वेदांग-युगान्तर में वैदिक अध्ययन के लिए छः विधाओं (शाखाओं) का जन्म हुआ जिन्हें ‘वेदांग’ कहते हैं। वेदांग का शाब्दिक
अर्थ है वेदों का अंग, तथापि
इस साहित्य के पौरूषेय होने के कारण श्रुति साहित्य से पृथक ही गिना जाता है। वेदांग को स्मृति भी कहा जाता है, क्योंकि यह
मनुष्यों की कृति मानी जाती है। वेदांग सूत्र के रूप में हैं इसमें कम शब्दों में
अधिक तथ्य रखने का प्रयास किया गया है।
- शिक्षा - इसमें वेद मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है। स्वर एवं वर्ण आदि के उच्चारण-प्रकार की जहाँ शिक्षा दी जाती हो, उसे शिक्षा कहाजाता है। इसका मुख्य उद्येश्य वेदमन्त्रों के अविकल यथास्थिति विशुद्ध उच्चारण किये जाने का है। शिक्षा का उद्भव और विकास वैदिक मन्त्रों के शुद्ध उच्चारण और उनके द्वारा उनकी रक्षा के उदेश्य से हुआ है।
- कल्प - वेदों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये, इसका कथन किया गया है। इसकी तीन शाखायें हैं- श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र। कल्प वेद-प्रतिपादित कर्मों का भलीभाँति विचार प्रस्तुत करने वाला शास्त्र है। इसमें यज्ञ सम्बन्धी नियम दिये गये हैं।
- व्याकरण - इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है। वेद-शास्त्रों का प्रयोजन जानने तथा शब्दों का यथार्थ ज्ञान हो सके अतः इसका अध्ययन आवश्यक होता है। इस सम्बन्ध में पाणिनीय व्याकरण ही वेदांग का प्रतिनिधित्व करता है। व्याकरण वेदों का मुख भी कहा जाता है।
- निरुक्त - वेदों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन-जिन अर्थों में किया गया है, उनके उन-उन अर्थों का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में किया गया है। इसे वेद पुरुष का कान कहा गया है। निःशेषरूप से जो कथित हो, वह निरुक्त है। इसे वेद की आत्मा भी कहा गया है।
- ज्योतिष - इससे वैदिक यज्ञों और अनुष्ठानों का समय ज्ञात होता है। यहाँ ज्योतिष से मतलब `वेदांग ज्योतिष´ से है। यह वेद पूरुष का नेत्र माना जाता है। वेद यज्ञकर्म में प्रवृत होते हैं और यज्ञ काल के आश्रित होते है तथा जयोतिष शास्त्र से काल का ज्ञान होता है। अनेक वेदिक पहेलियों का भी ज्ञान बिना ज्योतिष के नहीं हो सकता।
- छन्द - वेदों में प्रयुक्त गायत्री, उष्णिक आदि छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है। इसे वेद पुरुष का पैर कहा गया है। ये छन्द वेदों के आवरण है। छन्द नियताक्षर वाले होते हैं। इसका उदेश्य वैदिक मन्त्रों के समुचित पाठ की सुरक्षा भी है।
सूत्र साहित्य-
सूत्र साहित्य वैदिक साहित्य का अंग है तथा यह उसे समझने में सहायक भी है।
- श्रोत सूत्र- महायज्ञ से सम्बंधित विस्तृत विधि-विधानों की व्याख्या। श्रौत का अर्थ है श्रुति (वेद) से सम्बद्ध यज्ञ याग। अतः श्रौत
सूत्रों में तीन प्रकार की अग्नियों के आधान अग्निहोत्र, दर्श पौर्णमास, चातुर्मास्यादि साधारण यज्ञों तथा अग्निष्टोम आदि सोमयागों का वर्णन है। ये भारत की
प्राचीन यज्ञ-पद्धति पर बहुत प्रकाश डालते हैं। ऋग्वेद के दो श्रौत सूत्र हैं-शांखायन और आश्वलायन। शुक्ल यजुर्वेद का एक-कात्यायन, कृष्ण यजुर्वेद के छः सूत्र हैं-आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, बौधायन, भारद्वाज, मानव, वैखानस। सामवेद के लाट्यायन, द्राह्यायण और
आर्षेय नामक तीन सूत्र हैं। अथर्ववेद का एक ही वैतान सूत्र है।
- शुल्बसूत्र- यज्ञ स्थल तथा अग्निवेदी के निर्माण तथा माप से सम्बंधित नियम
इसमें हैं। इसमें भारतीय
ज्यामिति का प्रारम्भिक रूप दिखाई देता है। कल्प का तीसरा भाग।
- धर्म सूत्र- इसमें सामाजिक
धार्मिक कानून तथा आचार संहिता है। वेद से सम्बद्ध केवल तीन
धर्मसूत्र ही अब तक उपलब्ध हो सके हैं-आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी व बौधायन। ये कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा से सम्बद्ध हैं। शुक्लयजुर्वेदका शंखलिखित धर्मसूत्र होनेकी बात सुना है। अन्य धर्मसूत्रों में
सामवेदसे सम्बद्ध गौतमधर्मसूत्र और ऋग्वेदसे सम्बद्ध वसिष्ठधर्मसूत्र उल्लेखनीय हैं।
- गृह्य सूत्र- ऋग्वेद के गृह्य सूत्र शांखायन और आश्वलायन हैं। शुक्ल यजुर्वेद का पारस्कर, कृष्ण यजुर्वेद के आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, बौधायन, भारद्वाज , वराह,मानव, काठक और वैखानस, सामवेद
के गोभिल तथा खादिर और अथर्ववेद का कौशिक। इनमें गोभिलको प्राचीनतम माना जाता है. परुवारिक संस्कारों, उत्सवों तथा वैयक्तिक यज्ञों से सम्बंधित विधि-विधानों की चर्चा है।
राजनितिक स्थिति
कबीलाई व्यवस्था -
उत्तर वैदिक काल
में छोटे कबीले एक दूसरे में विलीन होकर बड़े क्षेत्रगत जनपदों को जन्म दे रहे थे। उदाहरण के
लिए 'पुरु' एवं 'भरत' मिलकर कुरु और 'तुर्वष' तथा 'क्रिवि' मिलकर पांचाल कहलाए। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में कुरु, पांचाल, काशी का विदेह प्रमुख राज्य
थे। इन 'कुरु' और 'पञ्चालों' का अधिपत्य दिल्ली पर एवं दोआब के मध्य एवं ऊपरी भागों पर फैला था। उत्तर वैदिक काल में आर्यो का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे
लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ का उपयोग जान गए थे। उत्तर वैदिक काल में पांचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था। शतपथ ब्राह्मण में इन्हे वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ
प्रतिनिधि कहा गया है।
उत्तर वैदिककालीन
जनपद- उत्तर वैदिक काल
में आर्यो ने यमुना, गंगा एवं सदानीरा (गण्डक) नदियों के मैदानों को जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। दक्षिण में आर्यो का
फैलाव विदर्भ तक हुआ। उत्तर वैदिककालीन सभ्यता का मुख्य केन्द्र 'मध्य प्रदेश' था, जिसका प्रसार सरस्वती से लेकर गंगा दोआब तक था। यही पर कुरु एवं पांचाल जैसे विशाल राज्य थे। यहीं से आर्य संस्कृति की पूर्वी ओर प्रस्थान कर कोशल, काशी एवं विदेह तक फैली। गोत्र व्यवस्था का प्रचलन भी उत्तर वैदिक काल से ही प्रारम्भ हुआ माना जाता है। मणव एवं अंग प्रदेश आर्य
सभ्यता के क्षेत्र के बाहर थे। मगध में निवास करने वाले लोगों को अथर्ववेद में 'व्रात्य' कहा गया है। ये प्राकृत भाषा बोलते थे। उत्तर वैदिक काल में
पुरु और भरत कबीला मिलकर 'कुरु' तथा 'तुर्वश' और 'क्रिवि' कबीला मिलकर 'पंचाल' (पांचाल) कहलाय

- कुरु -'अथर्ववेद' में कुरु राज्य की समृद्धि का चित्रण है। परीक्षित और जनमेजय यहाँ के प्रमुख राजा थे। परीक्षित को मृत्यु लोक का देवता कहा गया है। अथर्ववेद के 'छान्दोग्योपनिषद' में कहा गया है कि कुरु जनपद में कभी-कभी भी ओले नहीं पड़े और न ही टिड्डियों के उपद्रव के कारण अकाल पड़ा। कुरु कुल का इतिहास महाभारत यु़द्ध के नाम से विख्यात है। उत्तर वैदिक काल में त्रिककुद, कैञ्ज तथा मैनाम (हिमालय क्षेत्र में स्थित) पर्वतों का उल्लेख भी मिलता है।आरम्भ में कुरुओं की राजधानी असनदिवन्त में थी जिसमे अन्तर्गत कुरुक्षेत्र (सरस्वती और दृषद्वती के बीच भूमि) सम्मिलित था। शीघ्र ही कुरुओं
ने दिल्ली एवं उत्तरी
दोआब पर अधिकार कर लिया। अब उनकी
राजधानी हस्तिनापुर हो गयी। बलिहव प्रतिपीय, राजा परीक्षित, जनमेजय आदि इसी राजवंश के प्रमुख राजा थे। परीक्षित का नाम अथर्ववेद में मिलता है। जनमेजय के बारे में माना जाता है कि उसने सर्पसत्र एवं दो अश्वमेध यज्ञ कराया था। कुरु वंश का अन्तिम शासक निचक्षु था। वह हस्तिनापुर से राजधानी कौशाम्बी ले आया, क्योंकि हस्तिनापुर बाढ़ में नष्ट हो गया था।
- पांचाल- पांचाल क्षेत्र के अंतर्गत आधुनिक बरेली, बदायूँ, एवं फ़र्रुख़ाबाद आता है। इनकी राजधानी काम्पिल्य थी। पञ्चालों के एक महत्त्वपूर्ण शासक प्रवाहण जैवलि थे, जो विद्धानों के संरक्षक थे। पांचाल दार्शनिक राजाओं के लिए भी जाना जाता
था। आरुणि श्वेतकेतु
पांचाल क्षेत्र के ही थे।
- मध्य देश - उत्तरवैदिक कालीन सभ्यता का केन्द्र मध्य देश था। यह सरस्वती से गंगा के दोआब तक फैला हुआ था। गंगा यमुना दोआब से सरयू नदी तक हुआ।
- काशी - इसके बाद आर्यो
का विस्तार वरुणा-असी नदी तक हुआ और काशी राज्य की स्थापना हुई। शतपथ ब्राह्मण में यह उल्लेख मिलता है कि विदेधमाधव ने अपने गुरु राहुगण की सहायता से अग्नि के द्वारा इस क्षेत्र का सफाया किया था। अजातशत्रु एक दार्शनिक राजा माना जाता था।
वह बनारस से सम्बद्ध था। सिन्धु नदी के दोनों तटों पर गांधार जनपद था।
- केकय -केकय पंजाब में गंधार का पूर्ववर्ती प्रदेश अर्थात् आजकल के रावलपिंडी पेशावर के आसपास के प्रदेश का प्राचीन नाम। ईक्ष्वाकुवंशी राजा दशरथ की रानी कैकेयी यहीं की राजकन्या थीं। केकय राज्य की राजधानी राजगृह थी। इस राजगृह का समीकरण आधुनिक जलालपुर से किया जाता है। रामायण में इस नगर का एक दूसरा नाम 'गिरिब्रज' कहा
गया है। उपनिषदों में इस प्रदेश के विख्यात शासक अश्वपति का उल्लेख मिलता है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में इसे राजाधिष्ठित जनपद कहा गया है। महाभारत के समय यहाँ धृष्टकेतु नामक राजा राज्य करता था। ब्रह्मांड पुराण के अनुसार केकय निवासी अनार्य थे
किंतु जैन साहित्य में उन्हें आर्य कहा गया है।
- विदेह- उपनिषद काल में विदेह ने पांचाल का स्थान ग्रहण कर लिया। विदेह
के राजा जनक प्रसिद्ध दार्शनिक थे। दक्षिण
में आर्यो का फैलाव विदर्भ तक हुआ। मगध और अंग प्रदेश आर्य क्षेत्र से बाहर थे
- मद्र- मद्र देश पंजाब में सियालकोट और उसके आस-पास स्थित था।
- मत्स्य राज्य के अन्तर्गत राजस्थान के जयपुर, अलवर, भरतपुर थे।
- आर्यों में विन्ध्याचल तक अपना विस्तार किया। गंगा-यमुना दोआब एवं उसके आस-पास का क्षेत्र ब्रह्मर्षि देश कहलाता था। हिमाचल और विन्ध्याचल का बीच का क्षेत्र मध्य देश कहलाता था।
- मगध तथा अंग का उल्लेख ऋग्वेद में नहीं मिलता । सर्वप्रथम अथर्ववेद में ही इनका उल्लेख हुआ है । अथर्ववेद में मगध के लोगों को ‘व्रात्य’ कहा गया है जो प्राकृत भाषा बोलते थे । उनके प्रति तिरस्कार
पूर्ण भाव प्रकट किये गये है । यहाँ तक कि यह इच्छा व्यक्त की
गयी है कि पूर्व दिशा में स्थित अड्ग तथा मगध के लोग ज्वर द्वारा ग्रसित
किये जायँ ।
प्रशासनिक इकाइयां
सभा, समिति - सभा, समिति नामक प्रशासनिक संस्थाएं थीं। अथर्ववेद में सभा एवं समिति को प्रजापति की दो
पुत्रियाँ कहा गया है। समिति का महत्वपूर्ण
कार्य राजा का चुनाव करना था। समिति का प्रधान ईशान या पति कहलाता था। विदथ में स्त्री एवं पुरूष दोनों सम्मलित होते थे। नववधुओं का
स्वागत, धार्मिक अनुष्ठान आदि सामाजिक कार्य
विदथ में होते थे। जैमिनीय उपनिषेद ब्राह्मण महाग्रामों का उल्लेख करता है।
राजा की स्थिति -उत्तर वैदिक काल में 'राजतंत्र' ही शासन तंत्र का आधार था, पर कहीं-कहीं
पर गणराज्यों के उदाहरण भी मिले है। सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में ही राजा की उत्पत्ति का सिद्धान्त मिलता है। इस काल में
राजा का अधिकार ऋग्वेद काल की अपेक्षा कुछ बढ़ा।
अब उसे बड़ी-बड़ी उपाधियां
मिलने लगीं जैसे-
अधिराज, राजाधिराज, सम्राट, एकराट्। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार
प्रात्य (पूर्व) का शासक सम्राट की उपाधि धारण करते थे, पश्चिम के स्वराट, उत्तर के विराट्, दक्षिण के भोज तथा मध्य देश के राजा होते थे। प्रदेश का संकेत करने वाला शब्द 'राष्ट्र' सर्वप्रथम
उत्तर वैदिक काल में ही प्रयोग किया गया। इस काल के उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर
ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि शायद राजा का चुनाव पहले जनता (विश) द्वारा एवं कालान्तर में जनता के प्रतिनिधियों द्वारा होता था, पर अन्ततः राजा का पद वंशानुगत हो गया।राजा का निर्वाचन - शतपथ ब्राह्मण में राजा के निर्वाचन की चर्चा है और ऐसे राजा विशपति कहलाते थे। अत्याचारी शासक को जनता पदच्युत भी कर देती थी। उदाहरण के लिए सृजंयों
ने दुष्ट ऋतु
से पौशायन को बाहर निकाल दिया था। ताण्ड्य ब्राह्मण प्रजा के द्वारा राजा के विनाश के लिए एक विशेष यज्ञ किए जाने का भी उल्लेख
है। वैराज्य का अर्थ उस राज्य
से है जहाँ राजा नहीं होता था। शतपथ ब्राह्मण में उस राज्य के लिए राष्ट्री शब्द का प्रयोग किया गया है जो निरंकुशता पूर्वक जनता की सम्पत्ति का उपभोग
करता था। अथर्ववेद मे राजा को विषमत्ता
(जनता का भक्षक) कहा गया। अथर्ववेद में कहा गया है कि समुद्र पर्यन्त पृथ्वी का शासक एकराट होता है। ऐतरेय ब्राह्मण तथा शतपथ ब्राह्मण में ऐसे राजाओं की सूची मिलती है।
अथर्ववेद के एक परिच्छेद में कहा गया है कि राजा राष्ट्र (क्षेत्र) का स्वामी होता है और राजा को वरुण, बृहस्पति, इन्द्र तथा अग्नि देवता दृढ़ता प्रदान करते हैं। राजा के राज्याभिषेक के समय 'राजसूय यज्ञ' का अनुष्ठान किया जाता था। जिसमें राजा द्वारा राज्य के 'रत्नियों' को
हवि प्रदान की जाती थी। यहाँ हवि से मतलब है कि राज्य प्रत्येक रत्नी के घर जाकर उनका समर्थन एवं सहयोग प्राप्त
करता था। राजसूय यज्ञ के अनुष्ठान से यह समझा जाता था कि राजा को दिव्य शक्ति मिल
गयी है। राजसूय यज्ञ का वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। यह दो दिन तक चलता था। राजसूय यज्ञ में वरुण देवता पार्थिव शरीर में प्रकट होते थे।

राजा की शक्ति में अभिवृद्वय के लिए
अश्वमेध और वाजपेय यज्ञों का भी विधान किया गया। अश्वमेध यज्ञ से समझा जाता
था। राजा द्वारा इस यज्ञ में छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन
क्षेत्रों से बेरोक गुजरेगा, उन सारे
क्षेत्रों पर राजा का एक छत्र अधिपत्य हो जायेगा।
रत्निन - रत्निन का प्रशासन
में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान था । ज्ञात होता है कि राजसूय यज्ञ के
समय राजा स्वयं रत्नियों के घर जाता था तथा उन्हें ‘रत्न
बलि’ प्रदान करता था । तैत्तिरीय ब्राह्मण में
तो यहां तक उल्लेख है कि राजा को राज्य प्रदान करने वाले रत्नी ही होते है (एते वै राष्ट्रस्य प्रदातार:) । पुरोहित
का भी नाम सर्वत्र रत्नियों की सूची में मिलता है । विभागाध्यक्षों में सेनानी
(सेनापति), सूत (रथ सेना का नायक) ग्रामणी (गाँव
का मुखिया), संग्रहीता (कोषाध्यक्ष) तथा भागधुक
(अर्थ मन्त्री) के नाम मिलते हैं । दरबारी श्रेणी में क्षता (दौवारिक), अक्षावाप (आय-व्यय
गणनाध्यक्ष अथवा द्यूत क्रीड़ा में राजा के साथी), पालागल (विदूषक) आदि सम्मिलित
थे । शतपथ बाह्मण तथा काठक संहिता में गोविकर्तन (गवाध्यक्ष), तक्षा (बढई)
तथा रथकार (रथ बनाने वाला) के
नाम भी रत्नियों की सूची में ही मिलते है । शतपथ ब्राह्मण में 13 रत्निन का उल्लेख किया गया है-
- ब्राह्मण (पुरोहित)
- राजन्य
- बवाता (प्रियरानी)
- परिवृत्ती (राजा की उपेक्षित प्रथम पत्नी)
- सेनानी (सेना का नायक)
- सूत (सारथी)
- ग्रामणी (ग्राम प्रधान)
- क्षतृ (कोषाधिकारी)
- संगहीत्ट (सारथी या कोषाध्यक्ष)
- भगदुध (कर संग्रहकर्ता)
- अक्षवाप (पासे का अधीक्षक अथवा पासा फेंकने वाला)
- गोविकर्तन (आखेटक)
- पालागल (सन्देशवाहक)
सामाजिक जीवन
परिवार - ऋग्वैदिक काल के समान इस समय भी संयुक्त
परिवार की प्रथा थी जो
पितृसत्तात्मक ही होते थे । पिता के अधिकार विस्तृत एवं उसकी शक्ति
असीमित थी । वह अपने पुत्रों को बेच सकने, गृह निकाला करने
आदि विषयों में स्वतन्त्र अधिकार रखता था ।
ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि अजीगर्त
ने अपने पुत्र शुन:शेप को
100 गौवे लेकर बलि के निमित्त बेच दिया था । इसी प्रकार विश्वामित्र ने अपने 50 पुत्रों को आज्ञा न मानने के अपराध में घर से निकाल दिया था । किन्तु इस
प्रकार के निर्णय विशेष परिस्थितियों में ही लिये जाते थे । सामान्यतः पिता का
पुत्र एवं अन्य पारिवारिक सदस्यों के साथ सम्बन्ध मृदुतापूर्ण था ।
वर्ण व्यवस्था
में परिवर्तन -

वर्णों में क्रमशः कठोरता
आने लगी थी और अब वे जाति
के रूप में परिणत होने लगे थे । परन्तु इस समय भी जाति प्रथा उतनी अधिक कठोर नहा
बनी जितनी सूत्रों के काल में देखने को मिलती है । व्यवसाय-परिवर्तन कुछ कठिन सा
हो गया था । धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में चारों
वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) के
कर्त्तव्यों, अधिकारी और स्थिति में विभेद किया जाने लगा
। शतपथ ब्राह्मण में चारों
वर्णों की अंत्येष्टि के लिये
चार प्रकार के टीलों का उल्लेख
है । संबोधन के ढड्ग भी अलग-अलग मिलते है । प्रत्येक वर्ण के उपयोग के लिये अलग-
अलग रंग के यज्ञोपवीत का विधान
मिलता है । ब्राह्मण को ‘एहि’ (आइये) क्षत्रिय के ‘आगहि’
(आओ) वैश्य के ‘आद्रव’ (जल्दी आओ) तथा शूद्र को ‘आधाव’
(दौड़कर आओ) कहकर संबोधित किये जाने का विधान मिलता है । इन सबसे
स्पष्ट है कि वर्ण-भेद उत्तरोत्तर बढते जा रहे थे । समाज में अनेक धार्मिक
श्रेणियों (Guilds), का उदय हुआ जो कठोर होकर विभिन्न जातियों
में बदलने लगीं । व्यवसाय आनुवंशिक
होने लगे । चर्मकारों, रथकारों, धातुकारों
आदि की अलग जातियों बन गयी । कुछ सीमा तक अन्तर्वर्ण विवाह होते थे ।
· ब्राह्मण- ऐतरेय ब्राह्मण में चारों
वर्षों के कर्त्तव्यों का वर्णन मिलता है । ब्राह्मणों
को दान लेने वाला (आदायी) सोमपायी कार्यशील तथा इच्छानुसार भ्रमण करने वाला
यथाकाम (प्रयाप्य) कहा गया है । कुछ उल्लेखों में ब्राह्मण को राजा से भी
बड़ा बताया गया है । शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि राजा अपनी शक्ति ब्राह्मण से ही
प्राप्त करता है ।
· क्षत्रिय - क्षत्रिय या राजा भूमि
के स्वामी होते थे । वे दश की रक्षा के लिये युद्ध करते तथा प्रजा से कर लेते थे ।
ऐसा लगता है कि इस समय बाह्मणों तथा क्षत्रियों में
सामाजिक प्रतिष्ठा के लिये प्रतिस्पर्धा प्रारम्भ हो गयी थी । शतपथ
ब्राह्मण एक-दूसरे स्थान पर क्षत्रिय को ब्राह्मण की अपेक्षा श्रेष्ठ बताता है ।
इस काल के कुछ क्षत्रिय शासक अपने ज्ञान के लिये विख्यात थे तथा वे ब्राह्मणों के
भी शिक्षक थे ।
· वैश्य- वैश्य दूसरे को कर देते थे (अन्यस्यवीलकृत) तथा
कृषि व्यापार और उद्योग धन्धों में लगे रहते थे । उन्हें ‘आदय’ (भक्षणीय) कहा
गया है जिससे तात्पर्य है कि वैश्य सामाजिक पुष्टि (पोषण) के आधार थे ।
· शूद्र- शूद्र को तीनों
वर्णों का सेवक (अन्यस्य प्रेष्य:) कहा गया है । लोग उसे मनमाने ढंग से उखाड़ फेंकते थे (कामोत्थाप्य:) और
इच्छानुसार उसका वध कर सकते थे (यथाकामबध्य:) । किन्तु जी॰ सी॰
पाण्डे ‘वध्य’ का
अर्थ दण्डनीय करते है । शतपथ ब्राह्मण में भी शूद्रों की हीन स्थिति का उल्लेख हुआ है तथा
बताया गया है कि शूद्र अभिषिक्त पुरुष द्वारा सम्बोधन-योग्य नहीं होता था । परन्तु
इस समय तक समाज में अस्पृश्यता की भावना का उदय नहीं हुआ था । उपनिषदों में उल्लिखित सत्यकाम जाबालि
तथा जानश्रुति की कथाओं
से स्पष्ट है कि शूद्र दर्शन के अध्ययन से वंचित नहीं किया गया था । शतपथ ब्राह्मण सोमयज्ञ
में शूद्र को स्थान देता है । वृहदारण्यक तथा छान्दोग्य
उपनिषदों में कहा गया है कि
ब्राह्मलोक में सभी समान माने जाते है । अतः
चाण्डाल भी यज्ञ का अवशेष पाने
का अधिकारी है ।
निम्नलिखित
वर्गों को वर्णव्यवस्था से अलग रखा गया था, ये अतिनिम्न श्रेणी में
आते थे-
1.पुलिंद
2.शवर
3.व्रात्य
4.निषाद
5.आन्ध्र
6.पुण्ड
स्त्रियों की दशा
समाज में स्त्रियों की दशा काफी हद तकअच्छी थी । बालविवाह नहीं होते थे । बहुविवाह तथा विधवा विवाह प्रचलित थे । मैत्रायणी
संहिता में मनु की
10 पत्नियों का उल्लेख हुआ है । स्त्रियों को पर्याप्त शिक्षा दी जाती थी । वे उत्सवों तथा धार्मिक
समारोहों में भाग ले सकती थीं । परन्तु उन्हें अब भी राजनीतिक तथा धन-सम्बन्धी अधिकार प्राप्त नहीं थे । ऐसा
प्रतीत होता है कि उनकी सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिष्ठा ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा कम
हो गई थीं । ऐतरेय ब्राह्मण स्पष्टतः
कन्या के चिन्ता का कारण बताता
है । अथर्ववेद भी कन्याओं के जन्म की निन्दा करता है । मैत्रायणी संहिता में तो स्त्री को द्यूत तथा मदिरा
की श्रेणी में रखा गया है । समाज का शेष जीवन, जैसे-खान-पान, मनोरंजन, वस्त्राभूषण
आदि ऋग्वैदिक काल के ही समान था ।'ऐतरेय
ब्राह्मण' के
अनुसार पुत्र परिवार का रक्षक एवं पुत्रियाँ दुःख
का मूल थीं. 'मैत्रायणीसंहिता' के मतानुसार जुआ और शराब के
साथ स्त्रियाँ भी पुरुष के लिए एक दुर्गुण थी. उच्च वर्गों में बहुविवाह की प्रथा प्रचलित
थी.
आर्थिक जीवन
कृषि -
पशुपालन के साथ-साथ कृषि भी मुख्य पेशा बन गया । कृषि और
पशुपालन अब भी आर्थिक जीवन के मुख्य आधार थे । शतपथ
ब्राह्मण में कृषि की चारों
क्रियाओं- जुताई, बुवाई, कटाई तथा मड़ाई
(कृषन्त: वपन्त: लुनन्त: मृणन्त:) का उल्लेख हुआ है ।अथर्ववेद में बताया गया है कि सर्वप्रथम पृथ्वीवेन ने हल
चलाया। इस काल में अनाजों की संख्या में भी वृद्धि हुई । यव(जौ)
के अलावा गोधूम(गेहूँ), ब्रीही/तुंदल (चावल), उङद, मसूर,
तिल, गन्ना के भी साक्ष्य मिलते हैं। इंद्र को सुनासिर(हलवाहा) कहा गया है।कठ/काठक संहिता
में 24 बैलों के द्वारा हल चलाया जाता था। छान्दोग्योपनिषद् में
एक स्थान पर बताया गया है कि कुरु
जनपद में कभी भी ओले नहीं पड़े और न ही टिड्डियों के उपद्रव के
कारण अकाल ही पड़ा । पंचाल के राजाओं में प्रवाहन, जैबलि, अरुणि एवं श्वेतकेतु के नाम मिलते है । । लोग खाद के प्रयोग से परिचित थे । अथर्ववेद में पशुओं की प्राकृतिक खाद को
मूल्यवान बताया गया है ।
पशुपालन -
शतपथ ब्राह्मण में सूकर का वर्णन है। पशुओं में गाय, बैल, भेड़,
बकरी, गधे आदि पशु प्रमुख रूप से पाले जाते
थे। इस समय लोगों ने हाथी को पालना प्रारम्भ कर दिया था। अथर्ववेद में ऊँट गाड़ी का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में गाय के प्रति सम्मान का उल्लेख
मिलता है । जो यज्ञों के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर गोबध करते थे उनके लिये
मृत्युदण्ड का विधान मिलता है ।
फसलें - अथर्ववेद में दो प्रकार के धान का उल्लेख
है- एक ब्रीहि तथा दूसरा तन्दुल । इसके अतिरिक्त इस वेद में यव (जौ), उड़द,
गन्ना, तिल का आदि उल्लेख
भी मिलता है। वर्ष में दो फसलें होती थी। वाजसनेयी संहिता में गोधूम (गेहूँ), यव, ब्रीहि (धान), उड़द, मूँग, मसूर, तिल, प्रियंग, निवार आदि की उपज का वर्णन है। अंतरजीखेड़ा
के उत्खनन से हंसिए (दात्र) के
अवशेष तथा जी, चावल और गेहूँ के प्रमाण मिलते है ।
अतरंजीखेड़ा उत्खनन योजना
व्यापार -
जल तथा थल दोनों मार्गों से व्यापार होते थे । शतपथ ब्राह्मण में पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्री
का उल्लेख हुआ है । वाजसनेयी सहिता
में 100 डाड़ों वाले जलपोतों का उल्लेख हुआ
है । व्यवसाय क्रमश वशानुगत होते जा रहे थे । वाजसनेयी
संहिता तथा तैत्तिरीय बाह्मण में
इस समय के विभिन्न व्यवसायियों की एक लम्बी सूची मिलती है । इनमें स्वर्णकार,
रथकार, चर्मकार, जुलाहे,
रन्द्रकार, रजक, मछुए
लुहार, नायक, नर्तक, सूत, व्याध, गोप, कुम्भकार, वैद्य, ज्योतिषी,
नाई, इत्यादि प्रमुख हैं ।
व्यापारिक श्रेणी- इस काल के ग्रन्थों में व्यापारियों की
अनेक श्रेणियों का उल्लेख मिलता है । ‘श्रष्ठिन्’ श्रेणी का प्रधान व्यापारी होता था । ब्याज पर धन देने
का पेशा काफी प्रचलित था । तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिये ‘कुसीद’ शब्द तथा शतपथ ब्राह्मण
में उधार देने वाले के लिये ‘कुसीदिन्’ शब्द
मिलता है ।
धातु
सोने और चाँदी के पश्चात् महत्त्वपूर्ण धातु अयस थी।
मैक्समूलर का मत है कि लोह शब्द
का अर्थ तांबे में प्रयुक्त
होता था। तैत्तरीय संहिता में एक स्थान पर रजत
के लिए रजतहिरण्य का प्रयोग
मिलता है। लोहे से इनके भौतिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ । पुरातात्विक
प्रमाणों से पता चलता है कि गन्धार, बलूचिस्तान, पूर्वी पजाब तथा पश्चिमी उत्तर
प्रदेश में ई॰ पू॰ 1000 के लगभग लोहे का
प्रयोग प्रारम्भ हो चुका था । ईसा-पूर्व सातवीं शती तक लोहे का प्रसार पूर्वी उत्तर प्रदेश तक
हो गया । 
500 ई. पू. का लोहे का
बना हल का फाल जखेड़ा (वर्तमान एटा उत्तर प्रदेश) से उत्खनन के दौरान
प्राप्त हुआ है
काटकसंहिता में 24 बैलों से हल खींचने का उल्लेख मिलता है. 800 ई.पू. के आस-पास इसका उपयोग गंगा - यमुना दोआब में होने लगा था।
माप-
निष्क, शतमान,
पाद, कृष्णल आदि माप की भिन्न-भिन्न इकाइयों
थी । प्राचीन भारत की बाट पद्धति में रत्तिका का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रहा है । साहित्य में
इसे भुलाबीत्र कहा गया है । गुंजा भी
उसी के समान थे । सिक्के का नियमित प्रचलन नहीं था ।
मृदभांड -
उत्तरवैदिक काल के लोग 4 प्रकार के बर्तनों से (मृदभांडों ) परिचित थे- 1. काले व लाल भांड 2.काले रंग के भांड 3. चित्रित धूसर मृदभांड 4.लाल भांड। इस काल के लोगों में लाल मृदभांड सबसे अधिक प्रचलित थे जबकि चित्रित धूसर मृदभांड इस युग की विशेषता थी। शपतथ ब्राह्मण में कुलाल चक्र का उल्लेख मिलता है। इससे प्रकट होता है कि मिट्टी के
घड़े, प्याले,
तश्तरियाँ आदि चक्र के ऊपर बनते थे। चित्रित
धूसर मृद्भाण्ड इस काल की विशिष्टता थी, क्योंकि यहाँ के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों तथा थालियों का प्रयोग करते थे।
उत्तरी दोआब में चित्रित धूसर मृद्भाण्ड के 700
स्थल मिले हैं जिसमें चार की खुदाई
हुई है-
1.
अतरंजीखेड़ा
2.
जखेड़ा
3.
हस्तिनापुर
4.
नोह
5.
आलमगीरपुर
धर्म तथा दर्शन
उत्तर-वैदिक काल में धर्म और
दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए । अनेक ऋग्वैदिक देवताओं का महत्व
घट गया तथा उनके स्थान पर नवीन देवताओं की प्रतिष्ठा हुई । ऋग्वैदिक काल के वरुण, इन्द्र आदि का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र ने ले लिया ।
यज्ञ विधि -
यज्ञीय विधि-विधान
अत्यन्त विस्तृत एवं जटिल हो गये । यज्ञों में पशुबलि को प्राथमिकता दी गयी तथा अन्य आहुतियाँ गौंड़ होने
लगीं । राजसूय, वाजपेय तथा अश्वमेध
जैसे विशाल यज्ञों का अनुष्ठान किया जाने लगा । अग्निष्टोम, दर्श और पूर्णमास, चातुर्मास्य, आग्रयण,
निरुढ़-पशुबन्ध, सौत्रामणि, पिण्डपितृ, षोडसी, अतिरात्र,
पुरुषमेध आदि विविध प्रकार के
यज्ञों का भी उल्लेख प्राप्त होता है ।
- गोपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा को राजसूय यज्ञ, सम्राट को वाजपेय, स्वराट को अश्वमेध, विराट को पुरुषमेघ और सर्वराट को सर्वमेघ करना चाहिए। किन्तु आपस्तम्भ श्रोत
सूत्र के अनुसार अश्वमेध
यज्ञ केवल सर्वभौम ही कर सकता है।
- अग्निष्टोम पाँच दिनों
तक चलता था । इसमें ग्यारह पशुओं की बलि दी जाती थीं । इसमें बारह शस्त्रों का
प्रयोग होता था ।
- सोमयज्ञ के अर्न्तगत
उल्लिखित सात प्रकारों में यह प्रकृतियाग होने के कारण अधिक महत्वपूर्ण था ।
- पुरुषमेध’ पाँच दिन तक
चलता था तथा इसमें ग्यारह अथवा पचीस यूप निर्मित किये जाते थे । इसमें पुरुष बलि का विधान थार जो ब्राह्मण या क्षत्रिय
जाति का होता था ।
राजसूय’ क्षत्रिय शासक अपने अभिषेक
की समाप्ति पर करते थे ।राजसूय यज्ञ
करने पुरोहिताध्यक्ष को दक्षिणा के रूप में 240,000 गायें दी जाती थी।
- वाजपेय
(रथदौड़) यज्ञ में राजा का रथ अन्य सभी
बन्धुओं के रथों से आगे निकल जाता था। इन सभी अनुष्ठानों से प्रजा के चित्त पर
राजा बढ़ती शक्ति और महिमा गहरी छाप पड़ती थी। वाजपेय
यज्ञ शक्ति प्राप्त करने वाला एक सोम यज्ञ था जो साल में 17 दिन तक चलता था।
- अश्वमेध सार्वभौम
सत्ता का प्रतीक होता था’।
यज्ञ क्रमश: पशु
हत्या के साधन बन गये । अश्वमेध
यज्ञ में 600 पशुओं की
हत्या कर दी जाती थी । शतपथ ब्राह्मण में भरतों के दो राजाओं भरत दौषयन्ति और शतनिक सत्राजित द्वारा
अश्वमेध यज्ञ कराने का उल्लेख हैं।
- यज्ञ कराने
वाले ब्राह्मण पुरोहितों को बहुत अधिक गायें, सोना, वस्त्र, भूमि आदि दान में दी जाती थीं ।
चार आश्रम-
अब कायाक्लेश एवं सन्यास मोक्ष-प्राप्ति के लिये आवश्यक समझे गये । संन्यास की अवधारणा निश्चयत: आर्येतर संस्कृति
के प्रभाव का फल थी । ब्राह्मण चिन्तकों ने इसे अपनी संस्कृति में स्थान देने के
लिये मानव जीवन में चार आश्रमों का सिद्धान्त प्रतिपादित किया । प्रारम्भिक उपनिषदों
में केवल तीन आश्रमों का विधान मिलता है- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ । परन्तु कालान्तर में ‘सन्यास’ नाम
से एक चौथा आश्रम इस व्यवस्था का अंग बन गया । प्रत्येक ‘द्विज’ को इन
चारों आश्रमों से होकर जीवन-यापन करना आवश्यक बताया गया । उत्तर-वैदिककाल में
निम्नलिखित चार पुरुषार्थ तत्कालीन
मानव के प्रमुख लक्ष्य थे-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष.
उत्तर-वैदिककाल में उच्च वर्ण के
लोगों को निम्न ऋणों से उऋण होना
अत्यावश्यक था -
1.देवऋण
2.ऋषित्रण
3.पितरऋण
4.मानवीयऋण
अवैदिक विचारधारा -इसी समय (लगभग 600 ई॰ पू॰) उपनिषदों की रचना हुई तथा पुरोहितों के बढ़ते
हुए प्रभाव, यज्ञीय कर्मकाण्ड तथा अनुष्ठानों के
विरुद्ध सबल प्रतिक्रिया प्रारम्भ हुई । उपनिषदों के समय तक तप, त्याग, सन्यास आदि पर विशेष बल दिया जाने लगा । इस
पर भी कुछ विद्वान् अवैदिक विचारधारा का ही प्रभाव देखते हैं । उपनिषदों में स्पष्टतः
यज्ञों तथा कर्मकाण्डों की निन्दा की गयी है तथा ‘ब्रह्मा’ को एकमात्र सत्ता स्वीकार किया गया है । उसे निर्विकार, अद्वैत एवं निरपेक्ष बताया गया है, जो जगत् से परे भी है, तथा उसमें व्याप्त भी है । ब्रह्म का
व्यक्ति के सारभूत तत्व ‘आत्मा’ से समीकरण स्थापित किया गया है । उपनिषदों के
अनुसार आत्मसाक्षात्कार ही मोक्ष है जो अज्ञान के नाश से संभव है । जगत् का माया
के रूप में चित्रण मिलता है ।