बृहद्रथ वंश
बृहद्रथ- चेदिराज उपरिचर वसु के छः पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र बृहद्रथ से मगध का राजवंश प्रारम्भ होता। चेदिराज उपरिचर वसु का पुत्र, बृहद्रथ मगध का नरेश और जरासंध का पिता था (महाभारत -आदिपर्व, सभापर्व मे वर्णित )। बृहद्रथ ने ऋषभ नामक राक्षस का वध किया और उसकी खाल से तीन वाद्य ढोल बनवाए। बृहद्रथ ने अपने राज्य की सीमा का बहुत विस्तार किया था। बाद में उसने राजपाट छोड़कर अपने पुत्र जरासंध को मगध का नरेश बना दिया।
जरासंध -
जरासंध महाभारत कालीन मगध राज्य के नरेश थे । माना जाता है कि जरासंध के
पिता मगधनरेश बृहद्रथ थे
और उनकी दो पटरानियां थी, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी। ब्राह्मण कथा के अनुसार ऋषि
चंडकौशिक भय द्वारा दिए आम को दो टुकड़ों मे काट के खाने के कारण दोनों रानियों को आधा-आधा पुत्र
पैदा हुआ। जिसे उन्होंने वन में फिकवा दिया। इन टुकड़ों को पार्वती का 185 वां रूप माँ जरा ने जोड़ दिया ,इसीलिए उसका नाम जरासंध हुआ। सम्राट जरासंध महादेव का बहुत बड़ा भक्त था। कहते हैं की चक्रवर्ती सम्राट बनने की लालसा हेतु उसने कईं राजाओं को बंदी बनाकर रखा था ताकि जिस दिन 101 राजा हों
और वे महादेव को प्रसन्न करने के लिए उनकी बलि दे सके। वह मथुरा के नरेश कंस का ससुर एवं परम मित्र था उसकी दोनो पुत्रियो आसित एव्म प्रापित का विवाह कंस से हुआ था।
मथुरा से संघर्ष - श्रीकृष्ण से कंस के वध का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने 17 बार मथुरा पर चढ़ाई की लेकिन जिसके कारण भगवान श्रीकृष्ण को मथुरा
छोड़ कर जाना पड़ा फिर वो द्वारिका जा बसे, तभी उनका नाम रणछोड़ कहलाया।
मृत्यु – महाभारत के अनुसार जरासंध का वध भीम द्वारा एक मलयुद्ध मे हुआ। यह युद्ध लगभग 28 दिनो तक चलता रहा और अंत मे भीम की विजय हुई।
हर्यक वंश
बिम्बिसार
हर्यक वंश की स्थापना 544 ई. पू. में बिम्बिसार के द्वारा की गई। यह नागवंश की ही एक उपशाखा थी यह एक क्षत्रिय वंश है जिसका राजनीतिक शक्ति के रूप में मगध का सर्वप्रथम उदय हुआ। बिम्बिसार को मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। बिम्बिसार का जन्म 558 ईसा पूर्व के लगभग हुआ था। पुराणों के अनुसार बिम्बिसार को 'श्रेणिक' कहा गया है। बिम्बिसार ने गिरिव्रज को अपनी राजधानी बनायी। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार वे पन्द्रह वर्ष की आयु में ही राजा बने और अपने पुत्र 'अजातसत्तु' (अजातशत्रु) के लिए राज-पाट त्यागने से पूर्व लगभग 544 ईसा पूर्व से 492 ईसा पूर्व तक 52 वर्ष तक शासन किया।
वैवाहिक संबंध- बिम्बिसार ने मगध के यश और सम्मान को वैवाहिक संधियों और विजयों के माध्यम से काफी बढाया। “महावग्गा” के अनुसार उनकी 500 रानियाँ थीं।
- कोसल देवी- उसकी एक रानी कोसल
के राजा 'प्रसेनजित'की बहन कोसल देवी/महाकोशला थी और उसे दहेज स्वरूप काशी का 1 लाख राजस्व वाला गांव मिला था। इसी रानी से अजातशत्रु का जन्म हुआ था।
- चेल्लना - उसकी दूसरी रानी 'चेल्लना'
थी, जो कि वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी। बिंबिसार ने अपनी वृद्धावस्था में मुग्ध होकर इसे ब्याहा
था। बिंबिसार बौद्ध धर्मावलंबी था और चेलना जैन धर्मावलंबी। कहा जाता है कि चेलना ने बिंबिसार को जैनधर्म स्वीकार करने को बाध्य कर दिया था।
- खेमा अथवा 'क्षेमा', -तीसरी पत्नी रानी पंजाब के मद्र कुल के प्रधान की
पुत्री राजकुमारी क्षेमा थी। वैवाहिक संबंध से मगध की
राजनीतिक प्रतिष्ठा और अधिक उन्नत हुई।
- आम्रपाली -
इन के अलावा बिम्बिसार की एक और रानी का जिक्र भी मिलता है जो वैशाली
की प्रसिद्ध नगरवधू
(गणिका) आम्रपाली थी जिसका नाम जैन साहित्यों में मिलता है। जनश्रुतियों के अनुसार आम्रपाली बुद्ध की
परम उपासक थी । आम्रपाली के सौन्दर्य पर मोहित होकर बिम्बिसार ने लिच्छवि से जीतकर राजगृह में ले आया। दोनों
के संयोग से जीवक (विमला कोंडन्ना) नामक पुत्ररत्न. हुआ। बिम्बिसार ने जीवक
को तक्षशिला में शिक्षा हेतु भेजा। यही जीवक एक प्रख्यात चिकित्सक एवं राजवैद्य बना। जिन्होंने आगे चलकर भगवान बु्द्ध की सेवा की थी । - बिम्बिसार की अन्य पत्नियाँ भी थीं जैसे सीलव और जयसेना।
इन के अलावा बिम्बिसार की एक और रानी का जिक्र भी मिलता है जो वैशाली की प्रसिद्ध नगरवधू (गणिका) आम्रपाली थी जिसका नाम जैन साहित्यों में मिलता है। जनश्रुतियों के अनुसार आम्रपाली बुद्ध की परम उपासक थी । आम्रपाली के सौन्दर्य पर मोहित होकर बिम्बिसार ने लिच्छवि से जीतकर राजगृह में ले आया। दोनों के संयोग से जीवक (विमला कोंडन्ना) नामक पुत्ररत्न. हुआ। बिम्बिसार ने जीवक को तक्षशिला में शिक्षा हेतु भेजा। यही जीवक एक प्रख्यात चिकित्सक एवं राजवैद्य बना। जिन्होंने आगे चलकर भगवान बु्द्ध की सेवा की थी ।
साम्राज्य विस्तार- समूचे शासनकाल मे बिंबिसार ने विस्तार और आक्रमण की नीति अपनाई, जिस कारण जिस कारण उसका संघर्ष काशी और कोसल राज्यों से चलता रहा। बिम्बिसार ने ब्रह्मदत्त को परास्त कर अंग राज्य पर विजय प्राप्त की थी। “बुद्धचर्य” के अनुसार उनका साम्राज्य 300 योजन विशाल था। गिरिव्रज’ (कुशाग्रपजुर) मगध की राजधानी थी। इसे ‘भी कहा जाता था। बिम्बिसार के राज्य में 80,000 गांव थे। तक्षशिला के गांधार शासक का राजदूत “पुकुस्ती” बिम्बिसार के दरबार में आया था। उसने अपने निजी चिकित्सक “जीवक” को अपने प्रतिद्वंदी उज्जैन के शासक “चंदप्रद्योत महासेन” के पास उसके पीलिया के इलाज के लिए भेजा था|
महावग्ग का उल्लेख- महावग्ग' के अनुसार बिम्बिसार की 500 रानियाँ थीं। उसने अवंति के शक्तिशाली राजा चन्द्र प्रद्योत के साथ दोस्ताना सम्बन्ध बनाया। सिन्ध के शासक रूद्रायन तथा गांधार के मुक्कु रगति से भी उसका दोस्ताना सम्बन्ध था।
प्रशासन:- उसके उच्चाधिकारी महामात्र या 'राजभट्ट'कहलाते थे। बिंबिसार के दरबार मे कहते हैं सुमन नाम का एक अधिकारी था जो हर रोज जेस्मिन के फूल दरबार को उपलब्ध करवट था, और खजांची (कुम्भकोष), और जीवक नामक चिकित्सक था। वोहारिक'न्यायिक कार्य करता था और 'महामात्त'उत्पादन कर इकट्ठा करते थे। बिंबिसार की एक उपाधि सेनानी मिलती है जिसका अर्थ ये था की बिंबिसार ने एक स्थायी सेना तैयार की थी और उसका मुख्य उसने स्वयं को बनाया।
बिम्बिसार और जैन धर्म – जैन धर्म के ग्रंथ
उत्तर ध्यायन सूत्र के अनुसार बिंबिसार महावीर जैन का परम अनुयायी था। इसमे कहा गया है की बिंबिसार अपनी
रानियों औरं मंत्रियों के साथ महावीर जैन की शरण मे आया और अनुयायी बना।
बिम्बिसार और बौद्ध धर्म - 'सुत्तनिपात' की अट्ठकथा के पब्बज सुत्त के अनुसार बिम्बिसार ने संन्यासी गौतम का प्रथम दर्शन पाण्डव पर्वत के नीचे अपने राजभवन के गवाक्ष से किया और
उनके पीछे जाकर उन्हें अपने राजभवन में आमन्त्रित किया था। बिम्बिसार का जीवन बौद्ध पवित्र पुस्तकों में वर्णित है। बुद्ध और उनके अनुयायी बिम्बिसार के शाही मेहमान थे। अपना
भोजन समाप्त करने के बाद, बिम्बिसार ने अपना आभार व्यक्त करने के लिए बुद्ध के हाथों में एक स्वर्ण जार से पानी डाला। बुद्ध का स्वागत करते हुए बिंबिसार
बिम्बिसार ने वेलुवना पार्क को बुद्ध को दान कर दिया था। उसके बाद बिम्बिसार को बौद्ध धर्म में परिवर्तित कर दिया गया और अपने शासनकाल के शेष 37 वर्षों तक बौद्ध धर्म के विकास का संरक्षण किया। बिंबिसार की रानी खेमा/ क्षेमा की बौद्ध साहित्य मे बहुत प्रशंसा की गई है। विनय पिटक यह बताता है की बुध ने बिंबिसार की कईं तरह की शंकाओं का समाधान किया था।
मृत्यु- बिंबिसार की मृत्यु से संबंधित जैन और बौद्ध साहित्यों मे अनेकों जनश्रुतियाँ सुनने और पढ़ने को
मिलती है
· जैनियों के ग्रन्थ 'आवश्यक सूत्र' के अनुसार, जल्द राज्य पाने की चाह में
अजातशत्रु ने अपने पिता बिम्बिसार को कैद कर लिया, जहां रानी
चेल्लना ने बिम्बिसार की देखरेख की। बाद में जब अजातशत्रु को पता चला कि उसके पिता उसे
बहुत चाहतें हैं और वे उसे युवराज नियुक्त कर चुकें हैं, तो अजातशत्रु ने लोहे की डन्डा ले कर बिम्बिसार
की बेडियां काटने चला पर बिम्बिसार को लगा की अजातशत्रु उसे मारने आ रहा है और उसने इसी शंका में जहर खा लिया।
· बौद्ध ग्रन्थ 'विनयपिटक' के अनुसार, बिम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को युवराज घोषित कर दिया था परन्तु अजातशत्रु ने जल्द राज्य पाने की कामना में बिम्बिसार का वध कर दिया। उसे ऐसा कृत्य करने के लिये सिद्धार्थ के चचेरे भाई 'देवदत्त' ने उकसाया था और कई षड्यन्त्र रचा था। यह कहानी बताती है की बिम्बिसार को मौत तक भूखा रहने के लिए मजबूर किया गया था। रानी महाकोशला को छोड़कर, किसी भी आगंतुक को जेल में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी। पहले कोशल देवी ने अपनी पोशाक में छुपाए हुए एक ‘सुनहरे कटोरे में भोजन ले गई। जब उसकी योजना का पता चला, तो उसने अपने पांव में पात्र छुपा कर भोजन ले जाने लगी। जब इस बात का खुलासा किया गया तो उसने अपने सिर के बालों में छुपा कर के खाना ले गई। उसके बाद रानी ने सुगंधित पानी में स्नान करने का फैसला किया और अपने शरीर को शहद से ढँक दिया ताकि बूढ़ा राजा उसे चाट सके और बच सके। अंत में इसका पता चला और रानी के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया। चलने-फिरने और ध्यान लगाने से बिम्बिसार बच गए। अजातशत्रु को भी इस बारे में पता चला और वह समझ गया कि उसके पिता आसानी से मरने वाले नहीं हैं। उसने जेल के अंदर कुछ नाइयों को भेजा। बिम्बिसार ने सोचा कि दाढ़ी बनाने के लिए नाइयों को भेजा है ताकि वह एक भिक्षु के जीवन का नेतृत्व कर सके। लेकिन नाइयों ने उसके पैरों को काट दिया और नमक से घावों को भर दिया और उन्हें कोयले से जला दिया ताकि बूढ़ा राजा और न चल सके। इस प्रकार बिम्बिसार ने अपने जीवन के दुखद अंत को पूरा किया।
अजातशत्रु
अजातशत्रु (493 ई.पू. से 461 ई.पू.) बिंबिसार का पुत्र था। उसके बचपन का नाम 'कुणिक' था। अजातशत्रु ने मगध की राजगद्दी अपने पिता की हत्या करके प्राप्त की थी। सिंहली अनुश्रुतियों के अनुसार अजातशत्रु ने लगभग 32 वर्षों तक शासन किया और 461 ई.पू. में अपने पुत्र उदयन द्वारा वह मारा गया। सरकारी संग्रहालय, मथुरा में प्राचीन शिलालेख उन्हें वैदेही पुत्र अजातशत्रु कुनिका के रूप में संदर्भित करता है "अजातशत्रु कुनिका, वैदेही का पुत्र।" जैन धर्म के अनुसार, अजातशत्रु का जन्म राजा बिंबिसार और रानी चेलना से हुआ था; बौद्ध परंपरा अजातशत्रु का जन्म बिम्बिसार और कोसल देवी के रूप में हुई है। यह ध्यान देने योग्य है कि दोनों परंपराओं में दोनों रानियों को "वैदेही" कहा जाता था।
जैन निरावलिका सूत्र के अनुसार, अपनी गर्भावस्था के दौरान रानी चेलना की अपने पति के दिल का तला हुआ मांस खाने और शराब पीने की प्रबल इच्छा थी। इस बीच, राजा बिंबिसार और रानी नंदा के पुत्र, बहुत बुद्धिमान राजकुमार अभयकुमार ने एक जंगली फल को तला और एक ह्रदय जैसा बनाकर रानी को दिया। रानी ने इसे खाया और बाद में इस तरह की राक्षसी इच्छा के लिए शर्म महसूस की और उसे डर था कि बच्चा बड़ा हो सकता है और परिवार के लिए घातक साबित हो सकता है, इस प्रकार बच्चे के जन्म के कुछ महीनों बाद, रानी ने उसे महल से बाहर फेंक दिया था। । जब बच्चा कूड़े के ढेर के पास पड़ा था, तो एक मुर्गी ने अपनी छोटी उंगली को हिलाया। राजा बिम्बिसार, बच्चे को फेंके जाने के बारे में जानकर, बाहर भागे और बच्चे को उठाया और उसकी छोटी उंगली को अपने मुंह में डाला और उसे तब तक चूसा, जब तक कि यह रक्तस्राव बंद नहीं हुआ और इसे तब तक जारी रखा जब तक यह ठीक नहीं हो गया। उसे कुनिका "सॉर फिंगर" उपनाम दिया गया था। बाद में उनका नाम अशोकचंड रखा गया
बौद्ध अट्टाकथा में, उपरोक्त कहानी लगभग एक जैसी है, सिवाय इसके कि कोसलादेवी बिंबिसार की बांह से खून पीना चाहती है।
साम्राज्य विस्तार-
अजातशत्रु ने अंग, लिच्छवी, वज्जी, कोसल तथा काशी जनपदों को अपने राज्य में मिलाकर एक विशाल साम्राज्य को स्थापित किया था। पालि ग्रंथों में अजातशत्रु का नाम अनेक स्थानों पर आया है, क्योंकि वह बुद्ध का समकालीन था और तत्कालीन राजनीति में उसका बड़ा हाथ था। उसका मन्त्री 'वस्सकार' एक कुशल राजनीतिज्ञ था, जिसने लिच्छवियों में फूट डालकर साम्राज्य को विस्तृत किया था। प्रसेनजित का राज्य कोसल के राजकुमार विडूडभ ने छीन लिया था। उसके राजत्वकाल में ही विडूडभ ने शाक्य प्रजातंत्र को समाप्त किया था। कोसल के राजा प्रसेनजित को हराकर अजातशत्रु ने राजकुमारी 'वजिरा' से विवाह किया था, जिससे काशी जनपद स्वतः ही उसे प्राप्त हो गया था। ऐसा माना जाता है की अजातशत्रु ने किसी कारणवश अपनी राजधानी राजगृह से चम्पा परिवर्तित कर दी थी।
वज्जि/लिछवि से संघर्ष-
जैन धर्म – अजातशत्रु अजीवक धर्म प्रचारक गोशाल और जैन धर्म प्रचारक महावीर स्वामी के निकट भी गया। जैनियों के उवावेयी/ औपपतक सूत्र, जो जैनियों का पहला उपंग (जैन आगम देखें) महावीर और अजातशत्रु के बीच के संबंध पर प्रकाश डालते हैं। यह वर्णन करता है कि अजातशत्रु ने महावीर को सर्वोच्च सम्मान में रखा था। इसी ग्रन्थ में यह भी कहा गया है कि अजातशत्रु के पास महावीर की दिनचर्या के बारे में रिपोर्ट करने के लिए एक अधिकारी था। उसे बड़े पैमाने पर भुगतान किया गया था। अधिकारी के पास एक विशाल नेटवर्क और सहायक फील्ड स्टाफ था, जिसके माध्यम से उसने महावीर के बारे में सभी जानकारी एकत्र की और राजा को सूचना दी। उवैवी सुत्त ने महावीर के चम्पा के शहर आगमन पर विस्तृत चर्चा की है।
बौद्ध धर्म -
बौद्ध परंपरा के अनुसार,समणफल सुत्त, बुद्ध के साथ अपनी पहली मुलाकात से संबंधित है, जहां उन्होंने
देवदत्त के
साथ अपने जुड़ाव और अपने पिता की हत्या करने की योजना के बारे में अपनी गलतियों का
एहसास किया। उसी पाठ के अनुसार, इस बैठक के दौरान, अजातशत्रु ने बुद्ध, धम्म और संघ का संरक्षण लिया। उन्होंने कुशिनारा जा कर अंतिम संस्कार के बाद बुद्ध की हड्डियों और राख पर एक विशाल स्तूप बनवाया।
प्रथम बौद्ध संगीति-
मृत्यु - इतिहासकारों द्वारा दर्ज अजातशत्रु की मृत्यु का समय c. 535 BCE है। उनकी मृत्यु के समय का वर्णन जैन
और बौद्ध परंपराओं के बीच व्यापक रूप से भिन्न है। कुछ स्त्रोत इंगित करते
हैं की उनकी मृत्यु के 460 ई.पू. मे हुई। बौद्ध परंपरा के
अंजूसआर अजातशत्रु की उसके ही
पुत्र उदयभद्र ने नृशंस हत्या
कर दी थी,
जो उसके राज्य का लालची था। अजातशत्रु का पुनर्जन्म "लोहाकुंभिया"
नामक नरक में हुआ था।
उदयभद्र/
उदयिन
उदयभद्र मगध महाजनपद के शक्तिशाली राजा अजातशत्रु का पुत्र और उत्तराधिकारी था। उससे पहले दर्शक नाम के एक और राजा का उल्लेख भी मिलता है मगर उसके बारे मे ज्यादा जानकारी नहीं है। उसका उल्लेख उदायिन्, उदायी अथवा उदयिन और उदयभद्र जैसे कई नामों से मिलता है। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार उदयभद्र अपने पिता अजातशत्रु की ही तरह स्वयं भी पितृघाती था और पिता को मारकर गद्दी पर बैठा था। परंतु जैन अनुश्रुति उदयभद्र को पितृघाती नहीं मानती। परिशिष्टपर्वन् और त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित् जैसे कुछ अन्य जैन ग्रंथों में यह कहा गया है कि अपने पिता के समय में उदयभद्र चंपा का राज्यपाल रह चुका था और अपने पिता की मृत्यु पर उसे सहज शोक हुआ था। तदुपरांत सामंतों और मंत्रियों ने उससे मगध की राजगद्दी पर बैठने का आग्रह किया और उसे स्वीकाकर वह चंपा छोड़कर मगध की राजधानी गया। कथाकोश में उसे कुणिक (अजातशत्रु) और पद्मावती का पुत्र बताया गया है। परिशिष्टपर्वन् की सूचना है कि उसी ने सबसे पहले मगध की राजधानी राजगृह से हटाकर गंगा और सोन नदियों के संगम पर पाटलिपुत्र बसाकर वहाँ स्थापित की, हालांकि पाटलीपुत्र का निर्माण अजातशत्रु के समय मे ही आरंभ हो चुका था इस बात का समर्थन वायुपुराण से भी होता है। उसका कथन है कि उदयभद्र ने अपने शासन के चौथे वर्ष में कुसुमपुर नामक नगर बसाया। कुसुमपुर अथवा पुष्पपुर पाटलिपुत्र के ही अन्य नाम थे।
मृत्यु
– उदयभद्र की मृत्यु के विषय मे भी कोई एक मत नहीं हैं। कुछ स्त्रोत
मानते हैं की वह जैन धर्म का अनुयायी थी और उसने उसी धर्म के अनुसार (सलेखना) अपने प्राण त्यागे। एक तथ्य
कहता है की उसकी हत्या अवन्ती के शासक
ने किसी हत्यारे से तब करवाई जब उदयभद्र एक धार्मिक समारोह मे था।
उत्तराधिकारी - उदयभद्र के बाद नंदिवर्धन और महानंदिन को उसका उत्तराधिकारी माना जाता है। जबकि सिंहली अनुश्रुतिओं मे अनुरुद्ध, मुंड और नागदशक को उसका उत्तराधिकारी माना गया है ।
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