोग्य उपनिषद में उद्दालक-अरुणि ने गंधार का, सद्गुरु वाले शिष्य के अपने अंतिम
लक्ष्य पर पहुंचने के उदाहरण के रूप में उल्लेख किया है। शतपथ ब्राह्मण तथा अनुगामी वाक्यों में उद्दालक अरुणि का उदीच्यों या उत्तरी देश (गंधार) के निवासियों से संबंध बताया गया है। पाणिनि ने जो स्वयं गंधार के निवासी थे, तक्षशिला का उल्लेख किया है। इस प्रदेश का उल्लेख महाभारत और अशोक के शिलालेखों में मिलता है। महाभारत के अनुसार धृतराष्ट्र की रानी और दुर्योधन की माता गांधारी गंधार की राजकुमारी थीं। अशोक के साम्राज्य का अंग रहने के बाद कुछ समय यह फारस के और कुषाण राज्य के अंतर्गत रहा। यह पूर्व और पश्चिम
के सांस्कृतिक संगम का स्थल था
और यहाँ कला की 'गांधार
शैली' का जन्म हुआ। सिंधु
नदी के पूर्व और
उत्तरपश्चिम की ओर स्थित प्रदेश। वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान का पूर्वी भाग भी इसमें सम्मिलित था। ऋग्वेद में गंधार के निवासियों को गंधारी कहा गया है तथा उनकी भेड़ो के ऊन
को सराहा गया है और अथर्ववेद में गंधारियों का मूजवतों के
साथ उल्लेख है- 'उपोप मे परामृश मा में दभ्राणिमन्यथा:। सर्वाहमस्मि
रोमशा गंधारीणामिवाविका'। 'गंधारिम्यों
मूजवद्भ्योड् गेभ्यो मगधेभ्य: । प्रैष्यन् जनमिव शेवधिं तक्मानं परिदद्मसिं। ऐतिहासिक अनुश्रुति में कौटिल्य को तक्षशिला महाविद्यालय का ही रत्न बताया
गया है। वाल्मीकि ने रामायण में गंधर्वदेश की स्थिति गांधार विषय के अंतर्गत बताई गई है। कैकय देश इस के पूर्व में स्थित था। केकय-नरेश युधाजित के कहने से अयोध्यापति रामचंद्र जी के भाई भरत ने गंधर्व देश को जीतकर यहाँ तक्षशिला और पुष्कलावती नगरियों को बसाया था। पुराणों में गंधार नरेशों को
द्रुहयु का वंशज माना। वायु पुराण में गंधार के श्रेष्ठ घोड़ों का उल्लेख है। अंगुत्तरनिकाय के अनुसार बुद्ध तथा पूर्व-बुद्धकाल में गंधार उत्तरी भारत के सोलह जनपदों में परिगणित था। सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय गंधार में कई छोटी-छोटी रियासतें थीं, जैसे अभिसार, तक्षशिला आदि। मौर्य साम्राज्य में संपूर्ण गंधार देश सम्मिलित था। कुषाण साम्राज्य का भी वह एक अंग था। कुषाण काल में ही यहाँ की नई राजधानी पुरुषपुर या पेशावर में बनाई गई। इस काल में तक्षशिला का
पूर्व गौरव समाप्त हो गया था। गुप्त काल में गंधार शायद गुप्तों के साम्राज्य के बाहर था क्योंकि उस समय यहाँ यवन, शक आदि बाह्यदेशीयों का आधिपत्य था। 7वीं
शती ई. में गंधार के अनेक भागों में बौद्ध धर्म काफ़ी उन्नत था।
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